"जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला -गोपालदास नीरज": अवतरणों में अंतर
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<poem>जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला, | <poem> | ||
मेरे स्वागत को हर एक जेब से खंजर | जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला, | ||
मेरे स्वागत को हर एक जेब से खंजर निकला। | |||
तितलियों फूलों का लगता था जहाँ पर मेला, | तितलियों फूलों का लगता था जहाँ पर मेला, | ||
प्यार का गाँव वो बारूद का दफ़्तर | प्यार का गाँव वो बारूद का दफ़्तर निकला। | ||
डूब कर | डूब कर जिसमें उबर पाया न मैं जीवन भर, | ||
एक आँसू का वो | एक आँसू का वो क़तरा तो समुंदर निकला। | ||
मेरे होठों पे दुआ उसकी जुबाँ पे ग़ाली, | मेरे होठों पे दुआ उसकी जुबाँ पे ग़ाली, | ||
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर | जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला। | ||
ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा, | ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा, | ||
मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर | मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला। | ||
वो तेरे द्वार पे हर रोज़ ही आया लेकिन, | वो तेरे द्वार पे हर रोज़ ही आया लेकिन, | ||
नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर | नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला। | ||
रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई, | रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई, | ||
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर | वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला। | ||
क्या अजब है इंसान का दिल भी 'नीरज' | क्या अजब है इंसान का दिल भी 'नीरज' | ||
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर | मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला। | ||
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12:32, 25 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण
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जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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