"दुंदुभी दैत्य": अवतरणों में अंतर
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*हिमवान् [[ऋषि|ऋषियों]] का सहायक था तथा युद्ध आदि से दूर रहता था। उसने दुंदुभी को [[इंद्र]] के पुत्र बालि से युद्ध करने के लिए कहा। | *हिमवान् [[ऋषि|ऋषियों]] का सहायक था तथा युद्ध आदि से दूर रहता था। उसने दुंदुभी को [[इंद्र]] के पुत्र बालि से युद्ध करने के लिए कहा। | ||
*बालि से युद्ध होने पर बालि ने उसे मार डाला तथा रक्त से लथपथ उसके शव को एक योजन दूर उठा फेंका। | *बालि से युद्ध होने पर बालि ने उसे मार डाला तथा रक्त से लथपथ उसके शव को एक योजन दूर उठा फेंका। | ||
*मार्ग में उसके मुँह से निकली [[रक्त]] की बूंदें महर्षि मतंग के आश्रम पर जाकर गिरीं। | *मार्ग में उसके मुँह से निकली [[रक्त]] की बूंदें [[मतंग|महर्षि मतंग]] के आश्रम पर जाकर गिरीं। | ||
*महर्षि मतंग ने बालि को शाप दिया कि वह और उसके वानरों में से कोई यदि उनके आश्रम के पास एक योजन की दूरी तक जायेगा तो वह मर जायेगा। | *महर्षि मतंग ने बालि को शाप दिया कि वह और उसके वानरों में से कोई यदि उनके आश्रम के पास एक योजन की दूरी तक जायेगा तो वह मर जायेगा। | ||
*अत: बालि के समस्त वानरों को भी वह स्थान छोड़कर जाना पड़ा। | *अत: बालि के समस्त वानरों को भी वह स्थान छोड़कर जाना पड़ा। | ||
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09:20, 4 जून 2013 के समय का अवतरण
दुंदुभी कैलास पर्वत के समान एक विशाल दैत्य था, जिसमें हज़ार हाथियों का बल था। एक भयंकर युद्ध में दुंदुभी का वध बाली के हाथों हुआ, जिसने उसके शव को उठाकर एक योजन दूर फेंक दिया।
- दुंदुभी को अपने बल पर बड़ा गर्व था, जिस कारण वह एक बार समुद्र के पास पहुँचा तथा उसे युद्ध के लिए ललकारा।
- समुद्र ने उससे लड़ने में असमर्थता व्यक्त की तथा कहा कि उसे हिमवान् से युद्ध करना चाहिए।
- दुंदुभी ने हिमवान् के पास पहुँचकर उसकी चट्टानों और शिखरों को तोड़ना प्रारम्भ कर दिया।
- हिमवान् ऋषियों का सहायक था तथा युद्ध आदि से दूर रहता था। उसने दुंदुभी को इंद्र के पुत्र बालि से युद्ध करने के लिए कहा।
- बालि से युद्ध होने पर बालि ने उसे मार डाला तथा रक्त से लथपथ उसके शव को एक योजन दूर उठा फेंका।
- मार्ग में उसके मुँह से निकली रक्त की बूंदें महर्षि मतंग के आश्रम पर जाकर गिरीं।
- महर्षि मतंग ने बालि को शाप दिया कि वह और उसके वानरों में से कोई यदि उनके आश्रम के पास एक योजन की दूरी तक जायेगा तो वह मर जायेगा।
- अत: बालि के समस्त वानरों को भी वह स्थान छोड़कर जाना पड़ा।
- मतंग का आश्रम ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित था, अत: बालि और उसके वानर वहाँ नहीं जा सकते थे।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय मिथक कोश |लेखक: डॉ. उषा पुरी विद्यावाचस्पति |प्रकाशक: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 136 |
- ↑ वाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड, सर्ग 11, श्लोक 7-63