"कुचाई": अवतरणों में अंतर
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कुचाई एक ऐतिहासिक स्थल है, जो [[भारत]] के पूर्वी समुद्रतट [[उड़ीसा]] के मयूरभंज ज़िले में बुर्हाबलंग नदी के तट पर स्थित है। | कुचाई एक ऐतिहासिक स्थल है, जो [[भारत]] के पूर्वी समुद्रतट [[उड़ीसा]] के मयूरभंज ज़िले में बुर्हाबलंग नदी के तट पर स्थित है। | ||
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12:40, 4 मार्च 2011 का अवतरण
कुचाई एक ऐतिहासिक स्थल है, जो भारत के पूर्वी समुद्रतट उड़ीसा के मयूरभंज ज़िले में बुर्हाबलंग नदी के तट पर स्थित है।
उत्खनन
कुचाई नवप्रस्तरकालीन स्थल का उत्खनन बी.के थापर ने भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के तत्त्वावधान में 1961-1962 ई. के मध्य करवाया था। कुचाई स्थल पर 1.4 मीटर का जमाव अनावृत्त किया गया। इसमें सबसे नीचे का स्तर प्रस्तर गुटका,सिलेटी मिट्टी व मोरम आदि से बना है। कुचाई स्थर में अज्यामितिय लघु-आश्मक प्राप्त हुए हैं। इसके ऊपर 40 से 45 सैंटीमीटर मोटी नव-प्रस्तरकालीन परत बिछी थी। प्रस्तर उपकरण तथा मृद्भाण्ड ही यहाँ के मुख्य अवशेष हैं। कुचाई पर उत्खनन से प्राप्त सामग्री में गोले मूँठधारी कुल्हाड़ियाँ, शल्क-चिह्नित फरसा, फल, छेनी, वलय-प्रस्तर, मूसल व लोढ़े हैं। मृद्भाण्डों में उल्लेखनीय वर्ग रुक्ष सतही लोहित पात्रों का है। इस वर्ग के कुछ पात्र अधपके तथा लेपयुक्त हैं। नारंगी और भूरी सतह वाले पात्र भी इस वर्ग की विशेषता हैं। यहाँ पात्रों को कुरेदकर व उँगली के छोर के दबाव से अलंकरण किया जाता है। कुचाई स्थल से अर्थव्यवस्था तथा आवासीय प्रवृत्तियों के कोई भी प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं परंतु पास के वैद्यपुर स्थल से कृषित धान के प्रमाण प्राप्त हुए हैं जिसके आधार पर इस क्षेत्र में नव-प्रस्तरकाल में विकसित कृषि करने का अनुमान होता है। मृद्भाण्डों के आधार पर कुचाई का नव-प्रस्तरकालीन चरण ई. पू लगभग 1200 से 800 के मध्य रखा जा सकता है।
अवशेष
कुचाई के उत्खनन से प्राप्त अवशेष उड़ीसा के नव-प्रस्तर अवशेषों को आधार प्रदान करते हैं किंतु उड़ीसा के नव-प्रस्तरकाल के आरम्भ के स्वरुप की स्थिति सिद्ध नहीं करते हैं। उड़ीसा के नव-प्रस्तर अवशेष आंशिक हैं तथा सांस्कृतिक संदर्भविहीन हैं, क्योंकि ये प्रस्तर उपकरण व मृद्भाण्ड भग्नाशेषों के समूह के रुप में भू-धरातल की सतह पर बिखरे पाए गए हैं। ये मध्य-प्रस्तर चरण के बाद नव-प्रस्तरकालीन जमाव के क्रम में प्राप्त किये गये हैं। परंतु इस क्रम में तिथियों के अभाव के कारण एक ओर तो नव-प्रस्तर की कालावधि निश्चित नहीं की जा सकती, दूसरी ओर लघु-आश्मक चरण से भी इनका सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है। अत: अभी इनके काल के स्वरूप की स्थिति अस्पष्ट ही कहीं जाएगी।
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