"जैन धर्म के सिद्धांत": अवतरणों में अंतर

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# सम्यक् ज्ञान  
# सम्यक् ज्ञान  
# सम्यक् आचरण
# सम्यक् आचरण
सत् में विश्वास सम्यक् श्रद्धा है, सद्रूप का शंकाविहीन और वास्तविक ज्ञान सम्यक् ज्ञान है तथा वाह्य जगत के विषयों के प्रति सम दु:ख-सुख भाव से उदासीनता ही सम्यक आचरण है।
सत् में विश्वास सम्यक् श्रद्धा है, सद्रूप का शंकाविहीन और वास्तविक ज्ञान सम्यक् ज्ञान है तथा वाह्य जगत् के विषयों के प्रति सम दु:ख-सुख भाव से उदासीनता ही सम्यक आचरण है।
====ज्ञान====
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जैन धर्म के अनुसार पाँच प्रकार के ज्ञान हैं-  
जैन धर्म के अनुसार पाँच प्रकार के ज्ञान हैं-  
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जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है। उसके अनुसार भिन्न-भिन्न जीवों में आत्माएँ भी भिन्न-भिन्न होती है।  
जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है। उसके अनुसार भिन्न-भिन्न जीवों में आत्माएँ भी भिन्न-भिन्न होती है।  
====निर्वाण====
====निर्वाण====
जैन धर्म का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। जीव के भौतिक अंश का नाश ही निर्वाण है। यह अंश तभी नष्ट होगा, जब मनुष्य कर्मफल से मुक्त हो जाए। अर्थात सम्पूर्ण कर्मफल निरोध ही निर्वाण प्राप्ति का साधन है।  
जैन धर्म का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। जीव के भौतिक अंश का नाश ही निर्वाण है। यह अंश तभी नष्ट होगा, जब मनुष्य कर्मफल से मुक्त हो जाए। अर्थात् सम्पूर्ण कर्मफल निरोध ही निर्वाण प्राप्ति का साधन है।  
====कायाक्लेश====
====कायाक्लेश====
जीव के भौतिक तत्व का दमन करने के लिए कायाक्लेश आवश्यक है, जिसके लिए तपस्या, व्रत, आत्महत्या करने का विधान है।  
जीव के भौतिक तत्व का दमन करने के लिए कायाक्लेश आवश्यक है, जिसके लिए तपस्या, व्रत, आत्महत्या करने का विधान है।  

07:55, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

जैन धर्म का प्रतीक

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

निवृत्तिमार्ग

जैन धर्म भी बौद्ध धर्म के समान निवृत्तिमार्गी था। संसार के समस्त सुख दु:ख मूलक हैं। मनुष्य आजीवन तृष्णाओं के पीछे भागता रहता है। वास्तव में यह मानव शरीर ही क्षणभंगुर है। जैन धर्म इन दु:खों से छुटकारा पाने हेतु तृष्णाओं के त्याग पर बल देता है। वह मनुष्यों को सम्पत्ति, संसार, परिवार आदि सब का त्याग करके भिक्षु बनकर इतस्तत: परिभ्रमण करने पर बल देता है। अन्य शब्दों में जैन धर्म मूलत: एक भिक्षु धर्म ही है।

ईश्वर

जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्त्व को नहीं स्वीकार करता। वह ईश्वर को सृष्टिकर्ता भी नहीं मानता। इसका कारण यह है कि ऐसा मानने से उसे संसार के पापों और कुकर्मों का भी कर्ता मानना पड़ेगा।

सृष्टि

जैन धर्म संसार को शाश्वत, नित्य, अनश्वर, और वास्तविक अस्तित्त्व वाला मानता है। पदार्थों का मूलत: विनाश नहीं होता, बल्कि उसका रूप परिवर्तित होता है।

कर्म

जैन धर्म मनुष्य को स्वयं अपना भाग्य विधाता मानता है। अपने सांसारिक एवं आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म के लिए उत्तरदायी है। उसके सारे सुख-दुख कर्म के कारण ही हैं। उसके कर्म ही पुनर्जन्म का कारण हैं। मनुष्य 8 प्रकार के कर्म करता है-

  1. ज्ञानावरणीय
  2. दर्शनावरणीय
  3. वेदनीय
  4. मोहनीय
  5. आयुकर्म
  6. नामकर्म
  7. गोत्रकर्म
  8. अन्तराय कर्म

मोक्षप्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मफल का नाश करे और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्मफल संग्रहीत न करे। यह लक्ष्य ‘त्रिरत्न’ के अनुशीलन और अभ्यास से प्राप्त होता है।

त्रिरत्न

जैन धर्म के त्रिरत्न हैं-

  1. सम्यक् श्रद्धा
  2. सम्यक् ज्ञान
  3. सम्यक् आचरण

सत् में विश्वास सम्यक् श्रद्धा है, सद्रूप का शंकाविहीन और वास्तविक ज्ञान सम्यक् ज्ञान है तथा वाह्य जगत् के विषयों के प्रति सम दु:ख-सुख भाव से उदासीनता ही सम्यक आचरण है।

ज्ञान

जैन धर्म के अनुसार पाँच प्रकार के ज्ञान हैं-

  1. मति, जो इंन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है
  2. श्रुति, जो सुनकर या वर्णन के द्वारा प्राप्त होता है
  3. अवधि, जो दिव्य ज्ञान है
  4. मन पर्याय, जो अन्य व्यक्तियों के मन-मस्तिष्क की बात जान लेने का ज्ञान है
  5. कैवल, जो पूर्ण ज्ञान है और निग्रंथों को प्राप्त होता है।

स्याद्वाद या अनेकांतवाद या सप्तभंगी का सिद्धान्त

जैन धर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखे जाने के कारण प्रत्येक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न हो सकता है। ज्ञान की यह विभिन्नता सात प्रकार की हो सकती है-

  1. है
  2. नहीं है
  3. है और नहीं है
  4. कहा नहीं जा सकता
  5. है किन्तु कहा नहीं जा सकता
  6. नहीं है और कहा नहीं जा सकता
  7. है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता।

इसे ही जैन धर्म में स्याद्वाद या अनेकांतवाद कहा जाता है।

अनेकात्मवाद

जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है। उसके अनुसार भिन्न-भिन्न जीवों में आत्माएँ भी भिन्न-भिन्न होती है।

निर्वाण

जैन धर्म का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। जीव के भौतिक अंश का नाश ही निर्वाण है। यह अंश तभी नष्ट होगा, जब मनुष्य कर्मफल से मुक्त हो जाए। अर्थात् सम्पूर्ण कर्मफल निरोध ही निर्वाण प्राप्ति का साधन है।

कायाक्लेश

जीव के भौतिक तत्व का दमन करने के लिए कायाक्लेश आवश्यक है, जिसके लिए तपस्या, व्रत, आत्महत्या करने का विधान है।

नग्नता

23वें तीर्थंकर पार्श्व ने अपने अनुयायियों को वस्त्र धारण करने की अनुमति दी थी, परन्तु महावीर पूर्ण नग्नता के समर्थक थे।

पंचमहाव्रत

जैन धर्म में भिक्षु वर्ग के लिए निम्नलिखित पंचमहाव्रतों की व्यवस्था की गई है-

अहिंसा महाव्रत — जानबूझ कर या अनजाने में भी किसी प्रकार की हिंसा नहीं करनी चाहिए। इसके लिए ऐसे मार्गों पर चलने, ऐसा भोजन करने, ऐसे स्थान पर मल-मूत्र त्याग करने तथा ऐसी वस्तुओं का उपयोग करने की बात कहीं गई, जिसमें कीट-पतंगों की मृत्यु न हो। साथ ही सदैव मधुर वाणी बोलने की भी बात कहीं गई, ताकि बाचसिक हिंसा नहीं हो।

असत्य त्याग महाव्रत — मनुष्य को सदैव सत्य तथा मधुर बोलना चाहिए। इसके लिए बिना सोचे-समझे नहीं बोलें, क्रोध आने पर मौन रहें, लोभ की भावना जागृत होने पर मौन रहें, भयभीत होने पर भी असत्य न बोलें तथा हंसी-मजाक में भी असत्य न बोलें।

अस्तेय महाव्रत — बिना अनुमति किसी भी दूसरे व्यक्ति की कोई वस्तु नहीं लेनी चाहिए और न ही इसकी इच्छा करनी चाहिए।

ब्रह्मचर्य महाव्रत — भिक्षु को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। इसके लिए किसी नारी को देखना, बात करना, संसर्ग का ध्यान करना, नारी की उपस्थिति वाले घर में निवास करना वर्जित है तथा उसे सादा भोजन करना चाहिए।

अपरिग्रह महाव्रत — भिक्षुओं को किसी प्रकार का संग्रह नहीं करना चाहिए। संग्रह से आसक्ति उत्पन्न होती है, जो भिक्षु को उसके उद्देश्य से दूर करता है।

पंच अणुव्रत

जैन धर्म गृहस्थों के लिए भी इन पाँच व्रतों के पालन की बात करता है, परन्तु उनके लिए इन व्रतों की कठोरता कम कर दी गई। ये पंच अणुव्रत हैं-

  1. अहिंसाणुब्रत
  2. सत्याणुव्रत
  3. अस्तेयाणुव्रत
  4. ब्रह्मचर्याणुव्रत
  5. अपरिग्रहाणुव्रत

अठारह पाप

जैन धर्म में निम्न 18 पापों की कल्पना की गई है-

  • हिंसा
  • असत्य
  • चोरी
  • मैथुन
  • परिग्रह
  • क्रोध
  • मान
  • माया
  • लोभ
  • राग
  • द्वेष
  • कलह
  • दोषारोपण
  • चुगली
  • असंयम में रति और संयम में अरति
  • परनिंदा
  • कपटपूर्ण मिथ्या
  • मिथ्यादर्शनरूपी शल्य



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