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[[भारतीय संस्कृति]] विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु [[भारत]] की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। तभी तो पाश्चात्य विद्वान अपने देश की संस्कृति को समझने हेतु भारतीय संस्कृति को पहले समझने का परामर्श देते हैं।
[[भारतीय संस्कृति]] विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु [[भारत]] की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। तभी तो पाश्चात्य विद्वान् अपने देश की संस्कृति को समझने हेतु भारतीय संस्कृति को पहले समझने का परामर्श देते हैं।
==संस्कृति के लक्षण अथवा विशेषताएँ==
==संस्कृति की विशेषताएँ==
संस्कृति के प्रमुख लक्षण या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
{{tocright}}
;सीखा हुआ व्यवहार-
भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
व्यक्ति समाज में रहकर जन्म से मृत्यु तक कुछ न कुछ सीखता ही रहता है और अनुभव प्राप्त करता रहता है, जो आगे चलकर संस्कृति का रूप धारण कर लेता है। संस्कृति किसी एक की होकर, समूह की हुआ करती है। अत: समूह के सीखे हुए व्यवहारों को ही संस्कृति कहा जाता है।
;प्राचीनता -  
;हस्तान्तरणशीलता-
[[भारतीय संस्कृति]] विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। [[मध्य प्रदेश]] के [[भीमबेटका गुफ़ाएँ भोपाल|भीमबेटका]] में पाये गये शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्त्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि [[भारत]] भूमि आदि मानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। [[सिन्धु घाटी की सभ्यता]] के विवरणों से भी प्रमाणित होता है कि आज से लगभग पाँच हज़ार वर्ष पहले उत्तरी भारत के बहुत बड़े भाग में एक उच्च कोटि की संस्कृति का विकास हो चुका था। इसी प्रकार वेदों में परिलक्षित भारतीय संस्कृति न केवल प्राचीनता का प्रमाण है, अपितु वह भारतीय अध्यात्म और चिन्तन की भी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भारतीय संस्कृति से [[रोम]] और [[यूनान|यूनानी]] संस्कृति को प्राचीन तथा [[मिस्र]], असीरिया एवं बेबीलोनिया जैसी संस्कृतियों के समकालीन माना गया है।
संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है, जो अनेक पीढ़ियों तक हस्तान्तरित होता रहता है। मनुष्य एक बौद्धिक प्राणी है, अत: वह अपने ज्ञान के आधार पर अपने सीखे हुए व्यवहार को आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देता है और इस हस्तान्तरण का आधार उस समूह की [[भाषा]] और उस समूह के द्वारा स्वीकृति प्राप्त प्रतीक या चिह्न होते हैं, जो कि अत्यन्त ही पवित्र समझे जाते हैं, और इन प्रतीकों के प्रति समूह की गहरी श्रद्धा होती है। हस्तान्तरणशीलता के कारण ही संस्कृति हज़ारों-लाखों वर्षों के बाद भी नष्ट नहीं होती है।
;निरन्तरता -
;सामाजिकता-
भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि [[मिस्र]], असीरिया, [[यूनान]] और [[रोम]] की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। [[भारत]] में नदियों, [[वट]], [[पीपल]] जैसे वृक्षों, [[सूर्य]] तथा अन्य प्राकृतिक देवी - [[देवता|देवताओं]] की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। [[वेद|वेदों]] और [[वैदिक धर्म]] में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। [[गीता]] और [[उपनिषद|उपनिषदों]] के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरन्तरता रही है, कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
व्यक्ति के द्वारा संस्कृति का निर्माण होता है और हर व्यक्ति में संस्कृति के गुण पाये जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति संस्कृति के सम्बन्ध में प्रयत्नशील रहता है, किन्तु संस्कृति व्यक्तिगत नहीं होती, वह सामाजिक होती है। किसी व्यक्ति विशेष के गुणों को संस्कृति नहीं कहा जा सकता है। संस्कृति सामाजिक गुणों का नाम है। संस्कृति में सभी सामाजिक गुणों का समावेश होता है, जैसे - धर्म, प्रथा, परम्परा, रीति-रिवाज, रहन-सहन, क़ानून, [[साहित्य]], [[भाषा]] आदि।
;लचीलापन एवं सहिष्णुता -
;आदर्शात्मक-
भारतीय संस्कृति की सहिष्णु प्रकृति ने उसे दीर्घ आयु और स्थायित्व प्रदान किया है। संसार की किसी भी संस्कृति में शायद ही इतनी सहनशीलता हो, जितनी भारतीय संस्कृति में पाई जाती है। भारतीय [[हिन्दू]] किसी देवी - देवता की आराधना करें या न करें, पूजा-हवन करें या न करें, आदि स्वतंत्रताओं पर धर्म या संस्कृति के नाम पर कभी कोई बन्धन नहीं लगाये गए। इसीलिए प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतीक हिन्दू धर्म को धर्म न कहकर कुछ मूल्यों पर आधारित एक जीवन-पद्धति की संज्ञा दी गई और हिन्दू का अभिप्राय किसी धर्म विशेष के अनुयायी से न लगाकर भारतीय से लगाया गया। भारतीय संस्कृति के इस लचीले स्वरूप में जब भी जड़ता की स्थिति निर्मित हुई तब किसी न किसी महापुरुष ने इसे गतिशीलता प्रदान कर इसकी सहिष्णुता को एक नई आभा से मंडित कर दिया। इस दृष्टि से प्राचीनकाल में [[बुद्ध]] और [[महावीर]] के द्वारा, मध्यकाल में [[शंकराचार्य]], [[कबीर]], [[गुरु नानक]] और [[चैतन्य महाप्रभु]] के माध्यम से तथा आधुनिक काल में [[स्वामी दयानन्द]], [[स्वामी विवेकानन्द]] एवं [[महात्मा ज्योतिबा फुले]] के द्वारा किये गए प्रयास इस संस्कृति की महत्त्वपूर्ण धरोहर बन गए।
संस्कृति समूह के सदस्यों के व्यवहारों का आदर्श रूप होती है और प्रत्येक सदस्य उसे आदर्श मानता है। संस्कृति में सामाजिक विचार, व्यवहार, प्रतिमान एवं आदर्श प्रारूप होते हैं और इन्हीं के अनुसार कार्य करना श्रेष्ठ समझा जाता है। प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति को दूसरे समाजों की संस्कृति से श्रेष्ठ मानता है। इस श्रेष्ठता का आधार उसकी संस्कृति के आदर्श प्रतिरूप ही हैं।
;ग्रहणशीलता -
;आवश्यकताओं की पूर्ति-
भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता एवं उदारता के कारण उसमें एक ग्रहणशीलता प्रवृत्ति को विकसित होने का अवसर मिला। वस्तुत: जिस संस्कृति में लोकतन्त्र एवं स्थायित्व के आधार व्यापक हों, उस संस्कृति में ग्रहणशीलता की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है। हमारी संस्कृति में यहाँ के मूल निवासियों ने समन्वय की प्रक्रिया के साथ ही बाहर से आने वाले [[शक]], [[हूण]], [[यूनानी]] एवं [[कुषाण]] जैसी प्रजातियों के लोग भी घुलमिल कर अपनी पहचान खो बैठे।
आवश्यकता आविष्कार की जननी है, और इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो साधन या उपकरण अपनाए जाते हैं, कालान्तर में वे ही संस्कृति का रूप धारण कर लेते हैं। अनेक आवश्यकताएँ ऐसी होती हैं, जिनकी पूर्ति अन्य साधनों से न होकर संस्कृति के माध्यम से होती है। सामाजिक और प्राणिशास्त्रीय दोनों प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति सतत संस्कृति द्वारा होती है।
 
;अनुकूलन की क्षमता-
भारत में इस्लामी संस्कृति का आगमन भी अरबों, तुर्कों और [[मुग़ल|मुग़लों]] के माध्यम से हुआ। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति का पृथक् अस्तित्व बना रहा और नवागत संस्कृतियों से कुछ अच्छी बातें ग्रहण करने में भारतीय संस्कृति ने संकोच नहीं किया। ठीक यही स्थिति यूरोपीय जातियों के आने तथा [[ब्रिटिश साम्राज्य]] के कारण [[भारत]] में विकसित हुई ईसाई संस्कृति पर भी लागू होती है। यद्यपि ये संस्कृतियाँ अब भारतीय संस्कृतियों का अभिन्न अंग है, तथापि ‘भारतीय इस्लाम’ एवं ‘भारतीय ईसाई’ संस्कृतियों का स्वरूप विश्व के अन्य इस्लामी और ईसाई धर्मावलम्बी देशों से कुछ भिन्न है। इस भिन्नता का मूलभूत कारण यह है कि भारत के अधिकांश [[मुसलमान]] और [[ईसाई]] मूलत: भारत भूमि के ही निवासी हैं। सम्भवत: इसीलिए उनके सामाजिक परिवेश और सांस्कृतिक आचरण में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया और भारतीयता ही उनकी पहचान बन गई।
समाज परिवर्तनशील है और इसके साथ ही साथ संस्कृति भी परिवर्तित होती रहती है। इन परिवर्तनों के बीच प्रत्येक संस्कृति को अपने पर्यावरण से अनुकूलन करना पड़ता है। इसके साथ ही, समय की मांग के अनुसार भी संस्कृति को परिवर्तित होना पड़ता है। यह परिवर्तन सतत चलता रहता है।
;आध्यात्मिकता एवं भौतिकता का समन्वय -
;एकीकरण की क्षमता-
भारतीय संस्कृति में आश्रम - व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों का विशिष्ट स्थान रहा है। वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अदभुत समन्वय कर दिया। हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को सम्बद्ध किया गया था। धर्म उन सिद्धान्तों, तत्त्वों और जीवन प्रणाली को कहते हैं, जिससे मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास से अपना लौकिक जीवन सुखी बना सके तथा मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा शान्ति का अनुभव कर सके। शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, यह अमरता मोक्ष से जुड़ी हुई है और यह मोक्ष पाने के लिए अर्थ और काम के पुरुषार्थ करना भी ज़रूरी है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक सन्देश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर सम्बद्ध है। आध्यात्मिकता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है, जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने निर्मित की थी। सुखी मानव-जीवन के लिए ऐसी चिन्ता विश्व की अन्य संस्कृतियाँ नहीं करतीं। [[साहित्य]], संगीत और कला की सम्पूर्ण विधाओं के माध्यम से भी भारतीय संस्कृति के इस आध्यात्मिक एवं भौतिक समन्वय को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।
संस्कृति के विभिन्न अंग मिलकर एक समग्रता का निर्माण करते हैं। संस्कृति के ये प्रतिमान स्थिर और दृढ़ होते हैं। प्रत्येक संस्कृति अपने अवयवों को एकसूत्र में बाँधे रहती है, और साथ ही दूसरी संस्कृति के तत्त्वों को भी आत्मसात करती रहती है। चूँकि संस्कृति के तत्त्व एकीकृत रहते हैं, अत: इनमें शीघ्र परिवर्तन नहीं हो पाता है।
;अनेकता में एकता -
;पृथकता या भिन्न्ता-
भौगोलिक दृष्टि से [[भारत]] विविधताओं का देश है, फिर भी सांस्कृतिक रूप से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से बना हुआ है। इस विशाल देश में उत्तर का पर्वतीय भू-भाग, जिसकी सीमा पूर्व में [[ब्रह्मपुत्र]] और पश्चिम में [[सिन्धु नदी|सिन्धु नदियों]] तक विस्तृत है। इसके साथ ही [[गंगा]], [[यमुना]], [[सतलुज]] की उपजाऊ कृषि भूमि, विन्ध्य और दक्षिण का वनों से आच्छादित पठारी भू-भाग, पश्चिम में थार का रेगिस्तान, दक्षिण का तटीय प्रदेश तथा पूर्व में [[असम]] और [[मेघालय]] का अतिवृष्टि का सुरम्य क्षेत्र सम्मिलित है। इस भौगोलिक विभिन्नता के अतिरिक्त इस देश में आर्थिक और सामाजिक भिन्नता भी पर्याप्त रूप से विद्यमान है। वस्तुत: इन भिन्नताओं के कारण ही भारत में अनेक सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित होकर पल्लवित और पुष्पित हुई हैं।
संस्कृति का निर्माण देश, काल और परिस्थिति के मध्य होता है। प्रत्येक देश के व्यक्तियों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। अत: इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपकरण भी भिन्न-भिन्न होते हैं। चूँकि विभिन्न देशों के निवासियों की आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं, अत: आचार-विचार और व्यवहार भी अलग-अलग होते हैं। इसीलिए एक देश की संस्कृति दूसरे देश की संस्कृति से भिन्न या पृथक होती है।
 
;अधि वैयक्तिक तथा अधि सावयवी-
अनेक विभिन्नताओं के बावजूद भी [[भारत]] की पृथक् सांस्कृतिक सत्ता रही है। [[हिमालय]] सम्पूर्ण देश के गौरव का प्रतीक रहा है, तो [[गंगा]] - [[यमुना]] और [[नर्मदा]] जैसी नदियों की स्तुति यहाँ के लोग प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं। [[राम]], [[कृष्ण]] और [[शिव]] की आराधना यहाँ सदियों से की जाती रही है। [[भारत]] की सभी [[भाषा|भाषाओं]] में इन [[देवता|देवताओं]] पर आधारित [[साहित्य]] का सृजन हुआ है। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारत में जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार एक समान प्रचलित हैं। विभिन्न रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार और तीज - त्यौहारों में भी समानता है। भाषाओं की विविधता अवश्य है फिर भी संगीत, नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल सम्पूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं। भारत अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, मतों और पृथक् आस्थाओं एवं विश्वासों का महादेश है, तथापि इसका सांस्कृतिक समुच्चय और अनेकता में एकता का स्वरूप संसार के अन्य देशों के लिए विस्मय का विषय रहा है।
संस्कृति एक व्यक्ति के व्यवहार का परिणाम होती है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि संस्कृति व्यक्ति की शक्ति के ऊपर होती है। यह सामूहिक व्यवहार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होता है। संस्कृति द्वारा व्यक्ति के आचार-विचार, रहन-सहन, वेशभूषा प्रभावित होते हैं, जबकि अकेला व्यक्ति संस्कृति के प्रतिमानों को बदल नहीं सकता है। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि संस्कृति अधि वैयक्तिक होती है।
 





10:44, 2 जनवरी 2018 के समय का अवतरण

भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। तभी तो पाश्चात्य विद्वान् अपने देश की संस्कृति को समझने हेतु भारतीय संस्कृति को पहले समझने का परामर्श देते हैं।

संस्कृति की विशेषताएँ

भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

प्राचीनता -

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्य प्रदेश के भीमबेटका में पाये गये शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्त्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत भूमि आदि मानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के विवरणों से भी प्रमाणित होता है कि आज से लगभग पाँच हज़ार वर्ष पहले उत्तरी भारत के बहुत बड़े भाग में एक उच्च कोटि की संस्कृति का विकास हो चुका था। इसी प्रकार वेदों में परिलक्षित भारतीय संस्कृति न केवल प्राचीनता का प्रमाण है, अपितु वह भारतीय अध्यात्म और चिन्तन की भी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भारतीय संस्कृति से रोम और यूनानी संस्कृति को प्राचीन तथा मिस्र, असीरिया एवं बेबीलोनिया जैसी संस्कृतियों के समकालीन माना गया है।

निरन्तरता -

भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी - देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरन्तरता रही है, कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

लचीलापन एवं सहिष्णुता -

भारतीय संस्कृति की सहिष्णु प्रकृति ने उसे दीर्घ आयु और स्थायित्व प्रदान किया है। संसार की किसी भी संस्कृति में शायद ही इतनी सहनशीलता हो, जितनी भारतीय संस्कृति में पाई जाती है। भारतीय हिन्दू किसी देवी - देवता की आराधना करें या न करें, पूजा-हवन करें या न करें, आदि स्वतंत्रताओं पर धर्म या संस्कृति के नाम पर कभी कोई बन्धन नहीं लगाये गए। इसीलिए प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतीक हिन्दू धर्म को धर्म न कहकर कुछ मूल्यों पर आधारित एक जीवन-पद्धति की संज्ञा दी गई और हिन्दू का अभिप्राय किसी धर्म विशेष के अनुयायी से न लगाकर भारतीय से लगाया गया। भारतीय संस्कृति के इस लचीले स्वरूप में जब भी जड़ता की स्थिति निर्मित हुई तब किसी न किसी महापुरुष ने इसे गतिशीलता प्रदान कर इसकी सहिष्णुता को एक नई आभा से मंडित कर दिया। इस दृष्टि से प्राचीनकाल में बुद्ध और महावीर के द्वारा, मध्यकाल में शंकराचार्य, कबीर, गुरु नानक और चैतन्य महाप्रभु के माध्यम से तथा आधुनिक काल में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द एवं महात्मा ज्योतिबा फुले के द्वारा किये गए प्रयास इस संस्कृति की महत्त्वपूर्ण धरोहर बन गए।

ग्रहणशीलता -

भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता एवं उदारता के कारण उसमें एक ग्रहणशीलता प्रवृत्ति को विकसित होने का अवसर मिला। वस्तुत: जिस संस्कृति में लोकतन्त्र एवं स्थायित्व के आधार व्यापक हों, उस संस्कृति में ग्रहणशीलता की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है। हमारी संस्कृति में यहाँ के मूल निवासियों ने समन्वय की प्रक्रिया के साथ ही बाहर से आने वाले शक, हूण, यूनानी एवं कुषाण जैसी प्रजातियों के लोग भी घुलमिल कर अपनी पहचान खो बैठे।

भारत में इस्लामी संस्कृति का आगमन भी अरबों, तुर्कों और मुग़लों के माध्यम से हुआ। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति का पृथक् अस्तित्व बना रहा और नवागत संस्कृतियों से कुछ अच्छी बातें ग्रहण करने में भारतीय संस्कृति ने संकोच नहीं किया। ठीक यही स्थिति यूरोपीय जातियों के आने तथा ब्रिटिश साम्राज्य के कारण भारत में विकसित हुई ईसाई संस्कृति पर भी लागू होती है। यद्यपि ये संस्कृतियाँ अब भारतीय संस्कृतियों का अभिन्न अंग है, तथापि ‘भारतीय इस्लाम’ एवं ‘भारतीय ईसाई’ संस्कृतियों का स्वरूप विश्व के अन्य इस्लामी और ईसाई धर्मावलम्बी देशों से कुछ भिन्न है। इस भिन्नता का मूलभूत कारण यह है कि भारत के अधिकांश मुसलमान और ईसाई मूलत: भारत भूमि के ही निवासी हैं। सम्भवत: इसीलिए उनके सामाजिक परिवेश और सांस्कृतिक आचरण में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया और भारतीयता ही उनकी पहचान बन गई।

आध्यात्मिकता एवं भौतिकता का समन्वय -

भारतीय संस्कृति में आश्रम - व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों का विशिष्ट स्थान रहा है। वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अदभुत समन्वय कर दिया। हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को सम्बद्ध किया गया था। धर्म उन सिद्धान्तों, तत्त्वों और जीवन प्रणाली को कहते हैं, जिससे मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास से अपना लौकिक जीवन सुखी बना सके तथा मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा शान्ति का अनुभव कर सके। शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, यह अमरता मोक्ष से जुड़ी हुई है और यह मोक्ष पाने के लिए अर्थ और काम के पुरुषार्थ करना भी ज़रूरी है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक सन्देश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर सम्बद्ध है। आध्यात्मिकता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है, जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने निर्मित की थी। सुखी मानव-जीवन के लिए ऐसी चिन्ता विश्व की अन्य संस्कृतियाँ नहीं करतीं। साहित्य, संगीत और कला की सम्पूर्ण विधाओं के माध्यम से भी भारतीय संस्कृति के इस आध्यात्मिक एवं भौतिक समन्वय को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।

अनेकता में एकता -

भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है, फिर भी सांस्कृतिक रूप से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से बना हुआ है। इस विशाल देश में उत्तर का पर्वतीय भू-भाग, जिसकी सीमा पूर्व में ब्रह्मपुत्र और पश्चिम में सिन्धु नदियों तक विस्तृत है। इसके साथ ही गंगा, यमुना, सतलुज की उपजाऊ कृषि भूमि, विन्ध्य और दक्षिण का वनों से आच्छादित पठारी भू-भाग, पश्चिम में थार का रेगिस्तान, दक्षिण का तटीय प्रदेश तथा पूर्व में असम और मेघालय का अतिवृष्टि का सुरम्य क्षेत्र सम्मिलित है। इस भौगोलिक विभिन्नता के अतिरिक्त इस देश में आर्थिक और सामाजिक भिन्नता भी पर्याप्त रूप से विद्यमान है। वस्तुत: इन भिन्नताओं के कारण ही भारत में अनेक सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित होकर पल्लवित और पुष्पित हुई हैं।

अनेक विभिन्नताओं के बावजूद भी भारत की पृथक् सांस्कृतिक सत्ता रही है। हिमालय सम्पूर्ण देश के गौरव का प्रतीक रहा है, तो गंगा - यमुना और नर्मदा जैसी नदियों की स्तुति यहाँ के लोग प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं। राम, कृष्ण और शिव की आराधना यहाँ सदियों से की जाती रही है। भारत की सभी भाषाओं में इन देवताओं पर आधारित साहित्य का सृजन हुआ है। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारत में जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार एक समान प्रचलित हैं। विभिन्न रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार और तीज - त्यौहारों में भी समानता है। भाषाओं की विविधता अवश्य है फिर भी संगीत, नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल सम्पूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं। भारत अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, मतों और पृथक् आस्थाओं एवं विश्वासों का महादेश है, तथापि इसका सांस्कृतिक समुच्चय और अनेकता में एकता का स्वरूप संसार के अन्य देशों के लिए विस्मय का विषय रहा है।



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