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'''अब्दुर्रहीम रहीम खानखाना'''<br />
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*हिन्दी के प्रसिद्ध कवि अब्दुर्रहीम खां का जन्म 1556 ई. में हुआ था।
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*[[अकबर]] के दरबार में इनका महत्वपूर्ण स्थान था। [[गुजरात]] के युद्ध में शौर्य प्रदर्शन के कारण अकबर ने इन्हें 'ख़ानखाना' की उपाधि दी थी।  
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*रहीम अरबी, तुर्की, [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] और [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]] के अच्छे ज्ञाता थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था।  
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*रहीम की ग्यारह रचनाएं प्रसिद्ध हैं।  
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*इनके काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार, नीति और भक्ति के भाव मिलते हैं।  
! रहीम की रचनाएँ
*70 वर्ष की उम्र में 1626 ई. में रहीम का देहांत हो गया।   
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==जीवन–परिचय==
<div style="height: 250px; overflow:auto; overflow-x: hidden; width:99%">
अब्दुर्रहीम ख़ाँ, खानखाना मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि थे। अकबरी दरबार के हिन्दी कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे। [[केशव कवि|केशव]], आसकरन, मण्डन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। ये [[अकबर]] के अभिभावक [[बैरम ख़ाँ]] के पुत्र थे। अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना का जन्म 17 दिसम्बर, 1556 ई. (माघ, कृष्ण पक्ष, गुरुवार) को सम्राट अकबर के प्रसिद्ध अभिभावक बैरम ख़ाँ (60 वर्ष) के यहाँ लाहौर में हुआ था। उस समय रहीम के पिता बैरम ख़ाँ पानीपत के दूसरे युद्ध में [[हेमू]] को हराकर [[बाबर]] के साम्राज्य की पुनर्स्थापना कर रहे थे। बैरम ख़ाँ, अमीर अली शूकर बेग़ के वंश में से थे। जबकि उनकी माँ सुलताना बेगम मेवाती जमाल ख़ाँ की दूसरी पत्नी थीं। कविता करना बैरम ख़ाँ के वंश की ख़ानदानी परम्परा थी। [[बाबर]] की सेना में भर्ती होकर रहीम के पिता बैरम ख़ाँ अपनी स्वामी भक्ति और वीरता से [[हुमायूँ]] के विश्वासपात्र बन गए थे।
{{रहीम की रचनाएँ}}
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'''रहीम''' अथवा '''अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना''' अथवा '''अब्दुर्रहीम ख़ाँ''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Rahim'' अथवा ''Abdul Rahim Khan-e-Khana'') (‌जन्म- [[17 दिसम्बर]], 1556; मृत्यु- 1627) [[हिन्दी]] के प्रसिद्ध कवि थे। [[अकबर]] के दरबार में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। रहीम [[अकबर के नवरत्न|अकबर के नवरत्नों]] में से एक थे। [[गुजरात]] के युद्ध में शौर्य प्रदर्शन के कारण अकबर ने इन्हें 'ख़ानखाना' की उपाधि दी थी। रहीम [[अरबी भाषा|अरबी]], तुर्की, [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] और [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]] के अच्छे ज्ञाता थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। रहीम की ग्यारह रचनाएं प्रसिद्ध हैं। इनके काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार, नीति और भक्ति के भाव मिलते हैं। 70 [[वर्ष]] की उम्र में 1626 ई. में रहीम का देहांत हो गया।   
==जीवन परिचय==
अब्दुर्रहीम ख़ाँ, ख़ानख़ाना मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि थे। अकबरी दरबार के [[हिन्दी]] कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे। [[केशव कवि|केशव]], आसकरन, मण्डन, [[महापात्र नरहरि बंदीजन|नरहरि]] और [[गंग]] जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। ये [[अकबर]] के अभिभावक [[बैरम ख़ाँ]] के पुत्र थे। अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना का जन्म 17 दिसम्बर, 1556 ई. ([[माघ]], [[कृष्ण पक्ष]], [[गुरुवार]]) को सम्राट अकबर के प्रसिद्ध अभिभावक बैरम ख़ाँ (60 वर्ष) के यहाँ [[लाहौर]] में हुआ था। उस समय रहीम के पिता बैरम ख़ाँ [[पानीपत की दूसरी लड़ाई|पानीपत के दूसरे युद्ध]] में [[हेमू]] को हराकर [[बाबर]] के साम्राज्य की पुनर्स्थापना कर रहे थे। बैरम ख़ाँ, अमीर अली शूकर बेग़ के वंश में से थे। जबकि उनकी माँ सुलताना बेगम मेवाती जमाल ख़ाँ की दूसरी पत्नी थीं। कविता करना बैरम ख़ाँ के वंश की ख़ानदानी परम्परा थी। [[बाबर]] की सेना में भर्ती होकर रहीम के पिता बैरम ख़ाँ अपनी स्वामी भक्ति और वीरता से [[हुमायूँ]] के विश्वासपात्र बन गए थे।


हुमायूँ की मृत्यु के बाद बैरम ख़ाँ ने 14 साल के शहज़ादे अकबर को राजगद्दी पर बैठा दिया और ख़ुद उसका संरक्षक बनकर मुग़ल साम्राज्य को स्थापित किया था। लेकिन वर्दी ख़ानख़ाना के प्राणदण्ड, दरबारियों की ईर्ष्या, अकबर की माता हमीदा बानो और धाय माहम अनगा की दुरभि सन्धि एवं बाबर की बेटी गुलरुख़ बेगम की लड़की सईदा बेगम से शादी तथा अमीरों के सामने अकबर के रूप में उपस्थित होने के विकल्प ने बैरम ख़ाँ को सन 1560 में अकबर के पूर्ण राज्य ग्रहण करने से धीरे–धीरे विद्रोही बना दिया था।
हुमायूँ की मृत्यु के बाद बैरम ख़ाँ ने 14 साल के शहज़ादे अकबर को राजगद्दी पर बैठा दिया और ख़ुद उसका संरक्षक बनकर [[मुग़ल]] साम्राज्य को स्थापित किया था। लेकिन वर्दी ख़ानख़ाना के प्राणदण्ड, दरबारियों की ईर्ष्या, अकबर की माता हमीदा बानो और धाय [[माहम अनगा]] की दुरभि सन्धि एवं बाबर की बेटी गुलरुख़ बेगम की लड़की सईदा बेगम से शादी तथा अमीरों के सामने अकबर के रूप में उपस्थित होने के विकल्प ने बैरम ख़ाँ को सन् 1560 में अकबर के पूर्ण राज्य ग्रहण करने से धीरे–धीरे विद्रोही बना दिया था।
====पिता बैरम ख़ाँ की हत्या====
आख़िरकार हारकर अकबर के कहने पर बैरम ख़ाँ हज के लिए चल पड़े। वह [[गुजरात]] में [[पाटन]] के प्रसिद्ध सहस्रलिंग तालाब में नौका विहार या नहाकर जैसे ही निकले, तभी उनके एक पुराने विरोधी - अफ़ग़ान सरदार मुबारक ख़ाँ ने धोखे से उनकी पीठ में छुरा भोंककर  उनका वध कर डाला। कुछ भिखारी लाश उठाकर फ़क़ीर हुसामुद्दीन के मक़बरे में ले गए और वहीं पर बैरम ख़ाँ को दफ़ना दिया गया। 'मआसरे रहीमी' ग्रंथ में मृत्यु का कारण [[शेरशाह]] के पुत्र सलीम शाह की कश्मीरी बीवी से हुई लड़की को माना गया है, जो हज के लिए बैरम ख़ाँ के साथ जा रही थी। इससे अफ़ग़ानियों को अपनी बेहज़्ज़ती महसूस हुई और उन्होंने हमला करके बैरम ख़ाँ को समाप्त कर दिया।


==पिता बैरम ख़ाँ की हत्या==
लेकिन यह सम्भव नहीं लगता, क्योंकि ऐसा होने पर तो रहीम के लिए भी ख़तरा बढ़ जाता। उस वक़्त पूर्ववर्ती शासक वंश के उत्तराधिकारी को समाप्त कर दिया जाता था। वह अफ़ग़ानी मुबारक ख़ाँ मात्र बैरम ख़ाँ का वध कर ही नहीं रुका, बल्कि डेरे पर आक्रमण करके लूटमार भी करने लगा। तब स्वामीभक्त बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीर 'दीवाना' चार वर्षीय रहीम को लेकर किसी तरह अफ़ग़ान लुटेरों से बचते हुए [[अहमदाबाद]] जा पहुँचे। चार [[महीने]] वहाँ रहकर फिर वे [[आगरा]] की तरफ़ चल पड़े। अकबर को जब अपने संरक्षक की हत्या की ख़बर मिली तो उसने रहीम और परिवार की हिफ़ाज़त के लिए कुछ लोगों को इस आदेश के साथ वहाँ भेजा कि उन्हें दरबार में ले आएँ।
आख़िरकार हारकर अकबर के कहने पर बैरम ख़ाँ हज के लिए चल पड़े। वह [[गुजरात]] में पाटन के प्रसिद्ध सहस्रलिंग तालाब में नौका विहार या नहाकर जैसे ही निकले, तभी उनके एक पुराने विरोधी - अफ़ग़ान सरदार मुबारक ख़ाँ ने धोखे से उनकी पीठ में छुरा भोंककर  उनका वध कर डाला। कुछ भिखारी लाश उठाकर फ़क़ीर हुसामुद्दीन के मक़बरे में ले गए और वहीं पर बैरम ख़ाँ को दफ़ना दिया गया। 'मआसरे रहीमी' ग्रंथ में मृत्यु का कारण शेरशाह के पुत्र सलीम शाह की कश्मीरी बीवी से हुई लड़की को माना गया है, जो हज के लिए बैरम ख़ाँ के साथ जा रही थी। इससे अफ़ग़ानियों को अपनी बेहज़्ज़ती महसूस हुई और उन्होंने हमला करके बैरम ख़ाँ को समाप्त कर दिया।
====रहीम को अकबर का संरक्षण====
 
बादशाह अकबर का यह आदेश बैरम ख़ाँ के परिवार को [[जालौर]] में मिला, जिससे कुछ आशा बंधी। रहीम और उनकी [[माता]] [[परिवार]] के अन्य सदस्यों के साथ सन् 1562 में राजदरबार में पहुँचे। अकबर ने बैरम ख़ाँ के कुछ दुश्मन दरबारियों के विरोध के बावजूद बालक रहीम को बुद्धिमान समझकर उसके लालन–पालन का दायित्व स्वयं ग्रहण कर लिया। अकबर ने रहीम का पालन–पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा शह­ज़ादों की तरह शुरू करवाई, जिससे दस–बारह साल की उम्र में ही रहीम का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा।  
लेकिन यह सम्भव नहीं लगता, क्योंकि ऐसा होने पर तो रहीम के लिए भी ख़तरा बढ़ जाता। उस वक़्त पूर्ववर्ती शासक वंश के उत्तराधिकारी को समाप्त कर दिया जाता था। वह अफ़ग़ानी मुबारक ख़ाँ मात्र बैरम ख़ाँ का वध कर ही नहीं रुका, बल्कि डेरे पर आक्रमण करके लूटमार भी करने लगा। तब स्वामीभक्त बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीर 'दीवाना' चार वर्षीय रहीम को लेकर किसी तरह अफ़ग़ान लुटेरों से बचते हुए [[अहमदाबाद]] जा पहुँचे। चार महीने वहाँ रहकर फिर वे [[आगरा]] की तरफ़ चल पड़े। अकबर को जब अपने संरक्षक की हत्या की ख़बर मिली तो उसने रहीम और परिवार की हिफ़ाज़त के लिए कुछ लोगों को इस आदेश के साथ वहाँ भेजा कि उन्हें दरबार में ले आएँ।
==रहीम को अकबर का संरक्षण==
{{tocright}}
बादशाह अकबर का यह आदेश बैरम ख़ाँ के परिवार को जालौर में मिला, जिससे कुछ आशा बंधी। रहीम और उनकी माता परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सन 1562 में राजदरबार में पहुँचे। अकबर ने बैरम ख़ाँ के कुछ दुश्मन दरबारियों के विरोध के बावजूद बालक रहीम को बुद्धिमान समझकर उसके लालन–पालन का दायित्व स्वयं ग्रहण कर लिया। अकबर ने रहीम का पालन–पोषण तथा शिक्षा–दीक्षा शह­ज़ादों की तरह शुरू करवाई, जिससे दस–बारह साल की उम्र में ही रहीम का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा।  
अकबर ने शहज़ादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि '''मिर्ज़ा ख़ाँ''' से रहीम को सम्बोधित करना शुरू किया।  
अकबर ने शहज़ादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि '''मिर्ज़ा ख़ाँ''' से रहीम को सम्बोधित करना शुरू किया।  


अकबर रहीम से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ ही रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे, जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में 'मिर्ज़ा ख़ाँ' अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं [[फ़ारसी भाषा]] सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित, तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। [[संस्कृत]] का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ - बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी माँ थीं। वह भी कविता करती थीं।  
अकबर रहीम से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ ही रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे, जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में 'मिर्ज़ा ख़ाँ' अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं [[फ़ारसी भाषा]] सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित, तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। [[संस्कृत]] का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ - बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी माँ थीं। वह भी कविता करती थीं।  


रहीम शिया और सुन्नी के विचार–विरोध से शुरू से आज़ाद थे। इनके पिता तुर्कमान शिया थे और माता सुन्नी। इसके अलावा रहीम को छः साल की उम्र से ही अकबर जैसे उदार विचारों वाले व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इन सभी ने मिलकर रहीम में अद्भुत विकास की शक्ति उत्पन्न कर दी। किशोरावस्था में ही वे यह समझ गए कि उन्हें अपना विकास अपनी मेहनत, सूझबूझ और शौर्य से करना है। रहीम को अकबर का संरक्षण ही नहीं, बल्कि प्यार भी मिला। रहीम भी उनके हुक़्म का पालन करते थे, इसलिए विकास का रास्ता खुल गया। अकबर ने रहीम से [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] और फ्रेंच भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करने को कहा। अकबर के दरबार में संस्कृत के कई विद्वान थे; बदाऊंनी ख़ुद उनमें से एक था।  
रहीम [[शिया]] और [[सुन्नी]] के विचार–विरोध से शुरू से आज़ाद थे। इनके पिता तुर्कमान शिया थे और माता सुन्नी। इसके अलावा रहीम को छह साल की उम्र से ही अकबर जैसे उदार विचारों वाले व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इन सभी ने मिलकर रहीम में अद्भुत विकास की शक्ति उत्पन्न कर दी। किशोरावस्था में ही वे यह समझ गए कि उन्हें अपना विकास अपनी मेहनत, सूझबूझ और शौर्य से करना है। रहीम को अकबर का संरक्षण ही नहीं, बल्कि प्यार भी मिला। रहीम भी उनके हुक़्म का पालन करते थे, इसलिए विकास का रास्ता खुल गया। अकबर ने रहीम से [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] और फ्रेंच भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करने को कहा। अकबर के दरबार में संस्कृत के कई विद्वान् थे; बदाऊंनी ख़ुद उनमें से एक था।
====विवाह====
रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' की कार्यकुशलता, लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उनको शासक वंश से सीधे सम्बद्ध करने का फ़ैसला किया, क्योंकि ऐसा करके ही रहीम के दुश्मनों का मुँह बन्द किया जा सकता था और उन्हें अन्तःपुर की राजनीति से बचाया जा सकता था। अकबर ने अपनी धाय [[माहम अनगा]] की पुत्री और अज़ीज़ कोका की बहन 'माहबानो' से रहीम का निकाह करा दिया। रहीम का विवाह लगभग सोलह साल की उम्र में कर दिया गया था। माहबानो से रहीम के तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। पुत्रों का नाम इरीज़, दाराब और करन अकबर के द्वारा ही रखा गया था। पुत्री जाना बेगम की शादी [[शहज़ादा दानियाल]] से सन् 1599 में और दूसरी पुत्री की शादी मीर अमीनुद्दीन से हुई। रहीम को सौधा जाति की एक लड़की से रहमान दाद नामक एक पुत्र हुआ और एक नौकरानी से मिर्ज़ा अमरुल्ला हुए। एक पुत्र हैदर क़ुली हैदरी की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी।
====रहीम का भाग्योदय====
[[चित्र:Abdul-Rahim.jpg|thumb|रहीम|200px]]
रहीम के भाग्य का उत्कर्ष सन् 1573 से शुरू होता है। जो अकबर के समय सन् 1605 तक चलता रहा। इसी बीच बादशाह अकबर एक बार रहीम से नाराज़ भी हो गए, लेकिन ज़्यादा दिनों तक यह नाराज़गी नहीं रह सकी। सन् 1572 में जब अकबर पहली बार [[गुजरात]] विजय के लिए गया तो 16 वर्षीय रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' उसके साथ ही थे। ख़ान आज़म को गुजरात का सूबेदार नियुक्त करके बादशाह अकबर लौट आए। लेकिन उसके लौटते ही ख़ान आज़म को गुजराती परेशान करने लगे। उसे चारों ओर से नगर में घेर लिया गया। यह समाचार पाकर बादशाह अकबर सन् 1573 में 11 दिनों में ही [[साबरमती नदी]] के किनारे पहुँच गया। रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' को अकबर के नेतृत्व में मध्य कमान का कार्यभार सौंपा गया। मिर्ज़ा ख़ाँ ने बड़ी बहादुरी से युद्ध करके दुश्मन को परास्त किया। यह उनका पहला युद्ध था।  


रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' की कार्यकुशलता, लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उनको शासक वंश से सीधे सम्बद्ध करने का फ़ैसला किया, क्योंकि ऐसा करके ही रहीम के दुश्मनों का मुँह बन्द किया जा सकता था और उन्हें अन्तःपुर की राजनीति से बचाया जा सकता था। अकबर ने अपनी धाय माहम अनगा की पुत्री और अज़ीज़ कोका की बहन 'माहबानो' से रहीम का निकाह करा दिया। माहबानो से रहीम के तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। पुत्रों का नाम इरीज़, दाराब और करन अकबर के द्वारा ही रखा गया था। पुत्री जाना बेगम की शादी शहज़ादा दानियाल से सन 1599 में और दूसरी पुत्री की शादी मीर अमीनुद्दीन से हुई। रहीम को सौधा जाति की एक लड़की से रहमान दाद नामक एक पुत्र हुआ और एक नौकरानी से मिर्ज़ा अमरुल्ला हुए। एक पुत्र हैदर क़ुली हैदरी की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी।
अकबर के साथ ही रहीम लौट आए। कुछ वक़्त बाद मिर्ज़ा ख़ाँ को [[महाराणा प्रताप|राणा प्रताप]], जो उन दिनों दक्षिणी पहाड़ियों के दुर्गम जंगल में थे, से लड़ने के लिए [[राजा मानसिंह]] और भगवान दास के साथ भेजा गया। आंशिक सफलता के बाद भी जब राणा प्रताप अपराजित रहे तो शाहवाज़ ख़ाँ के नेतृत्व में पुनः सेना भेजी गई। इसमें भी रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' शामिल थे जिन्होंने [[4 अप्रैल]], 1578 को दोबारा आक्रमण किया। अभी तक रहीम प्रसिद्ध सेनानायकों के नेतृत्व में युद्ध का अनुभव प्राप्त कर रहे थे।


==रहीम का भाग्योदय==
रहीम मिर्ज़ा ख़ाँ को ज़िम्मेदारी का पहला स्वतंत्र पद सन् 1580 में प्राप्त हुआ। फिर अकबर ने उन्हें '''मीर अर्ज़''' के पद पर नियुक्त किया। इसके बाद सन् 1583 में उन्हें शहज़ादा सलीम का अतालीक़ (शिक्षक) बना दिया गया। रहीम को इसे नियुक्ति से बहुत खुशी हासिल हुई। उन्होंने इस उपलक्ष्य में लोगों को एक शानदार दावत दी, जिसमें ख़ुद बादशाह अकबर भी मौजूद था। मिर्ज़ा ख़ाँ और उनकी पत्नी माहबानो को बादशाह ने उपहारों से सम्मानित किया।  
रहीम के भाग्य का उत्कर्ष सन 1573 से शुरू होता है। जो अकबर के समय सन् 1605 तक चलता रहा। इसी बीच बादशाह अकबर एक बार रहीम से नाराज़ भी हो गए, लेकिन ज़्यादा दिनों तक यह नाराज़गी नहीं रह सकी। सन 1572 में जब अकबर पहली बार गुजरात विजय के लिए गया तो 16 वर्षीय रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' उसके साथ ही थे। ख़ान आज़म को गुजरात का सूबेदार नियुक्त करके बादशाह अकबर लौट आए। लेकिन उसके लौटते ही ख़ान आज़म को गुजराती परेशान करने लगे। उसे चारों ओर से नगर में घेर लिया गया। यह समाचार पाकर बादशाह अकबर सन 1573 में 11 दिनों में ही [[साबरमती नदी]] के किनारे पहुँच गया। रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' को अकबर के नेतृत्व में मध्य कमान का कार्यभार सौंपा गया। मिर्ज़ा ख़ाँ ने बड़ी बहादुरी से युद्ध करके दुश्मन को परास्त किया। यह उनका पहला युद्ध था।


अकबर के साथ ही रहीम लौट आए। कुछ वक़्त बाद मिर्ज़ा ख़ाँ को [[महाराणा प्रताप|राणा प्रताप]], जो उन दिनों दक्षिणी पहाड़ियों के दुर्गम जंगल में थे, से लड़ने के लिए राजा मानसिंह और भगवान दास के साथ भेजा गया। आंशिक सफलता के बाद भी जब राणा प्रताप अपराजित रहे तो शाहवाज़ ख़ाँ के नेतृत्व में पुनः सेना भेजी गई। इसमें भी रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' शामिल थे जिन्होंने 4 अप्रैल, 1578 को दोबारा आक्रमण किया। अभी तक रहीम प्रसिद्ध सेनानायकों के नेतृत्व में युद्ध का अनुभव प्राप्त कर रहे थे।
रहीम अभी इस दायित्व का निर्वाह कर ही रहे थे कि उन्हें ख़बर मिली कि [[लाल क़िला आगरा|आगरे के क़िले]] से भागे हुए क़ैदी मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने काठियों आदि के साथ मिलकर फिर सेना तैयार करनी शुरू कर दी है। बैरम ख़ाँ का दुश्मन शहाबुद्दीन उस वक़्त गुजरात का सूबेदार था। वह अकबर का हुक्म नहीं मान रहा था। अकबर को इस बात का शक था कि वह विश्वासघात कर रहा है।
==गुजरात की सूबेदारी==
अकबर के शासनकाल में सन् 1580 से सन् 1583 तक कठिन समय था, क्योंकि उसके दरबार के अमीर उसके ख़िलाफ़ साज़िश रच रहे थे और दक्षिण में स्थिति विपरीत थी। ऐसे वक़्त में अकबर ने रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' को गुजरात की सूबेदारी देकर दुश्मन को पराजित करने के लिए भेजा। उधर मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने एतमाद ख़ाँ को हराकर [[अहमदाबाद]] पर अधिकार कर लिया था। साथ ही प्राप्त ख़ज़ाने से 40,000 सेना खड़ी कर ली थी।


रहीम मिर्ज़ा ख़ाँ को ज़िम्मेदारी का पहला स्वतंत्र पद सन 1580 में प्राप्त हुआ। फिर अकबर ने उन्हें '''मीर अर्ज़''' के पद पर नियुक्त किया। इसके बाद सन 1583 में उन्हें शहज़ादा सलीम का अतालीक़ (शिक्षक) बना दिया गया। रहीम को इसे नियुक्ति से बहुत खुशी हासिल हुई। उन्होंने इस उपलक्ष्य में लोगों को एक शानदार दावत दी, जिसमें ख़ुद बादशाह अकबर भी मौजूद था। मिर्ज़ा ख़ाँ और उनकी पत्नी माहबानो को बादशाह ने उपहारों से सम्मानित किया।
बादशाह अकबर ने [[22 सितंबर]], 1583 को [[फ़तेहपुर सीकरी]] के राजपूतों और बाड़ा के सैयदों तथा पठान सैनिकों के साथ रहीम को विदा किया। रहीम इन बहादुर सैनिकों सहित द्रुतगति से आगे बढ़ते हुए मिरथा पहुँचे, जहाँ उन्हें मुज़फ़्फ़र ख़ाँ के द्वारा कुतुबुद्दीन की हत्या और भड़ौच पर अधिकार का समाचार मिला। रहीम अपने साथ के लोगों से यह ख़बर छिपाए तेज़ी से आगे बढ़ते हुए सिरोही जा पहुँचे, जहाँ निज़ामुद्दीन उनकी अगवानी में खड़े थे। इससे उन्हें नवीनतम स्थिति का पता चला। 31 दिसम्बर को वह पाटन पहुँचे और एक दिन रुककर मुग़ल अधिकारियों की गोष्ठी में विचार–विमर्श किया। लोगों ने रहीम को मालवा सेना की प्रतीक्षा करने की सलाह दी लेकिन विश्वसनीय मित्रों मुंशी दौलत ख़ाँ लोदी ने कहा कि यही उचित अवसर है। वे आक्रमण करके 'ख़ानख़ाना' की उपाधि प्राप्त करें, क्योंकि यह उपाधि उनके पिता को भी मिली थी। रहीम को मीर मुंशी दौलत ख़ाँ लोदी की बात जंची। वे आक्रमण करने के लिए चल पड़े। [[12 जनवरी]], 1584 को उन्होंने अहमदाबाद से 6 मील दूर [[सरखेज]] गाँव के निकट साबरमती नदी के बाएँ किनारे पर पहुँचकर डेरा डाल दिया। मुज़फ़्फ़र ख़ाँ की सेना का पड़ाव नदी के उस पार था। उसके पास 40,000 सेना थी जबकि रहीम के पास मात्र 10,000 सेना थी। ऐसी हालत में नदी पार करना बहुत ही ख़तरनाक सिद्ध हो सकता था।


रहीम अभी इस दायित्व का निर्वाह कर ही रहे थे कि उन्हे ख़बर मिली कि [[लाल क़िला आगरा|आगरा का लाल क़िला|आगरे के क़िले]] से भागे हुए क़ैदी मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने काठियों आदि के साथ मिलकर फिर सेना तैयार करनी शुरू कर दी है। बैरम ख़ाँ का दुश्मन शहाबुद्दीन उस वक़्त गुजरात का सूबेदार था। वह अकबर का हुक्म नहीं मान रहा था। अकबर को इस बात का शक था कि वह विश्वासघात कर रहा है।
इन हालात का सामना रहीम ने जिस मनौवैज्ञानिक पद्धति से किया, वह युद्ध विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। रहीम ने पदाधिकारियों को एक पत्र पढ़कर सुनाया कि बादशाह एक विशाल सेना लेकर ख़ुद आ रहे हैं और उनके आने तक आक्रमण न किया जाए। इससे अमीरों का मनोबल बढ़ा। वे सेनापति के आदेशों का पालन करने में लग गए। दुश्मनों को जब अपने जासूसों से पता चला कि बादशाह ख़ुद आ रहे हैं तो 16 जनवरी को नदी पार करके मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने जल्दबाज़ी के साथ आक्रमण कर दिया।


==गुजरात की सूबेदारी==
अपनी रणनीति के अनुसार रहीम 300 चुने हुए वीरों और 100 विशालकाय हाथियों के साथ सेना के मध्य में रहते हुए युद्ध भूमि में उतरे। राजपूतों और सैयदों ने इस युद्ध में बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। चारों तरफ़ मृत्यु का ताण्डव था। दोनों पक्षों को जब मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने गुत्थम–गुत्था देखा तो सात हज़ार सैनिकों के साथ मध्य भाग की ओर बढ़ा। मुग़ल सैनिक विशाल सेना को मध्य भाग की तरफ़ आता देख युद्ध स्थल से भागने लगे। ऐसी स्थिति में रहीम ने हाथियों की सेना आगे करने की युद्धनीति अपनाई। गजराजों द्वारा कुचले जाने से शत्रु पक्ष में त्राहि–त्राहि मच गई। जब तक वे सम्भलते, तब तक निज़ामुद्दीन ने पीछे से और राय दुर्ग सिसौदिया ने बाईं तरफ़ से आक्रमण कर दिया।
अकबर के शासनकाल में सन 1580 से सन 1583 तक कठिन समय था, क्योंकि उसके दरबार के अमीर उसके ख़िलाफ़ साज़िश रच रहे थे और दक्षिण में स्थिति विपरीत थी। ऐसे वक़्त में अकबर ने रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' को गुजरात की सूबेदारी देकर दुश्मन को पराजित करने के लिए भेजा। उधर मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने एतमाद ख़ाँ को हराकर अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया था। साथ ही प्राप्त ख़ज़ाने से 40,000 सेना खड़ी कर ली थी।
====कंधार पर आक्रमण====
रहीम ख़ानख़ाना [[जौनपुर]] में मुश्किल से एक वर्ष रहे होंगे कि [[4 जनवरी]], 1590 को बादशाह अकबर ने विशाल सेना के साथ उन्हें कंधार विजय के लिए भेज दिया। ख़र्च आदि के लिए मुलतान और भक्कर जागीर के रूप में प्रदान किया। रहीम ने रास्ते में ही बलूचियों को पराजित करने का फ़ैसला किया। लेकिन उन्होंने कंधार जीतने के पहले सिन्ध के शासक जानी बेग, जो मुज़फ़्फ़र ख़ाँ से ज़्यादा चालाक और सामरिक दृष्टि से सम्पन्न था, को पराजित करना ज़रूरी समझा। इसके लिए ख़ानख़ाना ने बादशाह से इज़ाज़त माँगी जो उन्हें तत्काल मिल गई।


बादशाह अकबर ने 22 सितंबर, 1583 को [[फ़तेहपुर सीकरी]] के राजपूतों और बाड़ा के सैयदों तथा पठान सैनिकों के साथ रहीम को विदा किया। रहीम इन बहादुर सैनिकों सहित द्रुतगति से आगे बढ़ते हुए मिरथा पहुँचे, जहाँ उन्हें मुज़फ़्फ़र ख़ाँ के द्वारा कुतुबुद्दीन की हत्या और भड़ौच पर अधिकार का समाचार मिला। रहीम अपने साथ के लोगों से यह ख़बर छिपाए तेज़ी से आगे बढ़ते हुए सिरोही जा पहुँचे, जहाँ निज़ामुद्दीन उनकी अगवानी में खड़े थे। इससे उन्हें नवीनतम स्थिति का पता चला। 31 दिसम्बर को वह पाटन पहुँचे और एक दिन रुककर मुग़ल अधिकारियों की गोष्ठी में विचार–विमर्श किया। लोगों ने रहीम को मालवा सेना की प्रतीक्षा करने की सलाह दी लेकिन विश्वसनीय मित्रों मुंशी दौलत ख़ाँ लोदी ने कहा कि यही उचित अवसर है। वे आक्रमण करके 'ख़ानख़ाना' की उपाधि प्राप्त करें, क्योंकि यह उपाधि उनके पिता को भी मिली थी। रहीम को मीर मुंशी दौलत ख़ाँ लोदी की बात जंची। वे आक्रमण करने के लिए चल पड़े। 12 जनवरी, 1584 को उन्होंने अहमदाबाद से 6 मील दूर सरख़ेज़ गाँव के निकट साबरमती नदी के बाएँ किनारे पर पहुँचकर डेरा डाल दिया। मुज़फ़्फ़र ख़ाँ की सेना का पड़ाव नदी के उस पार था। उसके पास 40,000 सेना थी जबकि रहीम के पास मात्र 10,000 सेना थी। ऐसी हालत में नदी पार करना बहुत ही ख़तरनाक सिद्ध हो सकता था।
रहीम उपजाऊ और सम्पन्न प्रान्त पर अधिकार करके सैनिकों की ज़रूरतें पूरी करना चाहते थे। वे अभी मुलतान से कुछ ही मील दूर थे कि बलूची सरदारों ने सामूहिक रूप से ख़ानख़ाना की सेवा में हाज़िर होकर अकबर के प्रति अपनी स्वामीभक्ति प्रदर्शित की और सिन्ध की विजय में सहयोग का पूरा आश्वासन दिया।


इन हालात का सामना रहीम ने जिस मनौवैज्ञानिक पद्धति से किया, वह युद्ध विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मानी जाती है। रहीम ने पदाधिकारियों को एक पत्र पढ़कर सुनाया कि बादशाह एक विशाल सेना लेकर ख़ुद आ रहे हैं और उनके आने तक आक्रमण न किया जाए। इससे अमीरों का मनोबल बढ़ा। वे सेनापति के आदेशों का पालन करने में लग गए। दुश्मनों को जब अपने जासूसों से पता चला कि बादशाह ख़ुद आ रहे हैं तो 16 जनवरी को नदी पार करके मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने जल्दबाज़ी के साथ आक्रमण कर दिया।
यह बात जब जानी बेग को पता चली तो उसने ख़ुसरो के नेतृत्व में 120 सशस्त्र नावों, जिनमें धनुर्धर सैनिक, बन्दूक चलाने वाले एवं 200 युद्ध तोपें थीं, को जलमार्ग से और दो टुकड़ियों को नदी के किनारों से भेजा। ख़ानख़ाना ने जिस क़िले के पास डेरा डाला था, वह स्थान नदी से काफ़ी ऊँचाई पर ढलुआ बलुई ज़मीन पर स्थित था। अतः नदी से निकलकर आक्रमण करना मुश्किल था। [[31 अक्तूबर]], 1591 को शत्रु–दल धारा के विपरीत आगे बढ़ता दिखाई पड़ा। अब युद्ध अनिवार्य हो गया था। यह भयानक युद्ध 24 घन्टे के बाद तब बन्द हुआ जब ख़ुसरों हारकर भाग गया। लेकिन जानी बेग इससे हतोत्साहित नहीं हुआ और बुहरी क़िले में अपना डेरा डाले पड़ा रहा, क्योंकि यह स्थल सुरक्षित था।
अपनी रणनीति के अनुसार रहीम 300 चुने हुए वीरों और 100 विशालकाय हाथियों के साथ सेना के मध्य में रहते हुए युद्ध भूमि में उतरे। राजपूतों और सैयदों ने इस युद्ध में बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। चारों तरफ़ मृत्यु का ताण्डव था। दोनों पक्षों को जब मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने गुत्थम–गुत्था देखा तो सात हज़ार सैनिकों के साथ मध्य भाग की ओर बढ़ा। मुग़ल सैनिक विशाल सेना को मध्य भाग की तरफ़ आता देख युद्ध स्थल से भागने लगे। ऐसी स्थिति में रहीम ने हाथियों की सेना आगे करने की युद्धनीति अपनाई। गजराजों द्वारा कुचले जाने से शत्रु पक्ष में त्राहि–त्राहि मच गई। जब तक वे सम्भलते, तब तक निज़ामुद्दीन ने पीछे से और राय दुर्ग सिसौदिया ने बाईं तरफ़ से आक्रमण कर दिया।
==ख़ानख़ाना की उपाधि==
==ख़ानख़ाना की उपाधि==
ऐसा होने से दुश्मनों ने यह समझा कि एक तरफ़ से अकबर और दूसरी तरफ़ से मालवा की सेना ने एक साथ आक्रमण कर दिया है। वे तत्काल मैदान छोड़कर भागने लगे। परिणामतः मुज़फ़्फ़र ख़ाँ को भी वहाँ से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी। इस विजय से रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' की बहादुरी की धाक जम गई और उनके दरबारी दुश्मनों के मुँह बन्द हो गए। इसी के साथ रहीम को 'ख़ानख़ाना' की उपाधि तथा कई जागीरों से सम्मानित किया गया।
ऐसा होने से दुश्मनों ने यह समझा कि एक तरफ़ से अकबर और दूसरी तरफ़ से मालवा की सेना ने एक साथ आक्रमण कर दिया है। वे तत्काल मैदान छोड़कर भागने लगे। परिणामतः मुज़फ़्फ़र ख़ाँ को भी वहाँ से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी। इस विजय से रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' की बहादुरी की धाक जम गई और उनके दरबारी दुश्मनों के मुँह बन्द हो गए। इसी के साथ रहीम को 'ख़ानख़ाना' की उपाधि तथा कई जागीरों से सम्मानित किया गया।


सन 1589 में जब बादशाह अकबर अपने परिवार के साथ कश्मीर और काबुल घाटी की यात्रा पर गया तो रहीम ख़ानख़ाना भी उसके साथ थे। रहीम ने अवकाश के दिनों में बाबर की आत्मकथा '''तज़ुके बाबरी''' का तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद किया। फिर 24 नवम्बर, 1589 को जब बादशाह यात्रा से लौट रहे थे तो उन्होंने यह अनुवाद उन्हें रास्तें में ही भेंट किया।  
सन 1589 में जब बादशाह अकबर अपने परिवार के साथ कश्मीर और काबुल घाटी की यात्रा पर गया तो रहीम ख़ानख़ाना भी उसके साथ थे। रहीम ने अवकाश के दिनों में बाबर की आत्मकथा '''तज़ुके बाबरी''' का तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद किया। फिर [[24 नवम्बर]], 1589 को जब बादशाह यात्रा से लौट रहे थे तो उन्होंने यह अनुवाद उन्हें रास्तें में ही भेंट किया।  


अकबर ने रहीम की साहित्यिक कृति से प्रसन्न होकर [[राजा टोडरमल]] की मृत्यु से रिक्त साम्राज्य के वकील के पद पर उन्हें अधिष्ठित कर दिया। रहीम के पिता बैरम ख़ाँ भी साम्राज्य के वकील थे। यद्यपि उस समय तक इस पद के अधकार कुछ कम हो गए थे, लेकिन बादशाह और शहज़ादों के अधिकारों के बाद यही सर्वोच्च पद था। रहीम को जौनपुर का सूबा जागीर के रूप में प्रदान किया गया। उन्हें अवकाश के दिनों में दरबार में आने वाले कवियों आदि को दान देना पड़ता था। इसके अलावा साम्राज्य के सर्वश्रेष्ठ अमीर के ख़र्चे भी अधिक थे। रहीम को प्रतिष्ठा, कुल की मर्यादा और आन–बान के अनुसार ख़र्च करना पड़ता था, इस वजह से उनकी आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने लगी थी।  
अकबर ने रहीम की साहित्यिक कृति से प्रसन्न होकर [[राजा टोडरमल]] की मृत्यु से रिक्त साम्राज्य के वकील के पद पर उन्हें अधिष्ठित कर दिया। रहीम के पिता बैरम ख़ाँ भी साम्राज्य के वकील थे। यद्यपि उस समय तक इस पद के अधकार कुछ कम हो गए थे, लेकिन बादशाह और शहज़ादों के अधिकारों के बाद यही सर्वोच्च पद था। रहीम को [[जौनपुर]] का सूबा जागीर के रूप में प्रदान किया गया। उन्हें अवकाश के दिनों में दरबार में आने वाले कवियों आदि को दान देना पड़ता था। इसके अलावा साम्राज्य के सर्वश्रेष्ठ अमीर के ख़र्चे भी अधिक थे। रहीम को प्रतिष्ठा, कुल की मर्यादा और आन–बान के अनुसार ख़र्च करना पड़ता था, इस वजह से उनकी आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने लगी थी।
==कंधार पर आक्रमण==
====ख़ानख़ाना की युद्धनीति====
रहीम ख़ानख़ाना जौनपुर में मुश्किल से एक वर्ष रहे होंगे कि 4 जनवरी, 1590 को बादशाह अकबर ने विशाल सेना के साथ उन्हें कंधार विजय के लिए भेज दिया। ख़र्च आदि के लिए मुलतान और भक्कर जागीर के रूप में प्रदान किया। रहीम ने रास्ते में ही बलूचियों को पराजित करने का फ़ैसला किया। लेकिन उन्होंने कंधार जीतने के पहले सिन्ध के शासक जानी बेग, जो मुज़फ़्फ़र ख़ाँ से ज़्यादा चालाक और सामरिक दृष्टि से सम्पन्न था, को पराजित करना ज़रूरी समझा। इसके लिए ख़ानख़ाना ने बादशाह से इज़ाज़त माँगी जो उन्हें तत्काल मिल गई।
 
रहीम उपजाऊ और सम्पन्न प्रान्त पर अधिकार करके सैनिकों की ज़रूरतें पूरी करना चाहते थे। वे अभी मुलतान से कुछ ही मील दूर थे कि बलूची सरदारों ने सामूहिक रूप से ख़ानख़ाना की सेवा में हाज़िर होकर अकबर के प्रति अपनी स्वामीभक्ति प्रदर्शित की और सिन्ध की विजय में सहयोग का पूरा आश्वासन दिया।
 
यह बात जब जानी बेग को पता चली तो उसने ख़ुसरो के नेतृत्व में 120 सशस्त्र नावों, जिनमें धनुर्धर सैनिक, बन्दूक चलाने वाले एवं 200 युद्ध तोपें थीं, को जलमार्ग से और दो टुकड़ियों को नदी के किनारों से भेजा। ख़ानख़ाना ने जिस क़िले के पास डेरा डाला था, वह स्थान नदी से काफ़ी ऊँचाई पर ढलुआ बलुई ज़मीन पर स्थित था। अतः नदी से निकलकर आक्रमण करना मुश्किल था। 31 अक्तूबर, 1591 को शत्रु–दल धारा के विपरीत आगे बढ़ता दिखाई पड़ा। अब युद्ध अनिवार्य हो गया था। यह भयानक युद्ध 24 घन्टे के बाद तब बन्द हुआ जब ख़ुसरों हारकर भाग गया। लेकिन जानी बेग इससे हतोत्साहित नहीं हुआ और बुहरी क़िले में अपना डेरा डाले पड़ा रहा, क्योंकि यह स्थल सुरक्षित था।
==ख़ानख़ाना की युद्धनीति==
रहीम ख़ानख़ाना के सैनिकों को अब काफ़ी परेशानियाँ उठानी पड़ीं। दो महीने घेरा डालने के बाद भी उन्हें सफलता नहीं मिली। जानी बेग के छापामार सैनिक क़िले से निकलकर मुग़लों को परेशान करते और खाद्य सामग्री लूट लेते थे। जब खाद्यान्न की कमी हो गई तो ख़ानख़ाना ने बादशाह से मदद माँगी। बादशाह ने ढाई लाख रुपये, अनाज और तोपों से सजी कुछ नौकाएँ भेजीं। लेकिन जब इससे भी समस्या हल नहीं हुई तो उन्होंने जानी बेग के रसद आपूर्ति के स्रोतों पर अधिकार करना ज़रूरी समझा। उन्होंने मुग़ल सैनिकों के पाँच दस्तों की सहायता से शत्रु के रसद आपूर्ति ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर लिया। इससे ख़ानख़ाना के सैनिकों को खाद्य सामग्री की पूर्ति सम्भव हो सकी।  
रहीम ख़ानख़ाना के सैनिकों को अब काफ़ी परेशानियाँ उठानी पड़ीं। दो महीने घेरा डालने के बाद भी उन्हें सफलता नहीं मिली। जानी बेग के छापामार सैनिक क़िले से निकलकर मुग़लों को परेशान करते और खाद्य सामग्री लूट लेते थे। जब खाद्यान्न की कमी हो गई तो ख़ानख़ाना ने बादशाह से मदद माँगी। बादशाह ने ढाई लाख रुपये, अनाज और तोपों से सजी कुछ नौकाएँ भेजीं। लेकिन जब इससे भी समस्या हल नहीं हुई तो उन्होंने जानी बेग के रसद आपूर्ति के स्रोतों पर अधिकार करना ज़रूरी समझा। उन्होंने मुग़ल सैनिकों के पाँच दस्तों की सहायता से शत्रु के रसद आपूर्ति ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर लिया। इससे ख़ानख़ाना के सैनिकों को खाद्य सामग्री की पूर्ति सम्भव हो सकी।  


तत्पश्चात ख़ानख़ाना ने अपनी युद्धनीति के अनुसार आक्रमण करके बुहरी क़िले को ध्वस्त कर दिया। शत्रुओं ने जमकर संघर्ष किया, लेकिन अन्ततः पराजित हुए। जानी बेग ने युद्ध भूमि से भागकर उरनपुर में शरण ली। ख़ानख़ाना ने इस बार क़िले की घेराबन्दी करने में चूक नहीं की। यह घेरा एक माह तक चलता रहा। इतने में बारिश शुरू हो गई। लगातार बारिश के कारण तीन तरफ़ से नदी का जल तथा एक तरफ़ मुग़लों की घेराबन्दी से जानी बेग की खाद्य आपूर्ति लगभग समाप्त हो गई। नदी से सामग्री पहुँचना मुग़लों के क़ब्ज़े के कारण असम्भव था। तोपों की गोलाबारी से भीतर रहना मुश्किल हो गया था। लोग ऊँट आदि खाने लगे थे। जानी बेग के सैनिक भूख से व्याकुल होकर ख़ानख़ाना की शरण में आने लगे। ख़ानख़ाना की उदारता के फलस्वरूप अनेक सिन्धी तो मुग़ल सेना में शामिल हो गए।  
तत्पश्चात् ख़ानख़ाना ने अपनी युद्धनीति के अनुसार आक्रमण करके बुहरी क़िले को ध्वस्त कर दिया। शत्रुओं ने जमकर संघर्ष किया, लेकिन अन्ततः पराजित हुए। जानी बेग ने युद्ध भूमि से भागकर उरनपुर में शरण ली। ख़ानख़ाना ने इस बार क़िले की घेराबन्दी करने में चूक नहीं की। यह घेरा एक माह तक चलता रहा। इतने में बारिश शुरू हो गई। लगातार बारिश के कारण तीन तरफ़ से नदी का जल तथा एक तरफ़ मुग़लों की घेराबन्दी से जानी बेग की खाद्य आपूर्ति लगभग समाप्त हो गई। नदी से सामग्री पहुँचना मुग़लों के क़ब्ज़े के कारण असम्भव था। तोपों की गोलाबारी से भीतर रहना मुश्किल हो गया था। लोग ऊँट आदि खाने लगे थे। जानी बेग के सैनिक भूख से व्याकुल होकर ख़ानख़ाना की शरण में आने लगे। ख़ानख़ाना की उदारता के फलस्वरूप अनेक सिन्धी तो मुग़ल सेना में शामिल हो गए।  
==सिन्ध पर विजय==
====सिन्ध पर विजय====
आख़िर में जानी बेग ने अपने दूतों से कहलवाया कि अल्लाह के नाम पर अपने ही धर्म के लोगों की हत्या रोक दें। ख़ानख़ाना ने दूतों का स्वागत किया और यह सन्धि प्रस्ताव स्वीकृत किया कि सेहवान दुर्ग एवं बीस युद्धपोत मुग़लों को दे दिए जाएँ। जानी बेग अपनी पुत्री का विवाह इरीज़ से करें तथा सिन्ध के शासक राजदरबार में उपस्थित होकर बादशाह की अधीनता स्वीकार कर लें। सन्धि होने के बाद सैनिक–घेरा उठा लिया गया। जानी बेग ने तीन माह का वक़्त माँगा ताकि वह ठट्टा जाकर अपनी राजधानी लाहौर ले चलने का प्रबन्ध कर सके।  
आख़िर में जानी बेग ने अपने दूतों से कहलवाया कि [[अल्लाह]] के नाम पर अपने ही धर्म के लोगों की हत्या रोक दें। ख़ानख़ाना ने दूतों का स्वागत किया और यह सन्धि प्रस्ताव स्वीकृत किया कि सेहवान दुर्ग एवं बीस युद्धपोत मुग़लों को दे दिए जाएँ। जानी बेग अपनी पुत्री का विवाह इरीज़ से करें तथा सिन्ध के शासक राजदरबार में उपस्थित होकर बादशाह की अधीनता स्वीकार कर लें। सन्धि होने के बाद सैनिक–घेरा उठा लिया गया। जानी बेग ने तीन [[माह]] का वक़्त माँगा ताकि वह ठट्टा जाकर अपनी राजधानी लाहौर ले चलने का प्रबन्ध कर सके।  


सेहवान दुर्ग की चाबी ख़ानख़ाना के वहाँ पर पहुँचने पर दुर्गपाल के द्वारा प्रदान कर दी गई। तीन महीने का वक़्त समाप्त होने पर भी जब जानी बेग नहीं आया तो ख़ानख़ाना ने ठट्टा की तरफ़ प्रस्थान किया। जानी बेग राजधानी से निकलकर फ़तेहाबाद में डेरा डाले पुर्तगाली सेना के आने का इन्तज़ार कर रहा था। मुग़ल सेना फ़तेहाबाद पहुँच गई। तब जानी बेग ने आगे बढ़कर ख़ानख़ाना का स्वागत किया। उसकी धूर्तता तथा बहानेबाज़ी नहीं चल पाई। ख़ानख़ाना ने मुग़लों को उसकी मित्रता का विश्वास दिलाने के लिए उससे जहाज़ी बेड़ा समर्पित करने को कहा।  
सेहवान दुर्ग की चाबी ख़ानख़ाना के वहाँ पर पहुँचने पर दुर्गपाल के द्वारा प्रदान कर दी गई। तीन महीने का वक़्त समाप्त होने पर भी जब जानी बेग नहीं आया तो ख़ानख़ाना ने ठट्टा की तरफ़ प्रस्थान किया। जानी बेग राजधानी से निकलकर फ़तेहाबाद में डेरा डाले पुर्तग़ाली सेना के आने का इंतज़ार कर रहा था। मुग़ल सेना फ़तेहाबाद पहुँच गई। तब जानी बेग ने आगे बढ़कर ख़ानख़ाना का स्वागत किया। उसकी धूर्तता तथा बहानेबाज़ी नहीं चल पाई। ख़ानख़ाना ने मुग़लों को उसकी मित्रता का विश्वास दिलाने के लिए उससे जहाज़ी बेड़ा समर्पित करने को कहा।  


जानी बेग के पास दो ही रास्ते थे- गिरफ़्तारी या अधीनता। उसने अपना जहाज़ी बेड़ा जो कि उसकी रीढ़ था, मुग़लों को दे दिया। सिन्ध पर विजय प्राप्त करके ख़ानख़ाना ठट्टा चले गए। वहाँ से प्रस्थान करते समय अपनी सारी सामग्री जो उनके पास थी, अपने अमीरों और कर्मचारियों में वितरित कर दी। वे फ़तेहाबाद में लौटकर आए ही थे कि उन्हें पराजित शत्रु के साथ दरबार में उपस्थित होने का शाही आदेश मिला। ख़ानख़ाना जानी बेग के साथ अविलम्ब वहाँ से चलकर दरबार में हाज़िर हुए। इससे उनकी आज्ञाकारिता पर बादशाह अकबर बहुत खुश हुआ।  
जानी बेग के पास दो ही रास्ते थे- गिरफ़्तारी या अधीनता। उसने अपना जहाज़ी बेड़ा जो कि उसकी रीढ़ था, मुग़लों को दे दिया। सिन्ध पर विजय प्राप्त करके ख़ानख़ाना ठट्टा चले गए। वहाँ से प्रस्थान करते समय अपनी सारी सामग्री जो उनके पास थी, अपने अमीरों और कर्मचारियों में वितरित कर दी। वे फ़तेहाबाद में लौटकर आए ही थे कि उन्हें पराजित शत्रु के साथ दरबार में उपस्थित होने का शाही आदेश मिला। ख़ानख़ाना जानी बेग के साथ अविलम्ब वहाँ से चलकर दरबार में हाज़िर हुए। इससे उनकी आज्ञाकारिता पर बादशाह अकबर बहुत खुश हुआ।
==दक्षिण को प्रस्थान==
====दक्षिण को प्रस्थान====
सिन्ध पर विजय के बाद ख़ानख़ाना दरबार में 6 माह ही रह पाए थे कि बादशाह ने उन्हें दक्षिण की ओर प्रस्थान करने को कहा। ख़ानख़ाना मालवा के मार्ग से दक्षिण को रवाना हुए। कुछ दिन भिलसा में रहकर 19 जुलाई, 1594 को दक्षिण की ओर सीधे न जाकर वे [[उज्जैन]] के रास्ते से चल पड़े। वे आक्रमण के पहले दक्षिण के द्वार पर स्थित ख़ानदेश पर भी अधिकार करना चाहते थे। शहज़ादा मुराद रहीम का इन्तज़ार कर रहा था। ख़ानख़ाना की देरी उसे पसन्द नहीं थी। दरबारी और अमीर ख़ानख़ाना के विरुद्ध मुराद के कान भर रहे थे। ख़ानख़ाना का यह कार्य उनकी दूरदर्शिता और कूटनीति कौशल का प्रमाण था। परन्तु शहज़ादा नाराज़ होता गया और उसने जून, 1565 में [[अहमदनगर]] की ओर प्रस्थान कर दिया।  
सिन्ध पर विजय के बाद ख़ानख़ाना दरबार में 6 माह ही रह पाए थे कि बादशाह ने उन्हें दक्षिण की ओर प्रस्थान करने को कहा। ख़ानख़ाना मालवा के मार्ग से दक्षिण को रवाना हुए। कुछ दिन [[भिलसा]] में रहकर 19 जुलाई, 1594 को दक्षिण की ओर सीधे न जाकर वे [[उज्जैन]] के रास्ते से चल पड़े। वे आक्रमण के पहले दक्षिण के द्वार पर स्थित [[ख़ानदेश]] पर भी अधिकार करना चाहते थे। शहज़ादा मुराद रहीम का इन्तज़ार कर रहा था। ख़ानख़ाना की देरी उसे पसन्द नहीं थी। दरबारी और अमीर ख़ानख़ाना के विरुद्ध मुराद के कान भर रहे थे। ख़ानख़ाना का यह कार्य उनकी दूरदर्शिता और कूटनीति कौशल का प्रमाण था। परन्तु शहज़ादा नाराज़ होता गया और उसने जून, 1565 में [[अहमदनगर]] की ओर प्रस्थान कर दिया।  


मुग़लों, राजपूतों, सैयदों और ख़ानदेश की सम्मिलित सेना के साथ ख़ानख़ाना ने शाहपुर से चलकर पाथरी से 12 कोस दूर [[गोदावरी नदी|गोदावरी]] के तट पर अस्थि नामक स्थान पर डेरा डाल दिया। नदी के दूसरे किनारे पर [[[चाँदबीबी]] के राष्ट्र जागरण के फलस्वरूप आदिल शाही, कुतुब शाही, निज़ाम शाही और बीदर शाही की संयुक्त सेनाएँ वीर योद्धा सुहेल ख़ाँ के नेतृत्व में डेरा डाले हुए थीं। पूरे पन्द्रह दिनों तक दोनों ही गोदावरी नदी के तट के आर पार एक दूसरे के आक्रमण का इन्तज़ार करते रहे। जब ख़ानख़ाना को दक्षिणियों की शक्ति का अनुमान हो गया तो उन्होंने अपने साथियों राजा अली ख़ाँ और शाहरुख़ के साथ 26 जनवरी, 1597 को नदी पार करके दक्षिण की सेना पर आक्रमण कर दिया।  
मुग़लों, राजपूतों, सैयदों और ख़ानदेश की सम्मिलित सेना के साथ ख़ानख़ाना ने शाहपुर से चलकर पाथरी से 12 कोस दूर [[गोदावरी नदी|गोदावरी]] के तट पर अस्थि नामक स्थान पर डेरा डाल दिया। नदी के दूसरे किनारे पर [[चाँदबीबी]] के राष्ट्र जागरण के फलस्वरूप आदिल शाही, कुतुब शाही, निज़ाम शाही और बीदर शाही की संयुक्त सेनाएँ वीर योद्धा सुहेल ख़ाँ के नेतृत्व में डेरा डाले हुए थीं। पूरे पन्द्रह दिनों तक दोनों ही गोदावरी नदी के तट के आर पार एक दूसरे के आक्रमण का इन्तज़ार करते रहे। जब ख़ानख़ाना को दक्षिणियों की शक्ति का अनुमान हो गया तो उन्होंने अपने साथियों राजा अली ख़ाँ और शाहरुख़ के साथ 26 जनवरी, 1597 को नदी पार करके दक्षिण की सेना पर आक्रमण कर दिया।
==व्यापक नरसंहार==
====रहीम ख़ानख़ाना की गिरफ़्तारी====
[[चित्र:Khan-I-Khanan-Tomb-Delhi.jpg|thumb|250px|[[ख़ान ए ख़ाना मक़बरा]], [[दिल्ली]]]]
दक्षिण के इस अभियान से संतुष्ट होकर शहज़ादा ख़ुर्रम ख़ानदेश, बरार और अहमदनगर की सूबेदारी ख़ानख़ाना को देकर अपने पिता से मिलने माण्डू चला गया। बादशाह ने ख़ुर्रम को '''शाहजहाँ''' की उपाधि दी तथा सिंहासन से उठकर उसका स्वागत किया। मलिक अम्बर अपनी आदत के अनुसार अधिक दिनों तक अधीन नहीं रह सकता था। उसने सन्धि तोड़ दी और मुग़ल थानेदारों पर हमला कर दिया। ये ख़ानख़ाना की विपत्ति के दिन थे। दामाद शाहनवाज़ ख़ाँ की अधिक मदिरापान के कारण मृत्यु हो गई और रहीम का पुत्र रहमान दाद भी चल बसा। दाराब को बालाघाट से [[बालपुर]] और वहाँ से सन् 1620 में बुरहानपुर खदेड़ दिया गया। बुरहानपुर में दाराब और ख़ानख़ाना दोनों ही गिरफ़्तार कर लिए गए। फिर तभी मुक्त हुए जब शाहजहाँ वहाँ पर आया।
इस प्रकार सन् 1620 से 1626 तक का समय रहीम के राजनीतिक जीवन का ह्रास काल रहा। सम्राट अकबर के शासन काल में उनकी गणना [[अकबर के नवरत्न|अकबर के नौ रत्नों]] में होती थी। जहाँगीर के राजगद्दी पर बैठने पर रहीम ने अक्सर जहाँगीर की नीतियों का विरोध किया। इसके फलस्वरूप जहाँगीर की दृष्टि बदली और उन्हें क़ैद कर दिया। उनकी उपाधियाँ और पद ज़ब्त कर लिए गए। सन् 1625 में रहीम ने दरबार में जहाँगीर के सामने उपस्थित होकर माफ़ी माँगी और वफ़ादारी का प्रण किया। बादशाह जहाँगीर ने न सिर्फ़ उन्हें माफ़ कर दिया बल्कि लाखों रुपये दिए, उपाधियाँ और पद लौटा दिए। जहाँगीर की इस कृपा से अभिभूत होकर रहीम ने अपनी क़ब्र के पत्थर पर यह दोहा खुदवाने की वसीयत की—
<poem>मरा लुत्फे जहाँगीर, जे हाई ढाते रब्बानी।
दो वारः ज़िन्दगी दाद, दो वारः खानखानी।।
अर्थात् ईश्वर की सहायता और जहाँगीर की दया से दो बार ज़िन्दगी और दो बार ख़ानख़ाना की उपाधि मिली।</poem>
====व्यापक नरसंहार====
भयानक संघर्ष के बाद कुतुब शाही और निज़ाम शाही सैनिक मुग़लों की मार से भागने लगे। तब सेना के मध्य भाग में सुहेल ख़ाँ ने पूरी शक्ति के साथ मुग़लों पर आक्रमण कर दिया। मार–काट से डरकर मुग़ल सैनिक युद्ध स्थल से 30 मील दूर शाहपुर भाग गए। सुहेल ख़ाँ के सैनिकों ने जब मध्य भाग पर आक्रमण किया तो तोपों के सीधे आक्रमण से बचने के लिए वह वहाँ से हट गया, परन्तु राजा अलीख़ाँ बीच में आ गया। व्यापक नर संहार के बाद अंधेरा हो जाने के कारण दोनों पक्षों ने एक दूसरे की हार का अनुमान लगाकर वहाँ से भाग गए। प्रातः काल जब मुग़ल सैनिक नदी पर पानी लेने गए तो सुहेल ख़ाँ ने 25000 घुड़सवार सेना के साथ आक्रमण कर दिया।  
भयानक संघर्ष के बाद कुतुब शाही और निज़ाम शाही सैनिक मुग़लों की मार से भागने लगे। तब सेना के मध्य भाग में सुहेल ख़ाँ ने पूरी शक्ति के साथ मुग़लों पर आक्रमण कर दिया। मार–काट से डरकर मुग़ल सैनिक युद्ध स्थल से 30 मील दूर शाहपुर भाग गए। सुहेल ख़ाँ के सैनिकों ने जब मध्य भाग पर आक्रमण किया तो तोपों के सीधे आक्रमण से बचने के लिए वह वहाँ से हट गया, परन्तु राजा अलीख़ाँ बीच में आ गया। व्यापक नर संहार के बाद अंधेरा हो जाने के कारण दोनों पक्षों ने एक दूसरे की हार का अनुमान लगाकर वहाँ से भाग गए। प्रातः काल जब मुग़ल सैनिक नदी पर पानी लेने गए तो सुहेल ख़ाँ ने 25000 घुड़सवार सेना के साथ आक्रमण कर दिया।  


ख़ानख़ाना के पास इस समय कुल 7000 सैनिक थे। तीनों सेनाओं के महत्वपूर्ण सैनिक मारे गए थे। कहा जाता है कि दौलतख़ाँ लोदी (जिसे अज़ीज़ कोका ने रहीम को दिया था और कहा था कि इसकी सेवा करो, ख़ानख़ाना बन जाओगे) उस समय सेनापति ख़ानख़ाना का मुख्य रक्षक था। उसने सुहेल ख़ाँ द्वारा हाथियों और तोपों को आगे बढ़ाया जाते देखकर ख़ानख़ाना से कहा, "हमारे पास 600 घुड़सवार हैं। फिर भी मैं शत्रु के केन्द्र पर आक्रमण करूँगा।"
ख़ानख़ाना के पास इस समय कुल 7000 सैनिक थे। तीनों सेनाओं के महत्त्वपूर्ण सैनिक मारे गए थे। कहा जाता है कि दौलतख़ाँ लोदी (जिसे अज़ीज़ कोका ने रहीम को दिया था और कहा था कि इसकी सेवा करो, ख़ानख़ाना बन जाओगे) उस समय सेनापति ख़ानख़ाना का मुख्य रक्षक था। उसने सुहेल ख़ाँ द्वारा हाथियों और तोपों को आगे बढ़ाया जाते देखकर ख़ानख़ाना से कहा, "हमारे पास 600 घुड़सवार हैं। फिर भी मैं शत्रु के केन्द्र पर आक्रमण करूँगा।"


सेनापति ख़ानख़ाना ने कहा, "क्या तुम्हें [[दिल्ली]] का स्मरण नहीं है।" दौलत ख़ाँ ने उत्तर दिया, "अगर हम इन विषमताओं से सुरक्षित रह गए तो सैकड़ों दिल्लियाँ ढूँढ लेंगे।" बड़हा के सैयद यह वार्तालाप सुन रहे थे। वे दौलतख़ाँ लोदी से बोले, "जब कुछ नहीं बचा है सिवाय मृत्यु के तो आइए, हम सब हिन्दुस्तानियों की तरह लड़ें। लेकिन आप ख़ानख़ाना से यह पूछिए कि वह क्या चाहते हैं।"
सेनापति ख़ानख़ाना ने कहा, "क्या तुम्हें [[दिल्ली]] का स्मरण नहीं है।" दौलत ख़ाँ ने उत्तर दिया, "अगर हम इन विषमताओं से सुरक्षित रह गए तो सैकड़ों दिल्लियाँ ढूँढ लेंगे।" बड़हा के सैयद यह वार्तालाप सुन रहे थे। वे दौलतख़ाँ लोदी से बोले, "जब कुछ नहीं बचा है सिवाय मृत्यु के तो आइए, हम सब हिन्दुस्तानियों की तरह लड़ें। लेकिन आप ख़ानख़ाना से यह पूछिए कि वह क्या चाहते हैं।"


दौलतख़ाँ लोदी ने घूमकर ख़ानख़ाना से कहा, "हमारे सामने विशाल सेना खड़ी है। विजय अल्लाह के हाथ में है। कृपया यह बताइए कि अगर आप हार गए तो हम लोग आपको कहाँ पर पाएँगे।" ख़ानख़ाना ने कहा, "लाशों के नीचे।" फिर दौलत ख़ाँ और सैयदों ने आदिलशाही सेना के मध्य भाग पर सीधे आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शत्रु पराजित हुए और सुहेल ख़ाँ बेहोश होकर मैदान मे गिर पड़ा, जिसे बाद में दक्षिणी उठाकर भाग गए।  
दौलतख़ाँ लोदी ने घूमकर ख़ानख़ाना से कहा, "हमारे सामने विशाल सेना खड़ी है। विजय अल्लाह के हाथ में है। कृपया यह बताइए कि अगर आप हार गए तो हम लोग आपको कहाँ पर पाएँगे।" ख़ानख़ाना ने कहा, "लाशों के नीचे।" फिर दौलत ख़ाँ और सैयदों ने आदिलशाही सेना के मध्य भाग पर सीधे आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शत्रु पराजित हुए और सुहेल ख़ाँ बेहोश होकर मैदान में गिर पड़ा, जिसे बाद में दक्षिणी उठाकर भाग गए।  
==विपत्तियों के बादल==
====विपत्तियों के बादल====
कहा जाता है कि ख़ानख़ाना ने उस दिन 75 लाख रुपये बाँट दिए। इस महान विजय के बाद भी ख़ानख़ाना और शहज़ादा मुराद में मतभेद बढ़ते गए। शहज़ादे के कहने पर ख़ानख़ाना को वापस बुला लिया गया। यह रहीम के दुख का समय था। उनका संरक्षक और बादशाह उनसे नाराज़ था ही, इसी बीच उनका सबसे प्रिय पुत्र हैदर क़ुली जलकर मर गया। लाहौर से लौटते समय [[अम्बाला]] में माहबानो अधिक बीमार हो गईं। वह पुत्र की मृत्यु नहीं झेल सकीं और अम्बाला में ही सन 1598 में उनकी मृत्यु हो गई। दक्षिण से लौटने पर ख़ानख़ाना केवल साल भर दरबार में रहे। यह समय उनके दुख, अपमान और सन्ताप का था।
कहा जाता है कि ख़ानख़ाना ने उस दिन 75 लाख रुपये बाँट दिए। इस महान् विजय के बाद भी ख़ानख़ाना और शहज़ादा मुराद में मतभेद बढ़ते गए। शहज़ादे के कहने पर ख़ानख़ाना को वापस बुला लिया गया। यह रहीम के दु:ख का समय था। उनका संरक्षक और बादशाह उनसे नाराज़ था ही, इसी बीच उनका सबसे प्रिय पुत्र हैदर क़ुली जलकर मर गया। लाहौर से लौटते समय [[अम्बाला]] में माहबानो अधिक बीमार हो गईं। वह पुत्र की मृत्यु नहीं झेल सकीं और अम्बाला में ही सन् 1598 में उनकी मृत्यु हो गई। दक्षिण से लौटने पर ख़ानख़ाना केवल साल भर दरबार में रहे। यह समय उनके दुख, अपमान और सन्ताप का था।
 
[[29 अक्टूबर]], 1599 को बादशाह अकबर ने [[शहज़ादा दानियाल]] को दक्षिण में नियुक्त करके रहीम को उसका अभिभावक बना दिया। साथ ही दक्षिण कमान का सेनापति पद देकर अहमदनगर का क़िला फ़तह करने के लिए भेजा। दानियाल और रहीम अहमदनगर क़िले का चार माह चार दिन तक घेरा डाले रहे। चाँदबीबी ने जब सन्धि करनी चाही तो हब्शियों ने उन्हें मार डाला और इब्राहीम के पुत्र बहादुर को नि­ज़ाम बनाकर युद्ध के लिए तैयार हो गए।  
29 अक्टूबर, 1599 को बादशाह अकबर ने शहज़ादा दानियाल को दक्षिण में नियुक्त करके रहीम को उसका अभिभावक बना दिया। साथ ही दक्षिण कमान का सेनापति पद देकर अहमदनगर का क़िला फ़तह करने के लिए भेजा। दानियाल और रहीम अहमदनगर क़िले का चार माह चार दिन तक घेरा डाले रहे। चाँदबीबी ने जब सन्धि करनी चाही तो हब्शियों ने उन्हें मार डाला और इब्राहीम के पुत्र बहादुर को नि­ज़ाम बनाकर युद्ध के लिए तैयार हो गए।  
16 अगस्त, 1600 को क़िले की दीवार उड़ा दी गई और हब्शियों की पराजय हुई। रहीम ख़ानख़ाना बहादुर के साथ दरबार में लौट आए। बहादुर को [[ग्वालियर]] के क़िले में जीवन भर के लिए क़ैद कर दिया गया। ख़ानख़ाना ने अपनी पुत्री का विवाह दानियाल से कर दिया। अप्रैल, 1601 में ख़ानख़ाना अहमदनगर क़िले को दुरुस्त करने तथा शाह अली (जिसे [[मलिक अम्बर]] और राजू दक्षिणी ने निज़ाम शाह बनाकर गद्दी पर बैठाया था) को दबाव रखने के लिए जब वहाँ पर पहुँचे तो मुग़लों के आपसी वैमनस्य एवं दक्षिणियों की एकता से परिस्थिति बदली हुई थी।
 
====दामाद दानियाल की मृत्यु====
16 अगस्त, 1600 को क़िले की दीवार उड़ा दी गई और हब्शियों की पराजय हुई। रहीम ख़ानख़ाना बहादुर के साथ दरबार में लौट आए। बहादुर को [[ग्वालियर]] के क़िले में जीवन भर के लिए क़ैद कर दिया गया। ख़ानख़ाना ने अपनी पुत्री का विवाह दानियाल से कर दिया। अप्रैल, 1601 में ख़ानख़ाना अहमदनगर क़िले को दुरुस्त करने तथा शाह अली (जिसे मलिक अम्बर और राजू दक्षिणी ने निज़ाम शाह बनाकर गद्दी पर बैठाया था) को दबाव रखने के लिए जब वहाँ पर पहुँचे तो मुग़लों के आपसी वैमनस्य एवं दक्षिणियों की एकता से परिस्थिति बदली हुई थी।  
हब्शी मलिक अम्बर अपनी प्रतिभा, साहस और वीरता से सरदार बन चुका था। उसकी प्रतिष्ठा भी अधिक थी। उसी प्रकार राजू दक्षिणी भी प्रभावशाली था। रहीम ख़ानख़ाना के नेतृत्व में मलिक अम्बर को दो बार 16 मई, 1601 को मजेरा में अब्दुल रहमान ने और 1602 में नान्देर में ख़ानख़ाना के पुत्र इरीज़ ने हराया। इससे ख़ानख़ाना की प्रतिष्ठा बढ़ गई। इसी बीच दामाद शहज़ादा दानियाल की सन् 1604 में मृत्यु हो गई। रहीम बिटिया जाना बेगम से बहुत प्यार करते थे। उसने विधवा का जीवन व्यतीत किया जो रहीम के लिए बहुत ही हृदय विदारक था। रहीम इस दु:ख से उबर नहीं पाए थे कि उनके संरक्षक महान् सम्राट अकबर सन् 1605 में परलोक सिधार गए।  
==दामाद दानियाल की मृत्यु==
हब्शी मलिक अम्बर अपनी प्रतिभा, साहस और वीरता से सरदार बन चुका था। उसकी प्रतिष्ठा भी अधिक थी। उसी प्रकार राजू दक्षिणी भी प्रभावशाली था। रहीम ख़ानख़ाना के नेतृत्व में मलिक अम्बर को दो बार 16 मई, 1601 को मजेरा में अब्दुल रहमान ने और 1602 में नान्देर में ख़ानख़ाना के पुत्र इरीज़ ने हराया। इससे ख़ानख़ाना की प्रतिष्ठा बढ़ गई। इसी बीच दामाद शहज़ादा दानियाल की सन 1604 में मृत्यु हो गई। रहीम बिटिया जाना बेगम से बहुत प्यार करते थे। उसने विधवा का जीवन व्यतीत किया जो रहीम के लिए बहुत ही ह्रदय विदारक था। रहीम इस दुख से उबर नहीं पाए थे कि उनके संरक्षक महान सम्राट अकबर सन 1605 में परलोक सिधार गए।  
==जहाँगीर से भेंट==
==जहाँगीर से भेंट==
अकबर की मृत्यु के बाद रहीम बादशाह [[जहाँगीर]] से मिलने के लिए चिट्टियाँ लिखते रहे। अन्ततः उन्हें दरबार में उपस्थित होने की अनुमति मिल गई। सन 1608 में ख़ानख़ाना बहुमूल्य उपहारों के साथ दरबार में अत्यन्त उल्लास के साथ उपस्थित हुए। वह उस समय बहुत ही भावुक हो उठे थे। उन्हें यह भी भान न रहा कि वे सिर के बल चल कर आए हैं या पैर से। विह्वलता से उन्होंने अपने को बादशाह जहाँगीर के पैरों में डाल दिया, लेकिन जहाँगीर ने दयालुता से उन्हें उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। फिर उनका मुख चूमा।  
अकबर की मृत्यु के बाद रहीम बादशाह [[जहाँगीर]] से मिलने के लिए चिट्टियाँ लिखते रहे। अन्ततः उन्हें दरबार में उपस्थित होने की अनुमति मिल गई। सन् 1608 में ख़ानख़ाना बहुमूल्य उपहारों के साथ दरबार में अत्यन्त उल्लास के साथ उपस्थित हुए। वह उस समय बहुत ही भावुक हो उठे थे। उन्हें यह भी भान न रहा कि वे सिर के बल चल कर आए हैं या पैर से। विह्वलता से उन्होंने अपने को बादशाह जहाँगीर के पैरों में डाल दिया, लेकिन जहाँगीर ने दयालुता से उन्हें उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। फिर उनका मुख चूमा।  
 
ख़ानख़ाना ने जहाँगीर को मोतियों के दो हार, कई [[हीरा|हीरे]] एवं [[माणिक]] भेंट किए, जिनका मूल्य तीन लाख रुपये था। इसके अतिरिक्त कई अन्य वस्तुएँ भी भेंट कीं। बादशाह जहाँगीर ने विशिष्ट घोड़े और 20 हाथी प्रदान करके उन्हें सम्मानित किया। ख़ानख़ाना तीन महीने तीन दिन दरबार में रहकर दो वर्ष में दक्षिण विजय का आश्वासन देकर यथेष्ट सहायता लेकर दक्षिण की ओर चले गए। ख़ानख़ाना घनघोर बरसात में [[शाहजहाँ|शहज़ादा ख़ुर्रम]] के साथ बुरहानपुर से बालाघाट की ओर बढ़ चले। परन्तु मुग़ल सरदारों के बीच असहमति के कारण उनकी युद्धनीति असफल हो गई। मलिक अम्बर ने सामने युद्ध न करके छापामार लड़ाई लड़ी। मुग़ल सेना की रसद सामग्री समाप्त होने लगी। हाथी–घोड़े मरने लगे। ख़ानख़ाना के मित्र भी उनके शत्रु हो गए। फलतः उन्हें मलिक अम्बर से जहाँगीर की प्रतिष्ठा के अनुकूल सन्धि करनी पड़ी।


इन सबसे बादशाह जहाँगीर बहुत ही नाराज़ हुआ। उसने ख़ान-ए-जहाँ लोदी को रहीम का उत्तराधिकारी बनाकर भेजा। साथ ही साथ उनके पुराने शत्रु महावत ख़ाँ को पराजित सेनापति को दरबार में लाने का काम सौंपा। महावत ख़ाँ के साथ जब ख़ानख़ाना लौटे तो उन्हें [[आगरा]] शहर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। जब बादशाह मिला भी तो उसने रहीम की ओर ध्यान नहीं दिया। रहीम के पुत्रों - इरीज़ और दाराब को साम्राज्य की प्रशंसनीय सेवाओं के लिए उपाधियों एवं पारितोषकों से सम्मानित किया गया। दाराब को जागीर के रूप में ग़ाज़ीपुर प्रदान किया गया। इस विपत्ति में ख़ानख़ाना के मित्रों ने उनका साथ छोड़ दिया। काफ़ी समय वे चिन्तित अवस्था में दरबार में ही रहे। फिर कुछ दिनों के बाद आगरा प्रान्त में [[कालपी]] और [[कन्नौज]] की जागीर देकर वहाँ के उपद्रवों को शान्त करने के लिए भेजा गया। सन 1610 से 1612 तक ख़ानख़ाना कालपी में ही रहे।
ख़ानख़ाना ने जहाँगीर को मोतियों के दो हार, कई [[हीरा|हीरे]] एवं [[माणिक्य|माणिक]] भेंट किए, जिनका मूल्य तीन लाख रुपये था। इसके अतिरिक्त कई अन्य वस्तुएँ भी भेंट कीं। बादशाह जहाँगीर ने विशिष्ट घोड़े और 20 [[हाथी]] प्रदान करके उन्हें सम्मानित किया। ख़ानख़ाना तीन महीने तीन दिन दरबार में रहकर दो वर्ष में दक्षिण विजय का आश्वासन देकर यथेष्ट सहायता लेकर दक्षिण की ओर चले गए। ख़ानख़ाना घनघोर बरसात में [[शाहजहाँ|शहज़ादा ख़ुर्रम]] के साथ बुरहानपुर से बालाघाट की ओर बढ़ चले। परन्तु मुग़ल सरदारों के बीच असहमति के कारण उनकी युद्धनीति असफल हो गई। मलिक अम्बर ने सामने युद्ध न करके छापामार लड़ाई लड़ी। मुग़ल सेना की रसद सामग्री समाप्त होने लगी। हाथी–घोड़े मरने लगे। ख़ानख़ाना के मित्र भी उनके शत्रु हो गए। फलतः उन्हें मलिक अम्बर से जहाँगीर की प्रतिष्ठा के अनुकूल सन्धि करनी पड़ी।


दक्षिण में रहीम की स्थिति को समझते हुए जहाँगीर ने शहज़ादा ख़ुर्रम की शादी रहीम की नतिनी और शाहनवाज़ ख़ाँ की लड़की से 23 अगस्त, 1617 को करवा दी। ख़ानख़ाना से वैवाहिक सम्बन्धों, बादशाह की निकट ही उपस्थिति और शहज़ादे का विशाल सेना के साथ मुहाने पर होना आदि स्थितियों ने दक्षिण के शासकों को समझौते के लिए विवश कर दिया। आदिल शाह ने 15 लाख रुपए मूल्य के सामान और नक़दी के साथ हाथी आदि उपहार में भेजकर अधीनता स्वीकार कर ली। फिर इतना ही सामान और नक़दी कुतुब मलिक ने भी भेजकर अधीनता स्वीकार कर ली। अब मलिक अम्बर के पास कोई चारा न था। अन्ततः उसे भी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
इन सबसे बादशाह जहाँगीर बहुत ही नाराज़ हुआ। उसने ख़ान-ए-जहाँ लोदी को रहीम का उत्तराधिकारी बनाकर भेजा। साथ ही साथ उनके पुराने शत्रु महावत ख़ाँ को पराजित सेनापति को दरबार में लाने का काम सौंपा। महावत ख़ाँ के साथ जब ख़ानख़ाना लौटे तो उन्हें [[आगरा]] शहर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। जब बादशाह मिला भी तो उसने रहीम की ओर ध्यान नहीं दिया। रहीम के पुत्रों - इरीज़ और दाराब को साम्राज्य की प्रशंसनीय सेवाओं के लिए उपाधियों एवं पारितोषकों से सम्मानित किया गया। दाराब को जागीर के रूप में ग़ाज़ीपुर प्रदान किया गया। इस विपत्ति में ख़ानख़ाना के मित्रों ने उनका साथ छोड़ दिया। काफ़ी समय वे चिन्तित अवस्था में दरबार में ही रहे। फिर कुछ दिनों के बाद आगरा प्रान्त में [[कालपी]] और [[कन्नौज]] की जागीर देकर वहाँ के उपद्रवों को शान्त करने के लिए भेजा गया। सन् 1610 से 1612 तक ख़ानख़ाना कालपी में ही रहे।
==रहीम ख़ानख़ाना की गिरफ़्तारी==
दक्षिण के इस अभियान से संतुष्ट होकर शहज़ादा ख़ुर्रम ख़ानदेश, बरार और अहमदनगर की सूबेदारी ख़ानख़ाना को देकर अपने पिता से मिलने माण्डू चला गया। बादशाह ने ख़ुर्रम को '''शाहजहाँ''' की उपाधि दी तथा सिंहासन से उठकर उसका स्वागत किया। मलिक अम्बर अपनी आदत के अनुसार अधिक दिनों तक अधीन नहीं रह सकता था। उसने सन्धि तोड़ दी और मुग़ल थानेदारों पर हमला कर दिया। ये ख़ानख़ाना की विपत्ति के दिन थे। दामाद शाहनवाज़ ख़ाँ की अधिक मदिरापान के कारण मृत्यु हो गई और रहीम का पुत्र रहमान दाद भी चल बसा। दाराब को बालाघाट से बालपुर और वहाँ से सन 1620 में बुरहानपुर खदेड़ दिया गया। बुरहानपुर में दाराब और ख़ानख़ाना दोनों ही गिरफ़्तार कर लिए गए। फिर तभी मुक्त हुए जब शाहजहाँ वहाँ पर आया।


इस प्रकार सन 1620 से 1626 तक का समय रहीम के राजनैतिक जीवन का ह्रास काल रहा। सम्राट अकबर के शासन काल में उनकी गणना '''[[अकबर के नौ रत्न|अकबर के नौ रत्नों]]''' में होती थी। जहाँगीर के राजगद्दी पर बैठने पर रहीम ने अक्सर जहाँगीर की नीतियों का विरोध किया। इसके फलस्वरूप जहाँगीर की दृष्टि बदली और उन्हें क़ैद कर दिया। उनकी उपाधियाँ और पद ज़ब्त कर लिए गए। सन 1625 में रहीम ने दरबार में जहाँगीर के सामने उपस्थित होकर माफ़ी माँगी और वफ़ादारी का प्रण किया। बादशाह जहाँगीर ने न सिर्फ़ उन्हें माफ़ कर दिया बल्कि लाखों रुपये दिए, उपाधियाँ और पद लौटा दिए। जहाँगीर की इस कृपा से अभिभूत होकर रहीम ने अपनी क़ब्र के पत्थर पर यह दोहा खुदवाने की वसीयत की—
दक्षिण में रहीम की स्थिति को समझते हुए जहाँगीर ने शहज़ादा ख़ुर्रम की शादी रहीम की नतिनी और शाहनवाज़ ख़ाँ की लड़की से 23 अगस्त, 1617 को करवा दी। ख़ानख़ाना से वैवाहिक सम्बन्धों, बादशाह की निकट ही उपस्थिति और शहज़ादे का विशाल सेना के साथ मुहाने पर होना आदि स्थितियों ने दक्षिण के शासकों को समझौते के लिए विवश कर दिया। आदिल शाह ने 15 लाख रुपए मूल्य के सामान और नक़दी के साथ हाथी आदि उपहार में भेजकर अधीनता स्वीकार कर ली। फिर इतना ही सामान और नक़दी कुतुब मलिक ने भी भेजकर अधीनता स्वीकार कर ली। अब मलिक अम्बर के पास कोई चारा न था। अन्ततः उसे भी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
<poem>मरा लुत्फे जहाँगीर, जे हाई ढाते रब्बानी।
==साहित्यिक परिचय==
दो वारः जिन्दगी दाद, दो वारः खानखानी।।
[[भक्तिकाल]] हिन्दी साहित्य में रहीम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अरबी, फ़ारसी, संस्कृत, हिन्दी आदि का गहन अध्ययन किया। वे राजदरबार में अनेक पदों पर कार्य करते हुए भी साहित्य सेवा में लगे रहे। रहीम का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे स्मरण शक्ति, हाज़िर–जवाबी, काव्य और संगीत के मर्मज्ञ थे। वे युद्धवीर के साथ–साथ दानवीर भी थे। अकबर के दरबारी कवि गंग के दो छन्दों पर रीझकर इन्होंने 36 लाख रुपये दे दिए थे।  
अर्थात् ईश्वर की सहायता और जहाँगीर की दया से दो बार ज़िन्दगी और दो बार ख़ानख़ाना की उपाधि मिली।</poem>
रहीम ने अपनी कविताओं में अपने लिए 'रहीम' के बजाए 'रहिमन' का प्रयोग किया है। वे इतिहास और काव्य जगत में '''अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना''' के नाम से प्रसिद्ध हैं। रहीम [[मुसलमान]] होते हुए भी [[कृष्ण]] भक्त थे। उनके काव्य में नीति, भक्ति–प्रेम तथा श्रृंगार आदि के दोहों का समावेश है। साथ ही जीवन में आए विभिन्न मोड़ भी परिलक्षित होते हैं।  
==उपलब्धियाँ==
====रहीम की भाषा====
इनका जन्म जब ये कुल 5 वर्ष के ही थे, गुजरात के पाटन नगर में (1561 ई.) इनके पिता की हत्या कर दी गयी। इनका पालन-पोषण स्वयं अकबर की देख-रेख में हुआ। *इनकी कार्यक्षमता से प्रभावित होकर अकबर ने 1572 ई. में गुजरात की चढ़ाई के अवसर पर इन्हें पाटन की जागीर प्रदान की। अकबर के शासनकाल में उनकी निरन्तर पदोन्नति होती रही।
रहीम ने अपने अनुभवों को सरल और सहज शैली में मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की। उन्होंने [[ब्रजभाषा|ब्रज भाषा]], पूर्वी [[अवधी भाषा|अवधी]] और [[खड़ी बोली]] को अपनी काव्य भाषा बनाया। किन्तु ब्रज भाषा उनकी मुख्य शैली थी। गहरी से गहरी बात भी उन्होंने बड़ी सरलता से सीधी-सादी भाषा में कह दी। भाषा को सरल, सरस और मधुर बनाने के लिए तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग किया।  
*1576 ई. में गुजरात विजय के बाद इन्हें गुजरात की सूबेदारी मिली।
*रहीम [[अरबी भाषा|अरबी]], तुर्की, [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[संस्कृत]] और [[हिन्दी]] के अच्छे जानकार थे। हिन्दू-[[संस्कृति]] से ये भली-भाँति परिचित थे। इनकी नीतिपरक उक्तियों पर संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है।  
*1579 ई. में इन्हें 'मीर अर्जु' का पद प्रदान किया गया।
*कुल मिलाकर इनकी 11 रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनके प्राय: 300 [[दोहा|दोहे]] 'दोहावली' नाम से संग्रहीत हैं। मायाशंकर याज्ञिक का अनुमान था कि इन्होंने सतसई लिखी होगी किन्तु वह अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। दोहों में ही रचित इनकी एक स्वतन्त्र कृति 'नगर शोभा' है। इसमें 142 दोहे हैं। इसमें विभिन्न जातियों की स्त्रियों का श्रृंगारिक वर्णन है।
*1583 ई. में इन्होंने बड़ी योग्यता से गुजरात के उपद्रव का दमन किया।
*प्रसन्न होकर अकबर ने 1584 ई. में इन्हें' खानखाना' की उपाधि और पंचहज़ारी का मनसब प्रदान किया।
*1589 ई. में इन्हें 'वकील' की पदवी से सम्मानित किया गया।
*1604 ई. में शाहजादा दानियाल की मृत्यु और [[अबुलफ़ज़ल]] की हत्या के बाद इन्हें दक्षिण का पूरा अधिकार मिल गया। [[जहाँगीर]] के शासन के प्रारम्भिक दिनों में इन्हें पूर्ववत सम्मान मिलता रहा।
*1623 ई. में [[शाहजहाँ]] के विद्रोही होने पर इन्होंने जहाँगीर के विरुद्ध उनका साथ दिया।
*1625 ई. में इन्होंने क्षमा याचना कर ली और पुन: 'खानखाना' की उपाधि मिली।
*1626 ई. में 70 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हो गयी।     
==रहीम का साहित्यिक परिचय==
[[भक्तिकाल]] हिन्दी साहित्य में रहीम का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अरबी, फ़ारसी, संस्कृत, हिन्दी आदि का गहन अध्ययन किया। वे राजदरबार में अनेक पदों पर कार्य करते हुए भी साहित्य सेवा में लगे रहे। रहीम का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे स्मरण शक्ति, हाज़िर–जवाबी, काव्य और संगीत के मर्मज्ञ थे। वे युद्धवीर के साथ–साथ दानवीर भी थे। अकबर के दरबारी कवि गंग के दो छन्दों पर रीझकर इन्होंने 36 लाख रुपये दे दिए थे।  
 
रहीम ने अपनी कविताओं में अपने लिए 'रहीम' के बजाए 'रहिमन' का प्रयोग किया है। वे इतिहास और काव्य जगत में '''अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना''' के नाम से प्रसिद्ध हैं। रहीम मुसलमान होते हुए भी [[कृष्ण]] भक्त थे। उनके काव्य में नीति, भक्ति–प्रेम तथा श्रृंगार आदि के दोहों का समावेश है। साथ ही जीवन में आए विभिन्न मोड़ भी परिलक्षित होते हैं।  
==रहीम की भाषा==
रहीम ने अपने अनुभवों को सरल और सहज शैली में मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की। उन्होंने [[ब्रजभाषा|ब्रज भाषा]], पूर्वी [[अवधी भाषा|अवधी]] और खड़ी बोली को अपनी काव्य भाषा बनाया। किन्तु ब्रज भाषा उनकी मुख्य शैली थी। गहरी से गहरी बात भी उन्होंने बड़ी सरलता से सीधी–सादी भाषा में कह दी। भाषा को सरल, सरस और मधुर बनाने के लिए तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग किया।  
*रहीम अरबी, तुर्की, [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[संस्कृत]] और हिन्दी के अच्छे जानकार थे। हिन्दू-[[संस्कृति]] से ये भली-भाँति परिचित थे। इनकी नीतिपरक उक्तियों पर संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है।  
*कुल मिलाकर इनकी 11 रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनके प्राय: 300 दोहे 'दोहावली' नाम से संगृहीत हैं। मायाशंकर याज्ञिक का अनुमान था कि इन्होंने सतसई लिखी होगी किन्तु वह अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। दोहों में ही रचित इनकी एक स्वतन्त्र कृति 'नगर शोभा' है। इसमें 142 दोहे हैं। इसमें विभिन्न जातियों की स्त्रियों का श्रृंगारिक वर्णन है।
*रहीम अपने बरवै छन्द के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका 'बरवै है। इनका 'बरवै नायिका भेद' [[अवधी भाषा]] में नायिका-भेद का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इसमें भिन्न-भिन्न नायिकाओं के केवल उदाहरण दिये गये हैं। मायाशंकर याज्ञिक ने काशीराज पुस्तकालय और कृष्णबिहारी मिश्र पुस्तकालय की हस्त लिखित प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया है। रहीम ने बरवै छन्दों में [[गोपी]]-विरह वर्णन भी किया है।  
*रहीम अपने बरवै छन्द के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका 'बरवै है। इनका 'बरवै नायिका भेद' [[अवधी भाषा]] में नायिका-भेद का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इसमें भिन्न-भिन्न नायिकाओं के केवल उदाहरण दिये गये हैं। मायाशंकर याज्ञिक ने काशीराज पुस्तकालय और कृष्णबिहारी मिश्र पुस्तकालय की हस्त लिखित प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया है। रहीम ने बरवै छन्दों में [[गोपी]]-विरह वर्णन भी किया है।  
*मेवात से इनकी एक रचना 'बरवै' नाम की इसी विषय पर रचित प्राप्त हुई है। यह एक स्वतन्त्र कृति है और इसमें 101 बरवै छन्द हैं। रहीम के [[श्रृंगार रस]] के 6 सोरठे प्राप्त हुए हैं। इनके 'श्रृंगार सोरठ' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है किन्तु अभी यह प्राप्त नहीं हो सका है।   
*मेवात से इनकी एक रचना 'बरवै' नाम की इसी विषय पर रचित प्राप्त हुई है। यह एक स्वतन्त्र कृति है और इसमें 101 बरवै छन्द हैं। रहीम के श्रृंगार रस के 6 सोरठे प्राप्त हुए हैं। इनके 'श्रृंगार सोरठ' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है किन्तु अभी यह प्राप्त नहीं हो सका है।   
*रहीम की एक कृति संस्कृत और हिन्दी खड़ी बोली की मिश्रित शैली में रचित 'मदनाष्टक' नाम से मिलती है। इसका वर्ण्य-विषय [[कृष्ण]] की [[रासलीला]] है और इसमें मालिनी छन्द का प्रयोग किया गया है। इसके कई पाठ प्रकाशित हुए हैं। 'सम्मेलन पत्रिका' में प्रकाशित पाठ अधिक प्रामणिक माना जाता है। इनके कुछ भक्ति विषयक स्फुट संस्कृत श्लोक 'रहीम काव्य' या 'संस्कृत काव्य' नाम से प्रसिद्ध हैं। कवि ने संस्कृत श्लोकों का भाव छप्पय और दोहा में भी अनूदित कर दिया है।   
*रहीम की एक कृति संस्कृत और हिन्दी खड़ी बोली की मिश्रित शैली में रचित '[[मदनाष्टक]]' नाम से मिलती है। इसका वर्ण्य-विषय [[कृष्ण]] की [[रासलीला]] है और इसमें [[मालिनी छन्द]] का प्रयोग किया गया है। इसके कई पाठ प्रकाशित हुए हैं। 'सम्मेलन पत्रिका' में प्रकाशित पाठ अधिक प्रामणिक माना जाता है। इनके कुछ भक्ति विषयक स्फुट संस्कृत श्लोक 'रहीम काव्य' या 'संस्कृत काव्य' नाम से प्रसिद्ध हैं। कवि ने संस्कृत श्लोकों का भाव छप्पय और दोहा में भी अनूदित कर दिया है।   
*कुछ श्लोकों में संस्कृत के साथ हिन्दी भाषा का प्रयोग हुआ है। रहीम बहुज्ञ थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। इनका संस्कृत, फ़ारसी और हिन्दी मिश्रित भाषा में' खेट कौतुक जातकम्' नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ भी मिलता है किन्तु यह रचना प्राप्त नहीं हो सकी है। 'भक्तमाल' में इस विषय के इनके दो पद उद्धृत हैं। विद्वानों का अनुमान है कि ये पद 'रासपंचाध्यायी' के अंश हो सकते हैं।  
*कुछ श्लोकों में [[संस्कृत]] के साथ हिन्दी भाषा का प्रयोग हुआ है। रहीम बहुज्ञ थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। इनका संस्कृत, फ़ारसी और हिन्दी मिश्रित भाषा में' खेट कौतुक जातकम्' नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ भी मिलता है किन्तु यह रचना प्राप्त नहीं हो सकी है। 'भक्तमाल' में इस विषय के इनके दो पद उद्धृत हैं। विद्वानों का अनुमान है कि ये पद 'रासपंचाध्यायी' के अंश हो सकते हैं।  
*रहीम ने 'वाकेआत बाबरी' नाम से बाबर लिखित आत्मचरित का तुर्की से फ़ारसी में भी अनुवाद किया था। इनका एक 'फ़ारसी दीवान' भी मिलता है।
*रहीम ने 'वाकेआत बाबरी' नाम से बाबर लिखित आत्मचरित का तुर्की से फ़ारसी में भी अनुवाद किया था। इनका एक 'फ़ारसी दीवान' भी मिलता है।
*रहीम के काव्य का मुख्य विषय श्रृंगार, नीति और भक्ति है। इनकी [[विष्णु]] और [[गंगा नदी|गंगा]] सम्बन्धी भक्ति-भावमयी रचनाएँ वैष्णव-[[भक्तिकाल|भक्ति आन्दोलन]] से प्रभावित होकर लिखी गयी हैं। नीति और श्रृंगारपरक रचनाएँ दरबारी वातावरण के अनुकूल हैं। रहीम की ख्याति इन्हीं रचनाओं के कारण है। [[बिहारी लाल]] और [[मतिराम]] जैसे समर्थ कवियों ने रहीम की श्रृंगारिक उक्तियों से प्रभाव ग्रहण किया है। व्यास, वृन्द और रसनिधि आदि कवियों के नीति विषयक दोहे रहीम से प्रभावित होकर लिखे गये हैं। रहीम का [[ब्रजभाषा]] और [[अवधी भाषा|अवधी]] दोनों पर समान अधिकार था। उनके बरवै अत्यन्त मोहक प्रसिद्ध है कि [[तुलसीदास]] को 'बरवै रामायण' लिखने की प्रेरणा रहीम से ही मिली थी। 'बरवै' के अतिरिक्त इन्होंने [[दोहा]], [[सोरठा]], [[कवित्त]], [[सवैया]], [[मालिनी]] आदि कई छन्दों का प्रयोग किया है।
*रहीम के काव्य का मुख्य विषय श्रृंगार, नीति और भक्ति है। इनकी [[विष्णु]] और [[गंगा नदी|गंगा]] सम्बन्धी भक्ति-भावमयी रचनाएँ वैष्णव-[[भक्तिकाल|भक्ति आन्दोलन]] से प्रभावित होकर लिखी गयी हैं। नीति और श्रृंगारपरक रचनाएँ दरबारी वातावरण के अनुकूल हैं। रहीम की ख्याति इन्हीं रचनाओं के कारण है। [[बिहारी लाल]] और [[मतिराम]] जैसे समर्थ कवियों ने रहीम की श्रृंगारिक उक्तियों से प्रभाव ग्रहण किया है। व्यास, वृन्द और रसनिधि आदि कवियों के नीति विषयक दोहे रहीम से प्रभावित होकर लिखे गये हैं। रहीम का [[ब्रजभाषा]] और [[अवधी भाषा|अवधी]] दोनों पर समान अधिकार था। उनके बरवै अत्यन्त मोहक प्रसिद्ध है कि [[तुलसीदास]] को '[[बरवै रामायण]]' लिखने की प्रेरणा रहीम से ही मिली थी। 'बरवै' के अतिरिक्त इन्होंने [[दोहा]], [[सोरठा]], कवित्त, [[सवैया]], [[मालिनी छन्द|मालिनी]] आदि कई छन्दों का प्रयोग किया है।
 
==रचनाएँ==
==रहीम की रचनाएँ==
[[चित्र:Khan-I-Khanan-Tomb-Delhi-5.jpg|thumb|250px|[[ख़ान ए ख़ाना मक़बरा]], [[दिल्ली]]]]
रहीम अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने तुर्की भाषा के एक ग्रन्थ 'वाक़यात बाबरी' का फ़ारसी में अनुवाद किया। फ़ारसी में अनेक कविताएँ लिखीं। 'खेट कौतूक जातकम्' नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें फ़ारसी और संस्कृत शब्दों का अनूठा मेल था। इनका काव्य इनके सहज उद्गारों की अभिव्यक्ति है। इन उद्गारों में इनका दीर्घकालीन अनुभव निहित है। ये सच्चे और संवेदनशील हृदय के व्यक्ति थे। जीवन में आने वाली कटु-मधुर परिस्थितियों ने इनके हृदय-पट पर जो बहुविध अनुभूति रेखाएँ अंकित कर दी थी, उन्हीं के अकृत्रिम अंकन में इनके काव्य की रमणीयता का रहस्य निहित है। इनके 'बरवै नायिका भेद' में काव्य रीति का पालन ही नहीं हुआ है, वरन उसके माध्यम से भारतीय गार्हस्थ्य-जीवन के लुभावने चित्र भी सामने आये हैं। मार्मिक होने के कारण ही इनकी उक्तियाँ सर्वसाधारण में विशेष रूप से प्रचलित हैं।
रहीम अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने तुर्की भाषा के एक ग्रन्थ 'वाक़यात बाबरी' का फ़ारसी में अनुवाद किया। फ़ारसी में अनेक कविताएँ लिखीं। 'खेट कौतूक जातकम्' नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें फ़ारसी और संस्कृत शब्दों का अनूठा मेल था। इनका काव्य इनके सहज उद्गारों की अभिव्यक्ति है। इन उद्गारों में इनका दीर्घकालीन अनुभव निहित है। ये सच्चे और संवेदनशील हृदय के व्यक्ति थे। जीवन में आने वाली कटु-मधुर परिस्थितियों ने इनके हृदय-पट पर जो बहुविध अनुभूति रेखाएँ अंकित कर दी थी, उन्हीं के अकृत्रिम अंकन में इनके काव्य की रमणीयता का रहस्य निहित है। इनके 'बरवै नायिका भेद' में काव्य रीति का पालन ही नहीं हुआ है, वरन् उसके माध्यम से भारतीय गार्हस्थ्य-जीवन के लुभावने चित्र भी सामने आये हैं। मार्मिक होने के कारण ही इनकी उक्तियाँ सर्वसाधारण में विशेष रूप से प्रचलित हैं।
रहीम-काव्य के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें-  
रहीम-काव्य के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें-  
#रहीम रत्नावली (सं. मायाशंकर याज्ञिक-1928 ई.) और  
#रहीम रत्नावली (सं. मायाशंकर याज्ञिक-1928 ई.) और  
पंक्ति 155: पंक्ति 149:
#रहिमन विनोद (हि. सा. सम्मे.),  
#रहिमन विनोद (हि. सा. सम्मे.),  
#रहीम 'कवितावली (सुरेन्द्रनाथ तिवारी),  
#रहीम 'कवितावली (सुरेन्द्रनाथ तिवारी),  
#रहीम' (रामनरेश त्रिपाठी),  
#रहीम' ([[रामनरेश त्रिपाठी]]),  
#रहिमन चंद्रिका (रामनाथ सुमन),  
#रहिमन चंद्रिका (रामनाथ सुमन),  
#रहिमन शतक (लाला भगवानदीन) आदि संग्रह भी उपयोगी हैं।
#रहिमन शतक ([[लाला भगवानदीन]]) आदि संग्रह भी उपयोगी हैं।
==रहीम के दोहे==
====रहीम के दोहे====
<poem>रहिमन धागा प्रेम का मत तोडों छिटकाय।
*रहिमन धागा प्रेम का मत तोडों छिटकाय।
टूटे तो फिर ना मिले मिले गांठ पड ज़ाए।।<ref>{{cite web |url=http://vijaymishraa.blogspot.com/2009/09/blog-post_07.html |title=अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना  |accessmonthday=18 जुलाई |accessyear=2010 |last=मिश्रा|first=विजय |authorlink=http://www.blogger.com/profile/05027345830454340473 |format=एच टी एम एल |publisher=मेरी दुनियाँ (विजय मिश्रा) |language=हिन्दी }}</ref></poem>
टूटे तो फिर ना मिले मिले गांठ पड ज़ाए।।<ref>{{cite web |url=http://vijaymishraa.blogspot.com/2009/09/blog-post_07.html |title=अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना  |accessmonthday=18 जुलाई |accessyear=2010 |last=मिश्रा|first=विजय |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=मेरी दुनिया |language=[[हिन्दी]] }}</ref><br />
*रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग।<br />
*रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग।<br />
ज्यों सरितन सूख परे, कुआं खनावत लोग।।<br /> कविवर रहीम कहते हैं कि यदि कोई दानी मनुष्य दरिद्र भी हो तो भी उससे याचना करना बुरा नहीं है क्योंकि वह तब भी उनके पास कुछ न कुछ रहता ही है। जैसे नदी सूख जाती है तो लोग उसके अंदर कुएं खोदकर उसमें से पानी निकालते हैं।
ज्यों सरितन सूख परे, कुआं खनावत लोग।।<br />  
कविवर रहीम कहते हैं कि यदि कोई दानी मनुष्य दरिद्र भी हो तो भी उससे याचना करना बुरा नहीं है क्योंकि वह तब भी उनके पास कुछ न कुछ रहता ही है। जैसे नदी सूख जाती है तो लोग उसके अंदर कुएं खोदकर उसमें से पानी निकालते हैं।
*रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।<br />
*रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।<br />
जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवारि।।<br /> कविवर रहीम के अनुसार बड़े लोगों की संगत में छोटों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि विपत्ति के समय उनकी भी सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है। जिस तरह तलवार के होने पर सुई की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि जहां वह काम कर सकती है तलवार वहां लाचार होती है।
जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवारि।।<br />  
<poem>*एकै साधे सब सधैं, सब साधे सब जाय  ।
कविवर रहीम के अनुसार बड़े लोगों की संगत में छोटों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि विपत्ति के समय उनकी भी सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है। जिस तरह तलवार के होने पर सुई की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि जहां वह काम कर सकती है तलवार वहां लाचार होती है।
रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलै फलै अघाय ।।
*एकै साधे सब सधैं, सब साधे सब जाय।<br />
*कह रहीम कैसे निभे, बेर केर का संग ।
रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलै फलै अघाय।।
यै डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ।।
*कह रहीम कैसे निभे, बेर केर का संग।<br />
*खीरा सिर ते काटिए, मलियत लौन लगाय ।
यै डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ।।
*खीरा सिर ते काटिए, मलियत लौन लगाय।<br />
*छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात ।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय।।
का रहीम हरि को घटयौ, जो भृगु मारी लात ।।
*छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात। <br />
</poem>
का रहीम हरि को घटयौ, जो भृगु मारी लात।।<br />
रहीम एक सहृदय स्वाभिमानी, उदार, विनम्र, दानशील, विवेकी, वीर और व्युत्पन्न व्यक्ति थे। ये गुणियों का आदर करते थे। इनकी दानशीलता की अनेक कथाएं प्रचलित है। इनके व्यक्तित्व से अकबरी दरबार गौरवान्वित हुआ था और इनके काव्य से हिन्दी समृद्ध हुई है।
रहीम एक सहृदय स्वाभिमानी, उदार, विनम्र, दानशील, विवेकी, वीर और व्युत्पन्न व्यक्ति थे। ये गुणियों का आदर करते थे। इनकी दानशीलता की अनेक कथाएं प्रचलित है। इनके व्यक्तित्व से अकबरी दरबार गौरवान्वित हुआ था और इनके काव्य से हिन्दी समृद्ध हुई है।
==विशेष बिंदु==
*जब ये कुल 5 [[वर्ष]] के ही थे, [[गुजरात]] के [[पाटन|पाटन नगर]] में (1561 ई.) इनके [[पिता]] की हत्या कर दी गयी। इनका पालन-पोषण स्वयं [[अकबर]] की देख-रेख में हुआ।
*इनकी कार्यक्षमता से प्रभावित होकर अकबर ने 1572 ई. में गुजरात की चढ़ाई के अवसर पर इन्हें पाटन की जागीर प्रदान की। अकबर के शासनकाल में उनकी निरन्तर पदोन्नति होती रही।
*1576 ई. में गुजरात विजय के बाद इन्हें गुजरात की सूबेदारी मिली।
*1579 ई. में इन्हें 'मीर अर्जु' का पद प्रदान किया गया।
*1583 ई. में इन्होंने बड़ी योग्यता से गुजरात के उपद्रव का दमन किया।
*प्रसन्न होकर अकबर ने 1584 ई. में इन्हें' ख़ानख़ाना' की उपाधि और पंचहज़ारी का [[मनसब]] प्रदान किया।
*1589 ई. में इन्हें 'वकील' की पदवी से सम्मानित किया गया।
*1604 ई. में [[शहज़ादा दानियाल]] की मृत्यु और [[अबुलफ़ज़ल]] की हत्या के बाद इन्हें [[दक्षिण भारत|दक्षिण]] का पूरा अधिकार मिल गया। [[जहाँगीर]] के शासन के प्रारम्भिक दिनों में इन्हें पूर्ववत सम्मान मिलता रहा।
*1623 ई. में [[शाहजहाँ]] के विद्रोही होने पर इन्होंने जहाँगीर के विरुद्ध उनका साथ दिया।
*1625 ई. में इन्होंने क्षमा याचना कर ली और पुन: 'ख़ानख़ाना' की उपाधि मिली।
*1626 ई. में 70 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हो गयी।
==ख़ान ए ख़ाना मक़बरा==
{{main|ख़ान ए ख़ाना मक़बरा}}
*ख़ान ए ख़ाना के नाम से प्रसिद्ध यह मक़बरा अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना का है, जो [[मुग़ल]] बादशाह [[अकबर]] एवं [[जहाँगीर]] के शासनकाल के प्रतिभाशाली एवं प्रसिद्ध दरबारी थे।
*ख़ान ए ख़ाना मक़बरे का निर्माण अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना के द्वारा अपनी बेगम की याद में करवाया गया था, जिनकी मृत्यु 1598 ई. में हो गयी थी। बाद में स्वयं अब्दुर रहीम को 1627 ई. में उनके मृत्यु के पश्चात् इसी मक़बरे में दफनाया गया।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==                                                       
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==                                                       
<references/>  
<references/>  
सहायक ग्रन्थ-
सहायक ग्रन्थ-
#अकबरी दरबार के हिन्दी कवि: डा. सरयूप्रसाद अग्रवाल;  
#अकबरी दरबार के हिन्दी कवि: डॉ. सरयूप्रसाद अग्रवाल;  
#रहिमन विलास : ब्रजरत्नदास;  
#रहिमन विलास : ब्रजरत्नदास;  
#रहीम रत्नावली : मायाशंकर याज्ञिक।
#रहीम रत्नावली : मायाशंकर याज्ञिक।
 
==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी लिंक==
*[http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/rahim.htm अब्दुर्रहीम ख़ान खाना - संक्षिप्त परिचय]
{{cite web|url=http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/rahim.htm|title=अब्दुर्रहीम खान खाना - संक्षिप्त परिचय|accessmonthday=1अगस्त|accessyear=2010|authorlink=tdil.mit.gov.in|format=html |publisher=tdil.mit.gov.in|language=हिंदी}}
*[http://books.google.co.in/books?id=BfYWgO-dnn0C&pg=PA274&lpg=PA274&dq=%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%AE+%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE&source=bl&ots=UdffbpjOMN&sig=FCKTePig6rajkYKFgYotWkVlkUo&hl=hi&ei=_dZBTI7jCYjSuwOOs6iNDQ&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=4&ved=0CBoQ6AEwAzgK#v=onepage&q=%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%AE%20%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE&f=false अवधी कवि अब्दुर्रहीम ख़ान खाना]
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*[http://www.brandbihar.com/hindi/literature/kavya/raheem.html हिन्दी के कवि रहीम]
{{cite web|url=http://www.brandbihar.com/hindi/literature/kavya/raheem.html|title=हिन्दी के कवि रहीम|accessmonthday=1अगस्त|accessyear=2010|authorlink=.brandbihar.com|format=html |publisher=.brandbihar.com|language=हिंदी}}
*[http://hindinest.com/bhaktikal/02227.htm अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना]
{{cite web|url=http://hindinest.com/bhaktikal/02227.htm|title=अब्दुर्रहीम खानखाना|accessmonthday=1अगस्त|accessyear=2010|authorlink=. मनीषा कुलश्रेष्ठ|format=html |publisher=hindinest.com|language=हिंदी}}
*[http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%AE रहीम]
{{cite web|url=http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%AE|title=रहीम
*[http://www.hindikunj.com/2009/10/rahim-dohe.html रहीम दोहे]
|accessmonthday=1अगस्त|accessyear=2010|authorlink=kavitakosh.org|format=html |publisher=kavitakosh.org|language=हिंदी}}
*[http://www.bharatdarshan.co.nz/hindi/index.php?page=Raheem रहीम के दोहे]
{{cite web|url=http://www.hindikunj.com/2009/10/rahim-dohe.html|title=रहीम दोहे
|accessmonthday=1अगस्त|accessyear=2010|authorlink=hindikunj.com|format=html |publisher=hindikunj.com|language=हिंदी}}
{{cite web|url=http://www.bharatdarshan.co.nz/hindi/index.php?page=Raheem|title=रहीम के दोहे - Raheem Ke Dohe
|accessmonthday=1अगस्त|accessyear=2010|authorlink=bharatdarshan.co.nz|format=html |publisher=bharatdarshan.co.nz|language=हिंदी}}
{{cite web|url=http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%AE|title=रहीम
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रहीम विषय सूची
रहीम
पूरा नाम अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना
जन्म 17 दिसम्बर 1556 ई.
जन्म भूमि लाहौर
मृत्यु 1627 ई. (उम्र- 70)
अभिभावक बैरम ख़ाँ
पति/पत्नी माहबानू बेगम
संतान शाहनवाज़, दाराब, रहमानदाद
कर्म भूमि दिल्ली
कर्म-क्षेत्र कवि
मुख्य रचनाएँ रहीम रत्नावली, रहीम विलास, रहिमन विनोद, रहीम 'कवितावली, रहिमन चंद्रिका, रहिमन शतक
विषय श्रृंगार, नीति और भक्ति
भाषा अरबी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत और हिन्दी
पुरस्कार-उपाधि ख़ानख़ानाँ
प्रसिद्धि अकबर के नवरत्नों में से एक
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
रहीम की रचनाएँ

रहीम अथवा अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना अथवा अब्दुर्रहीम ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Rahim अथवा Abdul Rahim Khan-e-Khana) (‌जन्म- 17 दिसम्बर, 1556; मृत्यु- 1627) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। अकबर के दरबार में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे। गुजरात के युद्ध में शौर्य प्रदर्शन के कारण अकबर ने इन्हें 'ख़ानखाना' की उपाधि दी थी। रहीम अरबी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत और हिन्दी के अच्छे ज्ञाता थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। रहीम की ग्यारह रचनाएं प्रसिद्ध हैं। इनके काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार, नीति और भक्ति के भाव मिलते हैं। 70 वर्ष की उम्र में 1626 ई. में रहीम का देहांत हो गया।

जीवन परिचय

अब्दुर्रहीम ख़ाँ, ख़ानख़ाना मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि थे। अकबरी दरबार के हिन्दी कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे। केशव, आसकरन, मण्डन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। ये अकबर के अभिभावक बैरम ख़ाँ के पुत्र थे। अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना का जन्म 17 दिसम्बर, 1556 ई. (माघ, कृष्ण पक्ष, गुरुवार) को सम्राट अकबर के प्रसिद्ध अभिभावक बैरम ख़ाँ (60 वर्ष) के यहाँ लाहौर में हुआ था। उस समय रहीम के पिता बैरम ख़ाँ पानीपत के दूसरे युद्ध में हेमू को हराकर बाबर के साम्राज्य की पुनर्स्थापना कर रहे थे। बैरम ख़ाँ, अमीर अली शूकर बेग़ के वंश में से थे। जबकि उनकी माँ सुलताना बेगम मेवाती जमाल ख़ाँ की दूसरी पत्नी थीं। कविता करना बैरम ख़ाँ के वंश की ख़ानदानी परम्परा थी। बाबर की सेना में भर्ती होकर रहीम के पिता बैरम ख़ाँ अपनी स्वामी भक्ति और वीरता से हुमायूँ के विश्वासपात्र बन गए थे।

हुमायूँ की मृत्यु के बाद बैरम ख़ाँ ने 14 साल के शहज़ादे अकबर को राजगद्दी पर बैठा दिया और ख़ुद उसका संरक्षक बनकर मुग़ल साम्राज्य को स्थापित किया था। लेकिन वर्दी ख़ानख़ाना के प्राणदण्ड, दरबारियों की ईर्ष्या, अकबर की माता हमीदा बानो और धाय माहम अनगा की दुरभि सन्धि एवं बाबर की बेटी गुलरुख़ बेगम की लड़की सईदा बेगम से शादी तथा अमीरों के सामने अकबर के रूप में उपस्थित होने के विकल्प ने बैरम ख़ाँ को सन् 1560 में अकबर के पूर्ण राज्य ग्रहण करने से धीरे–धीरे विद्रोही बना दिया था।

पिता बैरम ख़ाँ की हत्या

आख़िरकार हारकर अकबर के कहने पर बैरम ख़ाँ हज के लिए चल पड़े। वह गुजरात में पाटन के प्रसिद्ध सहस्रलिंग तालाब में नौका विहार या नहाकर जैसे ही निकले, तभी उनके एक पुराने विरोधी - अफ़ग़ान सरदार मुबारक ख़ाँ ने धोखे से उनकी पीठ में छुरा भोंककर उनका वध कर डाला। कुछ भिखारी लाश उठाकर फ़क़ीर हुसामुद्दीन के मक़बरे में ले गए और वहीं पर बैरम ख़ाँ को दफ़ना दिया गया। 'मआसरे रहीमी' ग्रंथ में मृत्यु का कारण शेरशाह के पुत्र सलीम शाह की कश्मीरी बीवी से हुई लड़की को माना गया है, जो हज के लिए बैरम ख़ाँ के साथ जा रही थी। इससे अफ़ग़ानियों को अपनी बेहज़्ज़ती महसूस हुई और उन्होंने हमला करके बैरम ख़ाँ को समाप्त कर दिया।

लेकिन यह सम्भव नहीं लगता, क्योंकि ऐसा होने पर तो रहीम के लिए भी ख़तरा बढ़ जाता। उस वक़्त पूर्ववर्ती शासक वंश के उत्तराधिकारी को समाप्त कर दिया जाता था। वह अफ़ग़ानी मुबारक ख़ाँ मात्र बैरम ख़ाँ का वध कर ही नहीं रुका, बल्कि डेरे पर आक्रमण करके लूटमार भी करने लगा। तब स्वामीभक्त बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीर 'दीवाना' चार वर्षीय रहीम को लेकर किसी तरह अफ़ग़ान लुटेरों से बचते हुए अहमदाबाद जा पहुँचे। चार महीने वहाँ रहकर फिर वे आगरा की तरफ़ चल पड़े। अकबर को जब अपने संरक्षक की हत्या की ख़बर मिली तो उसने रहीम और परिवार की हिफ़ाज़त के लिए कुछ लोगों को इस आदेश के साथ वहाँ भेजा कि उन्हें दरबार में ले आएँ।

रहीम को अकबर का संरक्षण

बादशाह अकबर का यह आदेश बैरम ख़ाँ के परिवार को जालौर में मिला, जिससे कुछ आशा बंधी। रहीम और उनकी माता परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सन् 1562 में राजदरबार में पहुँचे। अकबर ने बैरम ख़ाँ के कुछ दुश्मन दरबारियों के विरोध के बावजूद बालक रहीम को बुद्धिमान समझकर उसके लालन–पालन का दायित्व स्वयं ग्रहण कर लिया। अकबर ने रहीम का पालन–पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा शह­ज़ादों की तरह शुरू करवाई, जिससे दस–बारह साल की उम्र में ही रहीम का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा। अकबर ने शहज़ादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि मिर्ज़ा ख़ाँ से रहीम को सम्बोधित करना शुरू किया।

अकबर रहीम से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ ही रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे, जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में 'मिर्ज़ा ख़ाँ' अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं फ़ारसी भाषा सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित, तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ - बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी माँ थीं। वह भी कविता करती थीं।

रहीम शिया और सुन्नी के विचार–विरोध से शुरू से आज़ाद थे। इनके पिता तुर्कमान शिया थे और माता सुन्नी। इसके अलावा रहीम को छह साल की उम्र से ही अकबर जैसे उदार विचारों वाले व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इन सभी ने मिलकर रहीम में अद्भुत विकास की शक्ति उत्पन्न कर दी। किशोरावस्था में ही वे यह समझ गए कि उन्हें अपना विकास अपनी मेहनत, सूझबूझ और शौर्य से करना है। रहीम को अकबर का संरक्षण ही नहीं, बल्कि प्यार भी मिला। रहीम भी उनके हुक़्म का पालन करते थे, इसलिए विकास का रास्ता खुल गया। अकबर ने रहीम से अंग्रेज़ी और फ्रेंच भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करने को कहा। अकबर के दरबार में संस्कृत के कई विद्वान् थे; बदाऊंनी ख़ुद उनमें से एक था।

विवाह

रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' की कार्यकुशलता, लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उनको शासक वंश से सीधे सम्बद्ध करने का फ़ैसला किया, क्योंकि ऐसा करके ही रहीम के दुश्मनों का मुँह बन्द किया जा सकता था और उन्हें अन्तःपुर की राजनीति से बचाया जा सकता था। अकबर ने अपनी धाय माहम अनगा की पुत्री और अज़ीज़ कोका की बहन 'माहबानो' से रहीम का निकाह करा दिया। रहीम का विवाह लगभग सोलह साल की उम्र में कर दिया गया था। माहबानो से रहीम के तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। पुत्रों का नाम इरीज़, दाराब और करन अकबर के द्वारा ही रखा गया था। पुत्री जाना बेगम की शादी शहज़ादा दानियाल से सन् 1599 में और दूसरी पुत्री की शादी मीर अमीनुद्दीन से हुई। रहीम को सौधा जाति की एक लड़की से रहमान दाद नामक एक पुत्र हुआ और एक नौकरानी से मिर्ज़ा अमरुल्ला हुए। एक पुत्र हैदर क़ुली हैदरी की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी।

रहीम का भाग्योदय

रहीम

रहीम के भाग्य का उत्कर्ष सन् 1573 से शुरू होता है। जो अकबर के समय सन् 1605 तक चलता रहा। इसी बीच बादशाह अकबर एक बार रहीम से नाराज़ भी हो गए, लेकिन ज़्यादा दिनों तक यह नाराज़गी नहीं रह सकी। सन् 1572 में जब अकबर पहली बार गुजरात विजय के लिए गया तो 16 वर्षीय रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' उसके साथ ही थे। ख़ान आज़म को गुजरात का सूबेदार नियुक्त करके बादशाह अकबर लौट आए। लेकिन उसके लौटते ही ख़ान आज़म को गुजराती परेशान करने लगे। उसे चारों ओर से नगर में घेर लिया गया। यह समाचार पाकर बादशाह अकबर सन् 1573 में 11 दिनों में ही साबरमती नदी के किनारे पहुँच गया। रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' को अकबर के नेतृत्व में मध्य कमान का कार्यभार सौंपा गया। मिर्ज़ा ख़ाँ ने बड़ी बहादुरी से युद्ध करके दुश्मन को परास्त किया। यह उनका पहला युद्ध था।

अकबर के साथ ही रहीम लौट आए। कुछ वक़्त बाद मिर्ज़ा ख़ाँ को राणा प्रताप, जो उन दिनों दक्षिणी पहाड़ियों के दुर्गम जंगल में थे, से लड़ने के लिए राजा मानसिंह और भगवान दास के साथ भेजा गया। आंशिक सफलता के बाद भी जब राणा प्रताप अपराजित रहे तो शाहवाज़ ख़ाँ के नेतृत्व में पुनः सेना भेजी गई। इसमें भी रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' शामिल थे जिन्होंने 4 अप्रैल, 1578 को दोबारा आक्रमण किया। अभी तक रहीम प्रसिद्ध सेनानायकों के नेतृत्व में युद्ध का अनुभव प्राप्त कर रहे थे।

रहीम मिर्ज़ा ख़ाँ को ज़िम्मेदारी का पहला स्वतंत्र पद सन् 1580 में प्राप्त हुआ। फिर अकबर ने उन्हें मीर अर्ज़ के पद पर नियुक्त किया। इसके बाद सन् 1583 में उन्हें शहज़ादा सलीम का अतालीक़ (शिक्षक) बना दिया गया। रहीम को इसे नियुक्ति से बहुत खुशी हासिल हुई। उन्होंने इस उपलक्ष्य में लोगों को एक शानदार दावत दी, जिसमें ख़ुद बादशाह अकबर भी मौजूद था। मिर्ज़ा ख़ाँ और उनकी पत्नी माहबानो को बादशाह ने उपहारों से सम्मानित किया।

रहीम अभी इस दायित्व का निर्वाह कर ही रहे थे कि उन्हें ख़बर मिली कि आगरे के क़िले से भागे हुए क़ैदी मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने काठियों आदि के साथ मिलकर फिर सेना तैयार करनी शुरू कर दी है। बैरम ख़ाँ का दुश्मन शहाबुद्दीन उस वक़्त गुजरात का सूबेदार था। वह अकबर का हुक्म नहीं मान रहा था। अकबर को इस बात का शक था कि वह विश्वासघात कर रहा है।

गुजरात की सूबेदारी

अकबर के शासनकाल में सन् 1580 से सन् 1583 तक कठिन समय था, क्योंकि उसके दरबार के अमीर उसके ख़िलाफ़ साज़िश रच रहे थे और दक्षिण में स्थिति विपरीत थी। ऐसे वक़्त में अकबर ने रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' को गुजरात की सूबेदारी देकर दुश्मन को पराजित करने के लिए भेजा। उधर मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने एतमाद ख़ाँ को हराकर अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया था। साथ ही प्राप्त ख़ज़ाने से 40,000 सेना खड़ी कर ली थी।

बादशाह अकबर ने 22 सितंबर, 1583 को फ़तेहपुर सीकरी के राजपूतों और बाड़ा के सैयदों तथा पठान सैनिकों के साथ रहीम को विदा किया। रहीम इन बहादुर सैनिकों सहित द्रुतगति से आगे बढ़ते हुए मिरथा पहुँचे, जहाँ उन्हें मुज़फ़्फ़र ख़ाँ के द्वारा कुतुबुद्दीन की हत्या और भड़ौच पर अधिकार का समाचार मिला। रहीम अपने साथ के लोगों से यह ख़बर छिपाए तेज़ी से आगे बढ़ते हुए सिरोही जा पहुँचे, जहाँ निज़ामुद्दीन उनकी अगवानी में खड़े थे। इससे उन्हें नवीनतम स्थिति का पता चला। 31 दिसम्बर को वह पाटन पहुँचे और एक दिन रुककर मुग़ल अधिकारियों की गोष्ठी में विचार–विमर्श किया। लोगों ने रहीम को मालवा सेना की प्रतीक्षा करने की सलाह दी लेकिन विश्वसनीय मित्रों मुंशी दौलत ख़ाँ लोदी ने कहा कि यही उचित अवसर है। वे आक्रमण करके 'ख़ानख़ाना' की उपाधि प्राप्त करें, क्योंकि यह उपाधि उनके पिता को भी मिली थी। रहीम को मीर मुंशी दौलत ख़ाँ लोदी की बात जंची। वे आक्रमण करने के लिए चल पड़े। 12 जनवरी, 1584 को उन्होंने अहमदाबाद से 6 मील दूर सरखेज गाँव के निकट साबरमती नदी के बाएँ किनारे पर पहुँचकर डेरा डाल दिया। मुज़फ़्फ़र ख़ाँ की सेना का पड़ाव नदी के उस पार था। उसके पास 40,000 सेना थी जबकि रहीम के पास मात्र 10,000 सेना थी। ऐसी हालत में नदी पार करना बहुत ही ख़तरनाक सिद्ध हो सकता था।

इन हालात का सामना रहीम ने जिस मनौवैज्ञानिक पद्धति से किया, वह युद्ध विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। रहीम ने पदाधिकारियों को एक पत्र पढ़कर सुनाया कि बादशाह एक विशाल सेना लेकर ख़ुद आ रहे हैं और उनके आने तक आक्रमण न किया जाए। इससे अमीरों का मनोबल बढ़ा। वे सेनापति के आदेशों का पालन करने में लग गए। दुश्मनों को जब अपने जासूसों से पता चला कि बादशाह ख़ुद आ रहे हैं तो 16 जनवरी को नदी पार करके मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने जल्दबाज़ी के साथ आक्रमण कर दिया।

अपनी रणनीति के अनुसार रहीम 300 चुने हुए वीरों और 100 विशालकाय हाथियों के साथ सेना के मध्य में रहते हुए युद्ध भूमि में उतरे। राजपूतों और सैयदों ने इस युद्ध में बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। चारों तरफ़ मृत्यु का ताण्डव था। दोनों पक्षों को जब मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने गुत्थम–गुत्था देखा तो सात हज़ार सैनिकों के साथ मध्य भाग की ओर बढ़ा। मुग़ल सैनिक विशाल सेना को मध्य भाग की तरफ़ आता देख युद्ध स्थल से भागने लगे। ऐसी स्थिति में रहीम ने हाथियों की सेना आगे करने की युद्धनीति अपनाई। गजराजों द्वारा कुचले जाने से शत्रु पक्ष में त्राहि–त्राहि मच गई। जब तक वे सम्भलते, तब तक निज़ामुद्दीन ने पीछे से और राय दुर्ग सिसौदिया ने बाईं तरफ़ से आक्रमण कर दिया।

कंधार पर आक्रमण

रहीम ख़ानख़ाना जौनपुर में मुश्किल से एक वर्ष रहे होंगे कि 4 जनवरी, 1590 को बादशाह अकबर ने विशाल सेना के साथ उन्हें कंधार विजय के लिए भेज दिया। ख़र्च आदि के लिए मुलतान और भक्कर जागीर के रूप में प्रदान किया। रहीम ने रास्ते में ही बलूचियों को पराजित करने का फ़ैसला किया। लेकिन उन्होंने कंधार जीतने के पहले सिन्ध के शासक जानी बेग, जो मुज़फ़्फ़र ख़ाँ से ज़्यादा चालाक और सामरिक दृष्टि से सम्पन्न था, को पराजित करना ज़रूरी समझा। इसके लिए ख़ानख़ाना ने बादशाह से इज़ाज़त माँगी जो उन्हें तत्काल मिल गई।

रहीम उपजाऊ और सम्पन्न प्रान्त पर अधिकार करके सैनिकों की ज़रूरतें पूरी करना चाहते थे। वे अभी मुलतान से कुछ ही मील दूर थे कि बलूची सरदारों ने सामूहिक रूप से ख़ानख़ाना की सेवा में हाज़िर होकर अकबर के प्रति अपनी स्वामीभक्ति प्रदर्शित की और सिन्ध की विजय में सहयोग का पूरा आश्वासन दिया।

यह बात जब जानी बेग को पता चली तो उसने ख़ुसरो के नेतृत्व में 120 सशस्त्र नावों, जिनमें धनुर्धर सैनिक, बन्दूक चलाने वाले एवं 200 युद्ध तोपें थीं, को जलमार्ग से और दो टुकड़ियों को नदी के किनारों से भेजा। ख़ानख़ाना ने जिस क़िले के पास डेरा डाला था, वह स्थान नदी से काफ़ी ऊँचाई पर ढलुआ बलुई ज़मीन पर स्थित था। अतः नदी से निकलकर आक्रमण करना मुश्किल था। 31 अक्तूबर, 1591 को शत्रु–दल धारा के विपरीत आगे बढ़ता दिखाई पड़ा। अब युद्ध अनिवार्य हो गया था। यह भयानक युद्ध 24 घन्टे के बाद तब बन्द हुआ जब ख़ुसरों हारकर भाग गया। लेकिन जानी बेग इससे हतोत्साहित नहीं हुआ और बुहरी क़िले में अपना डेरा डाले पड़ा रहा, क्योंकि यह स्थल सुरक्षित था।

ख़ानख़ाना की उपाधि

ऐसा होने से दुश्मनों ने यह समझा कि एक तरफ़ से अकबर और दूसरी तरफ़ से मालवा की सेना ने एक साथ आक्रमण कर दिया है। वे तत्काल मैदान छोड़कर भागने लगे। परिणामतः मुज़फ़्फ़र ख़ाँ को भी वहाँ से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी। इस विजय से रहीम 'मिर्ज़ा ख़ाँ' की बहादुरी की धाक जम गई और उनके दरबारी दुश्मनों के मुँह बन्द हो गए। इसी के साथ रहीम को 'ख़ानख़ाना' की उपाधि तथा कई जागीरों से सम्मानित किया गया।

सन 1589 में जब बादशाह अकबर अपने परिवार के साथ कश्मीर और काबुल घाटी की यात्रा पर गया तो रहीम ख़ानख़ाना भी उसके साथ थे। रहीम ने अवकाश के दिनों में बाबर की आत्मकथा तज़ुके बाबरी का तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद किया। फिर 24 नवम्बर, 1589 को जब बादशाह यात्रा से लौट रहे थे तो उन्होंने यह अनुवाद उन्हें रास्तें में ही भेंट किया।

अकबर ने रहीम की साहित्यिक कृति से प्रसन्न होकर राजा टोडरमल की मृत्यु से रिक्त साम्राज्य के वकील के पद पर उन्हें अधिष्ठित कर दिया। रहीम के पिता बैरम ख़ाँ भी साम्राज्य के वकील थे। यद्यपि उस समय तक इस पद के अधकार कुछ कम हो गए थे, लेकिन बादशाह और शहज़ादों के अधिकारों के बाद यही सर्वोच्च पद था। रहीम को जौनपुर का सूबा जागीर के रूप में प्रदान किया गया। उन्हें अवकाश के दिनों में दरबार में आने वाले कवियों आदि को दान देना पड़ता था। इसके अलावा साम्राज्य के सर्वश्रेष्ठ अमीर के ख़र्चे भी अधिक थे। रहीम को प्रतिष्ठा, कुल की मर्यादा और आन–बान के अनुसार ख़र्च करना पड़ता था, इस वजह से उनकी आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने लगी थी।

ख़ानख़ाना की युद्धनीति

रहीम ख़ानख़ाना के सैनिकों को अब काफ़ी परेशानियाँ उठानी पड़ीं। दो महीने घेरा डालने के बाद भी उन्हें सफलता नहीं मिली। जानी बेग के छापामार सैनिक क़िले से निकलकर मुग़लों को परेशान करते और खाद्य सामग्री लूट लेते थे। जब खाद्यान्न की कमी हो गई तो ख़ानख़ाना ने बादशाह से मदद माँगी। बादशाह ने ढाई लाख रुपये, अनाज और तोपों से सजी कुछ नौकाएँ भेजीं। लेकिन जब इससे भी समस्या हल नहीं हुई तो उन्होंने जानी बेग के रसद आपूर्ति के स्रोतों पर अधिकार करना ज़रूरी समझा। उन्होंने मुग़ल सैनिकों के पाँच दस्तों की सहायता से शत्रु के रसद आपूर्ति ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर लिया। इससे ख़ानख़ाना के सैनिकों को खाद्य सामग्री की पूर्ति सम्भव हो सकी।

तत्पश्चात् ख़ानख़ाना ने अपनी युद्धनीति के अनुसार आक्रमण करके बुहरी क़िले को ध्वस्त कर दिया। शत्रुओं ने जमकर संघर्ष किया, लेकिन अन्ततः पराजित हुए। जानी बेग ने युद्ध भूमि से भागकर उरनपुर में शरण ली। ख़ानख़ाना ने इस बार क़िले की घेराबन्दी करने में चूक नहीं की। यह घेरा एक माह तक चलता रहा। इतने में बारिश शुरू हो गई। लगातार बारिश के कारण तीन तरफ़ से नदी का जल तथा एक तरफ़ मुग़लों की घेराबन्दी से जानी बेग की खाद्य आपूर्ति लगभग समाप्त हो गई। नदी से सामग्री पहुँचना मुग़लों के क़ब्ज़े के कारण असम्भव था। तोपों की गोलाबारी से भीतर रहना मुश्किल हो गया था। लोग ऊँट आदि खाने लगे थे। जानी बेग के सैनिक भूख से व्याकुल होकर ख़ानख़ाना की शरण में आने लगे। ख़ानख़ाना की उदारता के फलस्वरूप अनेक सिन्धी तो मुग़ल सेना में शामिल हो गए।

सिन्ध पर विजय

आख़िर में जानी बेग ने अपने दूतों से कहलवाया कि अल्लाह के नाम पर अपने ही धर्म के लोगों की हत्या रोक दें। ख़ानख़ाना ने दूतों का स्वागत किया और यह सन्धि प्रस्ताव स्वीकृत किया कि सेहवान दुर्ग एवं बीस युद्धपोत मुग़लों को दे दिए जाएँ। जानी बेग अपनी पुत्री का विवाह इरीज़ से करें तथा सिन्ध के शासक राजदरबार में उपस्थित होकर बादशाह की अधीनता स्वीकार कर लें। सन्धि होने के बाद सैनिक–घेरा उठा लिया गया। जानी बेग ने तीन माह का वक़्त माँगा ताकि वह ठट्टा जाकर अपनी राजधानी लाहौर ले चलने का प्रबन्ध कर सके।

सेहवान दुर्ग की चाबी ख़ानख़ाना के वहाँ पर पहुँचने पर दुर्गपाल के द्वारा प्रदान कर दी गई। तीन महीने का वक़्त समाप्त होने पर भी जब जानी बेग नहीं आया तो ख़ानख़ाना ने ठट्टा की तरफ़ प्रस्थान किया। जानी बेग राजधानी से निकलकर फ़तेहाबाद में डेरा डाले पुर्तग़ाली सेना के आने का इंतज़ार कर रहा था। मुग़ल सेना फ़तेहाबाद पहुँच गई। तब जानी बेग ने आगे बढ़कर ख़ानख़ाना का स्वागत किया। उसकी धूर्तता तथा बहानेबाज़ी नहीं चल पाई। ख़ानख़ाना ने मुग़लों को उसकी मित्रता का विश्वास दिलाने के लिए उससे जहाज़ी बेड़ा समर्पित करने को कहा।

जानी बेग के पास दो ही रास्ते थे- गिरफ़्तारी या अधीनता। उसने अपना जहाज़ी बेड़ा जो कि उसकी रीढ़ था, मुग़लों को दे दिया। सिन्ध पर विजय प्राप्त करके ख़ानख़ाना ठट्टा चले गए। वहाँ से प्रस्थान करते समय अपनी सारी सामग्री जो उनके पास थी, अपने अमीरों और कर्मचारियों में वितरित कर दी। वे फ़तेहाबाद में लौटकर आए ही थे कि उन्हें पराजित शत्रु के साथ दरबार में उपस्थित होने का शाही आदेश मिला। ख़ानख़ाना जानी बेग के साथ अविलम्ब वहाँ से चलकर दरबार में हाज़िर हुए। इससे उनकी आज्ञाकारिता पर बादशाह अकबर बहुत खुश हुआ।

दक्षिण को प्रस्थान

सिन्ध पर विजय के बाद ख़ानख़ाना दरबार में 6 माह ही रह पाए थे कि बादशाह ने उन्हें दक्षिण की ओर प्रस्थान करने को कहा। ख़ानख़ाना मालवा के मार्ग से दक्षिण को रवाना हुए। कुछ दिन भिलसा में रहकर 19 जुलाई, 1594 को दक्षिण की ओर सीधे न जाकर वे उज्जैन के रास्ते से चल पड़े। वे आक्रमण के पहले दक्षिण के द्वार पर स्थित ख़ानदेश पर भी अधिकार करना चाहते थे। शहज़ादा मुराद रहीम का इन्तज़ार कर रहा था। ख़ानख़ाना की देरी उसे पसन्द नहीं थी। दरबारी और अमीर ख़ानख़ाना के विरुद्ध मुराद के कान भर रहे थे। ख़ानख़ाना का यह कार्य उनकी दूरदर्शिता और कूटनीति कौशल का प्रमाण था। परन्तु शहज़ादा नाराज़ होता गया और उसने जून, 1565 में अहमदनगर की ओर प्रस्थान कर दिया।

मुग़लों, राजपूतों, सैयदों और ख़ानदेश की सम्मिलित सेना के साथ ख़ानख़ाना ने शाहपुर से चलकर पाथरी से 12 कोस दूर गोदावरी के तट पर अस्थि नामक स्थान पर डेरा डाल दिया। नदी के दूसरे किनारे पर चाँदबीबी के राष्ट्र जागरण के फलस्वरूप आदिल शाही, कुतुब शाही, निज़ाम शाही और बीदर शाही की संयुक्त सेनाएँ वीर योद्धा सुहेल ख़ाँ के नेतृत्व में डेरा डाले हुए थीं। पूरे पन्द्रह दिनों तक दोनों ही गोदावरी नदी के तट के आर पार एक दूसरे के आक्रमण का इन्तज़ार करते रहे। जब ख़ानख़ाना को दक्षिणियों की शक्ति का अनुमान हो गया तो उन्होंने अपने साथियों राजा अली ख़ाँ और शाहरुख़ के साथ 26 जनवरी, 1597 को नदी पार करके दक्षिण की सेना पर आक्रमण कर दिया।

रहीम ख़ानख़ाना की गिरफ़्तारी

ख़ान ए ख़ाना मक़बरा, दिल्ली

दक्षिण के इस अभियान से संतुष्ट होकर शहज़ादा ख़ुर्रम ख़ानदेश, बरार और अहमदनगर की सूबेदारी ख़ानख़ाना को देकर अपने पिता से मिलने माण्डू चला गया। बादशाह ने ख़ुर्रम को शाहजहाँ की उपाधि दी तथा सिंहासन से उठकर उसका स्वागत किया। मलिक अम्बर अपनी आदत के अनुसार अधिक दिनों तक अधीन नहीं रह सकता था। उसने सन्धि तोड़ दी और मुग़ल थानेदारों पर हमला कर दिया। ये ख़ानख़ाना की विपत्ति के दिन थे। दामाद शाहनवाज़ ख़ाँ की अधिक मदिरापान के कारण मृत्यु हो गई और रहीम का पुत्र रहमान दाद भी चल बसा। दाराब को बालाघाट से बालपुर और वहाँ से सन् 1620 में बुरहानपुर खदेड़ दिया गया। बुरहानपुर में दाराब और ख़ानख़ाना दोनों ही गिरफ़्तार कर लिए गए। फिर तभी मुक्त हुए जब शाहजहाँ वहाँ पर आया। इस प्रकार सन् 1620 से 1626 तक का समय रहीम के राजनीतिक जीवन का ह्रास काल रहा। सम्राट अकबर के शासन काल में उनकी गणना अकबर के नौ रत्नों में होती थी। जहाँगीर के राजगद्दी पर बैठने पर रहीम ने अक्सर जहाँगीर की नीतियों का विरोध किया। इसके फलस्वरूप जहाँगीर की दृष्टि बदली और उन्हें क़ैद कर दिया। उनकी उपाधियाँ और पद ज़ब्त कर लिए गए। सन् 1625 में रहीम ने दरबार में जहाँगीर के सामने उपस्थित होकर माफ़ी माँगी और वफ़ादारी का प्रण किया। बादशाह जहाँगीर ने न सिर्फ़ उन्हें माफ़ कर दिया बल्कि लाखों रुपये दिए, उपाधियाँ और पद लौटा दिए। जहाँगीर की इस कृपा से अभिभूत होकर रहीम ने अपनी क़ब्र के पत्थर पर यह दोहा खुदवाने की वसीयत की—

मरा लुत्फे जहाँगीर, जे हाई ढाते रब्बानी।
दो वारः ज़िन्दगी दाद, दो वारः खानखानी।।
अर्थात् ईश्वर की सहायता और जहाँगीर की दया से दो बार ज़िन्दगी और दो बार ख़ानख़ाना की उपाधि मिली।

व्यापक नरसंहार

भयानक संघर्ष के बाद कुतुब शाही और निज़ाम शाही सैनिक मुग़लों की मार से भागने लगे। तब सेना के मध्य भाग में सुहेल ख़ाँ ने पूरी शक्ति के साथ मुग़लों पर आक्रमण कर दिया। मार–काट से डरकर मुग़ल सैनिक युद्ध स्थल से 30 मील दूर शाहपुर भाग गए। सुहेल ख़ाँ के सैनिकों ने जब मध्य भाग पर आक्रमण किया तो तोपों के सीधे आक्रमण से बचने के लिए वह वहाँ से हट गया, परन्तु राजा अलीख़ाँ बीच में आ गया। व्यापक नर संहार के बाद अंधेरा हो जाने के कारण दोनों पक्षों ने एक दूसरे की हार का अनुमान लगाकर वहाँ से भाग गए। प्रातः काल जब मुग़ल सैनिक नदी पर पानी लेने गए तो सुहेल ख़ाँ ने 25000 घुड़सवार सेना के साथ आक्रमण कर दिया।

ख़ानख़ाना के पास इस समय कुल 7000 सैनिक थे। तीनों सेनाओं के महत्त्वपूर्ण सैनिक मारे गए थे। कहा जाता है कि दौलतख़ाँ लोदी (जिसे अज़ीज़ कोका ने रहीम को दिया था और कहा था कि इसकी सेवा करो, ख़ानख़ाना बन जाओगे) उस समय सेनापति ख़ानख़ाना का मुख्य रक्षक था। उसने सुहेल ख़ाँ द्वारा हाथियों और तोपों को आगे बढ़ाया जाते देखकर ख़ानख़ाना से कहा, "हमारे पास 600 घुड़सवार हैं। फिर भी मैं शत्रु के केन्द्र पर आक्रमण करूँगा।"

सेनापति ख़ानख़ाना ने कहा, "क्या तुम्हें दिल्ली का स्मरण नहीं है।" दौलत ख़ाँ ने उत्तर दिया, "अगर हम इन विषमताओं से सुरक्षित रह गए तो सैकड़ों दिल्लियाँ ढूँढ लेंगे।" बड़हा के सैयद यह वार्तालाप सुन रहे थे। वे दौलतख़ाँ लोदी से बोले, "जब कुछ नहीं बचा है सिवाय मृत्यु के तो आइए, हम सब हिन्दुस्तानियों की तरह लड़ें। लेकिन आप ख़ानख़ाना से यह पूछिए कि वह क्या चाहते हैं।"

दौलतख़ाँ लोदी ने घूमकर ख़ानख़ाना से कहा, "हमारे सामने विशाल सेना खड़ी है। विजय अल्लाह के हाथ में है। कृपया यह बताइए कि अगर आप हार गए तो हम लोग आपको कहाँ पर पाएँगे।" ख़ानख़ाना ने कहा, "लाशों के नीचे।" फिर दौलत ख़ाँ और सैयदों ने आदिलशाही सेना के मध्य भाग पर सीधे आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शत्रु पराजित हुए और सुहेल ख़ाँ बेहोश होकर मैदान में गिर पड़ा, जिसे बाद में दक्षिणी उठाकर भाग गए।

विपत्तियों के बादल

कहा जाता है कि ख़ानख़ाना ने उस दिन 75 लाख रुपये बाँट दिए। इस महान् विजय के बाद भी ख़ानख़ाना और शहज़ादा मुराद में मतभेद बढ़ते गए। शहज़ादे के कहने पर ख़ानख़ाना को वापस बुला लिया गया। यह रहीम के दु:ख का समय था। उनका संरक्षक और बादशाह उनसे नाराज़ था ही, इसी बीच उनका सबसे प्रिय पुत्र हैदर क़ुली जलकर मर गया। लाहौर से लौटते समय अम्बाला में माहबानो अधिक बीमार हो गईं। वह पुत्र की मृत्यु नहीं झेल सकीं और अम्बाला में ही सन् 1598 में उनकी मृत्यु हो गई। दक्षिण से लौटने पर ख़ानख़ाना केवल साल भर दरबार में रहे। यह समय उनके दुख, अपमान और सन्ताप का था। 29 अक्टूबर, 1599 को बादशाह अकबर ने शहज़ादा दानियाल को दक्षिण में नियुक्त करके रहीम को उसका अभिभावक बना दिया। साथ ही दक्षिण कमान का सेनापति पद देकर अहमदनगर का क़िला फ़तह करने के लिए भेजा। दानियाल और रहीम अहमदनगर क़िले का चार माह चार दिन तक घेरा डाले रहे। चाँदबीबी ने जब सन्धि करनी चाही तो हब्शियों ने उन्हें मार डाला और इब्राहीम के पुत्र बहादुर को नि­ज़ाम बनाकर युद्ध के लिए तैयार हो गए। 16 अगस्त, 1600 को क़िले की दीवार उड़ा दी गई और हब्शियों की पराजय हुई। रहीम ख़ानख़ाना बहादुर के साथ दरबार में लौट आए। बहादुर को ग्वालियर के क़िले में जीवन भर के लिए क़ैद कर दिया गया। ख़ानख़ाना ने अपनी पुत्री का विवाह दानियाल से कर दिया। अप्रैल, 1601 में ख़ानख़ाना अहमदनगर क़िले को दुरुस्त करने तथा शाह अली (जिसे मलिक अम्बर और राजू दक्षिणी ने निज़ाम शाह बनाकर गद्दी पर बैठाया था) को दबाव रखने के लिए जब वहाँ पर पहुँचे तो मुग़लों के आपसी वैमनस्य एवं दक्षिणियों की एकता से परिस्थिति बदली हुई थी।

दामाद दानियाल की मृत्यु

हब्शी मलिक अम्बर अपनी प्रतिभा, साहस और वीरता से सरदार बन चुका था। उसकी प्रतिष्ठा भी अधिक थी। उसी प्रकार राजू दक्षिणी भी प्रभावशाली था। रहीम ख़ानख़ाना के नेतृत्व में मलिक अम्बर को दो बार 16 मई, 1601 को मजेरा में अब्दुल रहमान ने और 1602 में नान्देर में ख़ानख़ाना के पुत्र इरीज़ ने हराया। इससे ख़ानख़ाना की प्रतिष्ठा बढ़ गई। इसी बीच दामाद शहज़ादा दानियाल की सन् 1604 में मृत्यु हो गई। रहीम बिटिया जाना बेगम से बहुत प्यार करते थे। उसने विधवा का जीवन व्यतीत किया जो रहीम के लिए बहुत ही हृदय विदारक था। रहीम इस दु:ख से उबर नहीं पाए थे कि उनके संरक्षक महान् सम्राट अकबर सन् 1605 में परलोक सिधार गए।

जहाँगीर से भेंट

अकबर की मृत्यु के बाद रहीम बादशाह जहाँगीर से मिलने के लिए चिट्टियाँ लिखते रहे। अन्ततः उन्हें दरबार में उपस्थित होने की अनुमति मिल गई। सन् 1608 में ख़ानख़ाना बहुमूल्य उपहारों के साथ दरबार में अत्यन्त उल्लास के साथ उपस्थित हुए। वह उस समय बहुत ही भावुक हो उठे थे। उन्हें यह भी भान न रहा कि वे सिर के बल चल कर आए हैं या पैर से। विह्वलता से उन्होंने अपने को बादशाह जहाँगीर के पैरों में डाल दिया, लेकिन जहाँगीर ने दयालुता से उन्हें उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। फिर उनका मुख चूमा।

ख़ानख़ाना ने जहाँगीर को मोतियों के दो हार, कई हीरे एवं माणिक भेंट किए, जिनका मूल्य तीन लाख रुपये था। इसके अतिरिक्त कई अन्य वस्तुएँ भी भेंट कीं। बादशाह जहाँगीर ने विशिष्ट घोड़े और 20 हाथी प्रदान करके उन्हें सम्मानित किया। ख़ानख़ाना तीन महीने तीन दिन दरबार में रहकर दो वर्ष में दक्षिण विजय का आश्वासन देकर यथेष्ट सहायता लेकर दक्षिण की ओर चले गए। ख़ानख़ाना घनघोर बरसात में शहज़ादा ख़ुर्रम के साथ बुरहानपुर से बालाघाट की ओर बढ़ चले। परन्तु मुग़ल सरदारों के बीच असहमति के कारण उनकी युद्धनीति असफल हो गई। मलिक अम्बर ने सामने युद्ध न करके छापामार लड़ाई लड़ी। मुग़ल सेना की रसद सामग्री समाप्त होने लगी। हाथी–घोड़े मरने लगे। ख़ानख़ाना के मित्र भी उनके शत्रु हो गए। फलतः उन्हें मलिक अम्बर से जहाँगीर की प्रतिष्ठा के अनुकूल सन्धि करनी पड़ी।

इन सबसे बादशाह जहाँगीर बहुत ही नाराज़ हुआ। उसने ख़ान-ए-जहाँ लोदी को रहीम का उत्तराधिकारी बनाकर भेजा। साथ ही साथ उनके पुराने शत्रु महावत ख़ाँ को पराजित सेनापति को दरबार में लाने का काम सौंपा। महावत ख़ाँ के साथ जब ख़ानख़ाना लौटे तो उन्हें आगरा शहर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। जब बादशाह मिला भी तो उसने रहीम की ओर ध्यान नहीं दिया। रहीम के पुत्रों - इरीज़ और दाराब को साम्राज्य की प्रशंसनीय सेवाओं के लिए उपाधियों एवं पारितोषकों से सम्मानित किया गया। दाराब को जागीर के रूप में ग़ाज़ीपुर प्रदान किया गया। इस विपत्ति में ख़ानख़ाना के मित्रों ने उनका साथ छोड़ दिया। काफ़ी समय वे चिन्तित अवस्था में दरबार में ही रहे। फिर कुछ दिनों के बाद आगरा प्रान्त में कालपी और कन्नौज की जागीर देकर वहाँ के उपद्रवों को शान्त करने के लिए भेजा गया। सन् 1610 से 1612 तक ख़ानख़ाना कालपी में ही रहे।

दक्षिण में रहीम की स्थिति को समझते हुए जहाँगीर ने शहज़ादा ख़ुर्रम की शादी रहीम की नतिनी और शाहनवाज़ ख़ाँ की लड़की से 23 अगस्त, 1617 को करवा दी। ख़ानख़ाना से वैवाहिक सम्बन्धों, बादशाह की निकट ही उपस्थिति और शहज़ादे का विशाल सेना के साथ मुहाने पर होना आदि स्थितियों ने दक्षिण के शासकों को समझौते के लिए विवश कर दिया। आदिल शाह ने 15 लाख रुपए मूल्य के सामान और नक़दी के साथ हाथी आदि उपहार में भेजकर अधीनता स्वीकार कर ली। फिर इतना ही सामान और नक़दी कुतुब मलिक ने भी भेजकर अधीनता स्वीकार कर ली। अब मलिक अम्बर के पास कोई चारा न था। अन्ततः उसे भी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

साहित्यिक परिचय

भक्तिकाल हिन्दी साहित्य में रहीम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अरबी, फ़ारसी, संस्कृत, हिन्दी आदि का गहन अध्ययन किया। वे राजदरबार में अनेक पदों पर कार्य करते हुए भी साहित्य सेवा में लगे रहे। रहीम का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे स्मरण शक्ति, हाज़िर–जवाबी, काव्य और संगीत के मर्मज्ञ थे। वे युद्धवीर के साथ–साथ दानवीर भी थे। अकबर के दरबारी कवि गंग के दो छन्दों पर रीझकर इन्होंने 36 लाख रुपये दे दिए थे। रहीम ने अपनी कविताओं में अपने लिए 'रहीम' के बजाए 'रहिमन' का प्रयोग किया है। वे इतिहास और काव्य जगत में अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हैं। रहीम मुसलमान होते हुए भी कृष्ण भक्त थे। उनके काव्य में नीति, भक्ति–प्रेम तथा श्रृंगार आदि के दोहों का समावेश है। साथ ही जीवन में आए विभिन्न मोड़ भी परिलक्षित होते हैं।

रहीम की भाषा

रहीम ने अपने अनुभवों को सरल और सहज शैली में मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की। उन्होंने ब्रज भाषा, पूर्वी अवधी और खड़ी बोली को अपनी काव्य भाषा बनाया। किन्तु ब्रज भाषा उनकी मुख्य शैली थी। गहरी से गहरी बात भी उन्होंने बड़ी सरलता से सीधी-सादी भाषा में कह दी। भाषा को सरल, सरस और मधुर बनाने के लिए तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग किया।

  • रहीम अरबी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत और हिन्दी के अच्छे जानकार थे। हिन्दू-संस्कृति से ये भली-भाँति परिचित थे। इनकी नीतिपरक उक्तियों पर संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है।
  • कुल मिलाकर इनकी 11 रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनके प्राय: 300 दोहे 'दोहावली' नाम से संग्रहीत हैं। मायाशंकर याज्ञिक का अनुमान था कि इन्होंने सतसई लिखी होगी किन्तु वह अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। दोहों में ही रचित इनकी एक स्वतन्त्र कृति 'नगर शोभा' है। इसमें 142 दोहे हैं। इसमें विभिन्न जातियों की स्त्रियों का श्रृंगारिक वर्णन है।
  • रहीम अपने बरवै छन्द के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका 'बरवै है। इनका 'बरवै नायिका भेद' अवधी भाषा में नायिका-भेद का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इसमें भिन्न-भिन्न नायिकाओं के केवल उदाहरण दिये गये हैं। मायाशंकर याज्ञिक ने काशीराज पुस्तकालय और कृष्णबिहारी मिश्र पुस्तकालय की हस्त लिखित प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया है। रहीम ने बरवै छन्दों में गोपी-विरह वर्णन भी किया है।
  • मेवात से इनकी एक रचना 'बरवै' नाम की इसी विषय पर रचित प्राप्त हुई है। यह एक स्वतन्त्र कृति है और इसमें 101 बरवै छन्द हैं। रहीम के श्रृंगार रस के 6 सोरठे प्राप्त हुए हैं। इनके 'श्रृंगार सोरठ' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है किन्तु अभी यह प्राप्त नहीं हो सका है।
  • रहीम की एक कृति संस्कृत और हिन्दी खड़ी बोली की मिश्रित शैली में रचित 'मदनाष्टक' नाम से मिलती है। इसका वर्ण्य-विषय कृष्ण की रासलीला है और इसमें मालिनी छन्द का प्रयोग किया गया है। इसके कई पाठ प्रकाशित हुए हैं। 'सम्मेलन पत्रिका' में प्रकाशित पाठ अधिक प्रामणिक माना जाता है। इनके कुछ भक्ति विषयक स्फुट संस्कृत श्लोक 'रहीम काव्य' या 'संस्कृत काव्य' नाम से प्रसिद्ध हैं। कवि ने संस्कृत श्लोकों का भाव छप्पय और दोहा में भी अनूदित कर दिया है।
  • कुछ श्लोकों में संस्कृत के साथ हिन्दी भाषा का प्रयोग हुआ है। रहीम बहुज्ञ थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। इनका संस्कृत, फ़ारसी और हिन्दी मिश्रित भाषा में' खेट कौतुक जातकम्' नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ भी मिलता है किन्तु यह रचना प्राप्त नहीं हो सकी है। 'भक्तमाल' में इस विषय के इनके दो पद उद्धृत हैं। विद्वानों का अनुमान है कि ये पद 'रासपंचाध्यायी' के अंश हो सकते हैं।
  • रहीम ने 'वाकेआत बाबरी' नाम से बाबर लिखित आत्मचरित का तुर्की से फ़ारसी में भी अनुवाद किया था। इनका एक 'फ़ारसी दीवान' भी मिलता है।
  • रहीम के काव्य का मुख्य विषय श्रृंगार, नीति और भक्ति है। इनकी विष्णु और गंगा सम्बन्धी भक्ति-भावमयी रचनाएँ वैष्णव-भक्ति आन्दोलन से प्रभावित होकर लिखी गयी हैं। नीति और श्रृंगारपरक रचनाएँ दरबारी वातावरण के अनुकूल हैं। रहीम की ख्याति इन्हीं रचनाओं के कारण है। बिहारी लाल और मतिराम जैसे समर्थ कवियों ने रहीम की श्रृंगारिक उक्तियों से प्रभाव ग्रहण किया है। व्यास, वृन्द और रसनिधि आदि कवियों के नीति विषयक दोहे रहीम से प्रभावित होकर लिखे गये हैं। रहीम का ब्रजभाषा और अवधी दोनों पर समान अधिकार था। उनके बरवै अत्यन्त मोहक प्रसिद्ध है कि तुलसीदास को 'बरवै रामायण' लिखने की प्रेरणा रहीम से ही मिली थी। 'बरवै' के अतिरिक्त इन्होंने दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया, मालिनी आदि कई छन्दों का प्रयोग किया है।

रचनाएँ

ख़ान ए ख़ाना मक़बरा, दिल्ली

रहीम अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने तुर्की भाषा के एक ग्रन्थ 'वाक़यात बाबरी' का फ़ारसी में अनुवाद किया। फ़ारसी में अनेक कविताएँ लिखीं। 'खेट कौतूक जातकम्' नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें फ़ारसी और संस्कृत शब्दों का अनूठा मेल था। इनका काव्य इनके सहज उद्गारों की अभिव्यक्ति है। इन उद्गारों में इनका दीर्घकालीन अनुभव निहित है। ये सच्चे और संवेदनशील हृदय के व्यक्ति थे। जीवन में आने वाली कटु-मधुर परिस्थितियों ने इनके हृदय-पट पर जो बहुविध अनुभूति रेखाएँ अंकित कर दी थी, उन्हीं के अकृत्रिम अंकन में इनके काव्य की रमणीयता का रहस्य निहित है। इनके 'बरवै नायिका भेद' में काव्य रीति का पालन ही नहीं हुआ है, वरन् उसके माध्यम से भारतीय गार्हस्थ्य-जीवन के लुभावने चित्र भी सामने आये हैं। मार्मिक होने के कारण ही इनकी उक्तियाँ सर्वसाधारण में विशेष रूप से प्रचलित हैं। रहीम-काव्य के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें-

  1. रहीम रत्नावली (सं. मायाशंकर याज्ञिक-1928 ई.) और
  2. रहीम विलास (सं. ब्रजरत्नदास-1948 ई., द्वितीयावृत्ति) प्रामाणिक और विश्वसनीय हैं। इनके अतिरिक्त
  3. रहिमन विनोद (हि. सा. सम्मे.),
  4. रहीम 'कवितावली (सुरेन्द्रनाथ तिवारी),
  5. रहीम' (रामनरेश त्रिपाठी),
  6. रहिमन चंद्रिका (रामनाथ सुमन),
  7. रहिमन शतक (लाला भगवानदीन) आदि संग्रह भी उपयोगी हैं।

रहीम के दोहे

  • रहिमन धागा प्रेम का मत तोडों छिटकाय।

टूटे तो फिर ना मिले मिले गांठ पड ज़ाए।।[1]

  • रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग।

ज्यों सरितन सूख परे, कुआं खनावत लोग।।
कविवर रहीम कहते हैं कि यदि कोई दानी मनुष्य दरिद्र भी हो तो भी उससे याचना करना बुरा नहीं है क्योंकि वह तब भी उनके पास कुछ न कुछ रहता ही है। जैसे नदी सूख जाती है तो लोग उसके अंदर कुएं खोदकर उसमें से पानी निकालते हैं।

  • रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।

जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवारि।।
कविवर रहीम के अनुसार बड़े लोगों की संगत में छोटों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि विपत्ति के समय उनकी भी सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है। जिस तरह तलवार के होने पर सुई की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि जहां वह काम कर सकती है तलवार वहां लाचार होती है।

  • एकै साधे सब सधैं, सब साधे सब जाय।

रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलै फलै अघाय।।

  • कह रहीम कैसे निभे, बेर केर का संग।

यै डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।।

  • खीरा सिर ते काटिए, मलियत लौन लगाय।

रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय।।

  • छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात।

का रहीम हरि को घटयौ, जो भृगु मारी लात।।
रहीम एक सहृदय स्वाभिमानी, उदार, विनम्र, दानशील, विवेकी, वीर और व्युत्पन्न व्यक्ति थे। ये गुणियों का आदर करते थे। इनकी दानशीलता की अनेक कथाएं प्रचलित है। इनके व्यक्तित्व से अकबरी दरबार गौरवान्वित हुआ था और इनके काव्य से हिन्दी समृद्ध हुई है।

विशेष बिंदु

  • जब ये कुल 5 वर्ष के ही थे, गुजरात के पाटन नगर में (1561 ई.) इनके पिता की हत्या कर दी गयी। इनका पालन-पोषण स्वयं अकबर की देख-रेख में हुआ।
  • इनकी कार्यक्षमता से प्रभावित होकर अकबर ने 1572 ई. में गुजरात की चढ़ाई के अवसर पर इन्हें पाटन की जागीर प्रदान की। अकबर के शासनकाल में उनकी निरन्तर पदोन्नति होती रही।
  • 1576 ई. में गुजरात विजय के बाद इन्हें गुजरात की सूबेदारी मिली।
  • 1579 ई. में इन्हें 'मीर अर्जु' का पद प्रदान किया गया।
  • 1583 ई. में इन्होंने बड़ी योग्यता से गुजरात के उपद्रव का दमन किया।
  • प्रसन्न होकर अकबर ने 1584 ई. में इन्हें' ख़ानख़ाना' की उपाधि और पंचहज़ारी का मनसब प्रदान किया।
  • 1589 ई. में इन्हें 'वकील' की पदवी से सम्मानित किया गया।
  • 1604 ई. में शहज़ादा दानियाल की मृत्यु और अबुलफ़ज़ल की हत्या के बाद इन्हें दक्षिण का पूरा अधिकार मिल गया। जहाँगीर के शासन के प्रारम्भिक दिनों में इन्हें पूर्ववत सम्मान मिलता रहा।
  • 1623 ई. में शाहजहाँ के विद्रोही होने पर इन्होंने जहाँगीर के विरुद्ध उनका साथ दिया।
  • 1625 ई. में इन्होंने क्षमा याचना कर ली और पुन: 'ख़ानख़ाना' की उपाधि मिली।
  • 1626 ई. में 70 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हो गयी।

ख़ान ए ख़ाना मक़बरा

  • ख़ान ए ख़ाना के नाम से प्रसिद्ध यह मक़बरा अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना का है, जो मुग़ल बादशाह अकबर एवं जहाँगीर के शासनकाल के प्रतिभाशाली एवं प्रसिद्ध दरबारी थे।
  • ख़ान ए ख़ाना मक़बरे का निर्माण अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना के द्वारा अपनी बेगम की याद में करवाया गया था, जिनकी मृत्यु 1598 ई. में हो गयी थी। बाद में स्वयं अब्दुर रहीम को 1627 ई. में उनके मृत्यु के पश्चात् इसी मक़बरे में दफनाया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मिश्रा, विजय। अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) मेरी दुनिया। अभिगमन तिथि: 18 जुलाई, 2010।

सहायक ग्रन्थ-

  1. अकबरी दरबार के हिन्दी कवि: डॉ. सरयूप्रसाद अग्रवाल;
  2. रहिमन विलास : ब्रजरत्नदास;
  3. रहीम रत्नावली : मायाशंकर याज्ञिक।

बाहरी कड़ियाँ

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