"पार्श्वगायन": अवतरणों में अंतर
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'''पार्श्वगायन''' अर्थात् वह गायन जो पर्दे के पीछे से किसी [[अभिनेता]] या [[अभिनेत्री]] के गाने के बदले होता है। जो अभिनेता या अभिनेत्री गान विद्या में निपुण नहीं होते, उसके बदले में नेपथ्य से कोई दूसरा अच्छा गायक या गायिका गाती है, यही गाना 'पार्श्वगायन' कहलाता है। | '''पार्श्वगायन''' अर्थात् वह गायन जो पर्दे के पीछे से किसी [[अभिनेता]] या [[अभिनेत्री]] के गाने के बदले होता है। जो अभिनेता या अभिनेत्री गान विद्या में निपुण नहीं होते, उसके बदले में नेपथ्य से कोई दूसरा अच्छा गायक या गायिका गाती है, यही गाना 'पार्श्वगायन' कहलाता है। | ||
==शुरुआत== | |||
अपने समय के ख्याति प्राप्त संगीतकार [[आर. सी. बोराल]], [[पंकज मलिक]] और [[नितिन बोस]] को [[भारतीय सिनेमा]] में पार्श्वगायन की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है। [[हिन्दी]] फ़िल्मों में पार्श्वगायन की शुरुआत से सम्बन्धित एक रोचक घटना है- | |||
"जिस रास्ते से नितिन बोस प्रतिदिन अपने घर से 'न्यू थियेटर्स' जाते थे, उसी रास्ते में संगीतकार पंकज मलिक का घर पड़ता था। इसीलिए नितिन बोस प्रतिदिन पंकज मलिक को उनके घर के पास से उन्हें अपनी कार में बैठाकर स्टूडियो ले जाते और छोड़ जाते। यह सिलसिला चलता रहता था। रोज़ की ही भाँति नितिन बोस पंकज मलिक के दरवाजे पर अपनी कार का हॉर्न बजा कर उन्हें बुला रहे थे, परन्तु पंकज मलिक पर इसका कोई असर नहीं हो रहा था। नितिन बोस को लगा कि शायद घर में कोई नहीं है। तभी लगातार कार के हॉर्न की आवाज सुन कर पंकज मलिक के [[पिता]] ने उनको कमरे में जा कर बताया की गेट पर नितिन बोस बहुत देर से तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं। इतना सुनते ही पंकज मलिक दौड़ते हुए नितिन बोस के पास पहुँचे और कहा- "माफ़ी चाहूँगा, मैं ज़रा अपने पसंदीदा [[अंग्रेज़ी]] गानों का रिकॉर्ड सुनते हुये उसके साथ गाने में मशगूल हो गया था। इसीलिए आपके कार के हॉर्न को नहीं सुन सका। | |||
नितिन बोस ने इस घटना की चर्चा 'न्यू थियेटर्स' में [[आर. सी. बोराल]] से की और उनसे चर्चा करते हुये उन्हें अपना एक सुझाव दिया- "कि क्यूँ ना हम कुछ नया प्रयोग करें। जैसे पंकज उस गाने के साथ गाये जा रहे थे, उसी तरह गाने को भी पहले रिकॉर्ड किया जा सकता है। इससे हमें अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की आवाज़ों के साथ समझौता नहीं करना पड़ेगा। हमारे पास विकल्प यह होगा की हम किसी सुरीले प्रशिक्षित गायक, गायिकायों की आवाज़ में गाने रिकॉर्ड कर सकते हैं और बाद में शूटिंग के समय फ़िल्म में अभिनय कर रहे चरित्र पर चित्रांकन कर सिनेमा को और रोचक बना सकते हैं। आर. सी. बोराल इस विचार से पूरी तरह सहमत हुये। फलस्वरूप उस समय [[नितिन बोस]] के ही निर्देशन में बन रही फ़िल्म 'धूप छावँ' ([[1935]]) के लिये उन्होंने पहला गाना "मैं खुश होना चाहूँ, खुश हो न सकूँ" रिकॉर्ड किया, जिसमें मुख्य स्वर के. सी. डे का था तथा कोरस में पारुल घोष, सुप्रवा सरकार एवं हरिमति के स्वर थे। इसके रिकोर्डिस्ट मुकुल बोस थे, जो नितिन बोस के ही भाई थे। मुकुल बोस भी 'न्यू थियेटर्स' में बतौर ध्वनि मुद्रक कार्यरत थे। इस प्रकार संगीतकार के तौर पर हिन्दी सिनेमा में पार्श्वगायन की परम्परा का श्रीगणेश करने का श्रेय आर. सी. बोराल को जाता है, जबकि प्रथम [[पार्श्वगायक]] होने का श्रेय के. सी. डे दिया गया। | |||
==संगीत की विशिष्ट और स्वतंत्र पहचान== | |||
ज्यादा समय नहीं हुआ, जब [[हिन्दी सिनेमा]] में [[संगीत]] की अपनी सल्तनत थी। संगीतकार का नाम निर्देशक के बराबर रखा जाता था और गायकों का महत्व सितारों से कम नहीं था। आज भी [[राजकपूर]] को [[शंकर जयकिशन]] और [[मुकेश]] से अलग कर नहीं देखा जा सकता। [[दिलीप कुमार]] का नाम आता है तो [[मोहम्मद रफ़ी]] खुद ब खुद जेहन में आ जाते हैं। यह दौर तकरीबन 80 के दशक तक प्रभावी रहा। [[भारत]] में सिनेमा के आरंभिक दौर से ही इसके लिए संगीत की अनिवार्यता महसूस की गई। कहते हैं, जब सिनेमा मूक था तब भी लाइव संगीत से इसे संवारने की कोशिश की जाती थी। बाद के दिनों में जब सिनेमा को आवाज मिली तो अभिनेता होने की शर्त में गायक होना शामिल था। [[के. एल. सहगल]] उस पीढ़ी के प्रतिमान माने जा सकते हैं। बाद के दिनों में पार्श्वगायन ने सिनेमा संगीत को एक विशिष्ट और स्वतंत्र पहचान देने की शुरुआत की और सिनेमा संगीत में प्रशिक्षित गायकों का दखल बढ़ा। यह वह दौर था, जब गाने पहले सुने जाते थे, फिल्म दर्शकों के सामने बाद में आती थी। कह सकते हैं उस दौर में फिल्मों के प्रमोशन का एकमात्र विकल्प गाने ही थे। रेडियो पर गाना सुनकर ही अंदाजा लगा लिया जाता था कि इसे परदे पर राजकपूर ने गाया होगा और इसे दिलीप कुमार ने।<ref name="aa">{{cite web |url=http://navbharattimes.indiatimes.com/thoughts-platform/viewpoint/technology-brought-democracy-in-playback-singing/articleshow/25449627.cms |title=तकनीक लाई प्लेबैक सिगिंग में जनतंत्र|accessmonthday=09 नवम्बर|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | |||
====प्रसिद्ध पार्श्वगायक==== | |||
गायकों से भी उम्मीद रखी जाती थी कि वे जिस अभिनेता के लिए आवाज दे रहे होंगे, उसके मैनरिज्म का निर्वाह करेंगे। वही मुकेश राजकपूर के लिए कुछ और सुनाई देते थे, [[मनोज कुमार]] के लिए कुछ और। [[किशोर कुमार]] के [[राजेश खन्ना]] और [[देव आनंद]] के लिए गाए गीतों का फर्क समझने में आज भी मुश्किल नहीं होती। इसके लिए वर्षों के रियाज के साथ एक-एक गीत पर मेहनत की जाती थी। जाहिर है, अभिनेताओं की पीढ़ियां गुजर रही थीं, लेकिन [[लता मंगेशकर]], मोहम्मद रफी, मुकेश, [[मन्ना डे]], किशोर कुमार, [[आशा भोंसले]] जैसे गायकों को चुनौती देने वाले गायक सामने नहीं आ पा रहे थे। इसका कारण उनके ज्ञान और समर्पण के साथ उनकी प्रकृति प्रदत्त आवाज भी थी। ये सभी अपने समय के निपुण [[पार्श्वगायक]] थे। | |||
==नये पार्श्वगायकों का उदय== | |||
90 के दशक में म्यूजिक कैसेट के अवतरण के साथ नए गायकों की एक श्रृंखला तो आई, लेकिन अपनी स्वतंत्र पहचान के बजाय इन्होंने प्राय: पुराने स्थापित गायकों की नकल से स्थापित होने की कोशिश की। हालांकि बाद के दिनों में कुमार शानू, अनुराधा पोडवाल, सोनू निगम, कविता कृष्णमूर्ति, उदित नारायण, शान, श्रेया घोषाल और सुनिधि चौहान जैसे गायकों ने पार्श्वगायन में अपनी स्वतंत्र पहचान भी कायम की। लेकिन यह तब की बात थी, जब तक गायकों की गायकी उनकी आवाज और उनके [[संगीत]] की समझ पर निर्भर रहा करती थी। लेकिन अभी संगीत में परंपरागत [[वाद्य यंत्र|वाद्य यंत्रों]] का स्थान मशीनी आवाजों ने ले लिया है। रिकार्डिंग की आधुनिक सुविधाओं ने संगीतकारों और गायकों के बीच ट्यूनिंग की जरूरत भी खत्म कर दी। यहां तक कि साथी गायकों की साथ उपस्थिति की अनिवार्यता भी जाती रही। धुन कभी रिकॉर्ड हो रही है तो गीत किसी और दिन। किसी ने आज रिकॉर्डिंग करवाई, किसी ने तीन दिन बाद। तकनीक ने सहूलियतें बढ़ाईं, लेकिन इस सबके बीच संगीत की अहमियत भी खोती रही।<ref name="aa"/> | |||
====आधुनिक तकनीक==== | |||
फ़िल्म निर्माताओं को भी अहसास हो गया था कि जब गाने सितारों से बिकने हैं तो पार्श्वगायकों की पहचान को अहमियत क्यों दी जाय। इसमें आधुनिक तकनीक के 200 डॉलर के एक प्रोग्राम ने क्रांतिकारी भूमिका अदा की। 'मेलोडाइन' नाम का यह सॉफ्टवेयर प्रोग्राम आवाज, पिच और स्केल तक दुरुस्त करने की क्षमता रखता है। इस प्रोग्राम ने गाने के लिए गायक होने की जरूरत ही खत्म कर दी। आश्चर्य नहीं कि 'कोलावरी डी...' के धनुष तो क्या, आज ऋतिक रोशन, रणवीर कपूर से लेकर संजय दत्त तक गानों को अपनी आवाज दे रहे हैं। [[हिन्दी सिनेमा]] में 'वन सॉन्ग वंडर' की भीड़ मची है। तकनीक द्वारा पार्श्वगायन में लाए गए इस जनतंत्र का प्रभाव आने वाले दिनों में हिन्दी सिनेमा पर दिखेगा। | |||
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10:51, 9 नवम्बर 2013 का अवतरण
पार्श्वगायन अर्थात् वह गायन जो पर्दे के पीछे से किसी अभिनेता या अभिनेत्री के गाने के बदले होता है। जो अभिनेता या अभिनेत्री गान विद्या में निपुण नहीं होते, उसके बदले में नेपथ्य से कोई दूसरा अच्छा गायक या गायिका गाती है, यही गाना 'पार्श्वगायन' कहलाता है।
शुरुआत
अपने समय के ख्याति प्राप्त संगीतकार आर. सी. बोराल, पंकज मलिक और नितिन बोस को भारतीय सिनेमा में पार्श्वगायन की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है। हिन्दी फ़िल्मों में पार्श्वगायन की शुरुआत से सम्बन्धित एक रोचक घटना है-
"जिस रास्ते से नितिन बोस प्रतिदिन अपने घर से 'न्यू थियेटर्स' जाते थे, उसी रास्ते में संगीतकार पंकज मलिक का घर पड़ता था। इसीलिए नितिन बोस प्रतिदिन पंकज मलिक को उनके घर के पास से उन्हें अपनी कार में बैठाकर स्टूडियो ले जाते और छोड़ जाते। यह सिलसिला चलता रहता था। रोज़ की ही भाँति नितिन बोस पंकज मलिक के दरवाजे पर अपनी कार का हॉर्न बजा कर उन्हें बुला रहे थे, परन्तु पंकज मलिक पर इसका कोई असर नहीं हो रहा था। नितिन बोस को लगा कि शायद घर में कोई नहीं है। तभी लगातार कार के हॉर्न की आवाज सुन कर पंकज मलिक के पिता ने उनको कमरे में जा कर बताया की गेट पर नितिन बोस बहुत देर से तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं। इतना सुनते ही पंकज मलिक दौड़ते हुए नितिन बोस के पास पहुँचे और कहा- "माफ़ी चाहूँगा, मैं ज़रा अपने पसंदीदा अंग्रेज़ी गानों का रिकॉर्ड सुनते हुये उसके साथ गाने में मशगूल हो गया था। इसीलिए आपके कार के हॉर्न को नहीं सुन सका।
नितिन बोस ने इस घटना की चर्चा 'न्यू थियेटर्स' में आर. सी. बोराल से की और उनसे चर्चा करते हुये उन्हें अपना एक सुझाव दिया- "कि क्यूँ ना हम कुछ नया प्रयोग करें। जैसे पंकज उस गाने के साथ गाये जा रहे थे, उसी तरह गाने को भी पहले रिकॉर्ड किया जा सकता है। इससे हमें अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की आवाज़ों के साथ समझौता नहीं करना पड़ेगा। हमारे पास विकल्प यह होगा की हम किसी सुरीले प्रशिक्षित गायक, गायिकायों की आवाज़ में गाने रिकॉर्ड कर सकते हैं और बाद में शूटिंग के समय फ़िल्म में अभिनय कर रहे चरित्र पर चित्रांकन कर सिनेमा को और रोचक बना सकते हैं। आर. सी. बोराल इस विचार से पूरी तरह सहमत हुये। फलस्वरूप उस समय नितिन बोस के ही निर्देशन में बन रही फ़िल्म 'धूप छावँ' (1935) के लिये उन्होंने पहला गाना "मैं खुश होना चाहूँ, खुश हो न सकूँ" रिकॉर्ड किया, जिसमें मुख्य स्वर के. सी. डे का था तथा कोरस में पारुल घोष, सुप्रवा सरकार एवं हरिमति के स्वर थे। इसके रिकोर्डिस्ट मुकुल बोस थे, जो नितिन बोस के ही भाई थे। मुकुल बोस भी 'न्यू थियेटर्स' में बतौर ध्वनि मुद्रक कार्यरत थे। इस प्रकार संगीतकार के तौर पर हिन्दी सिनेमा में पार्श्वगायन की परम्परा का श्रीगणेश करने का श्रेय आर. सी. बोराल को जाता है, जबकि प्रथम पार्श्वगायक होने का श्रेय के. सी. डे दिया गया।
संगीत की विशिष्ट और स्वतंत्र पहचान
ज्यादा समय नहीं हुआ, जब हिन्दी सिनेमा में संगीत की अपनी सल्तनत थी। संगीतकार का नाम निर्देशक के बराबर रखा जाता था और गायकों का महत्व सितारों से कम नहीं था। आज भी राजकपूर को शंकर जयकिशन और मुकेश से अलग कर नहीं देखा जा सकता। दिलीप कुमार का नाम आता है तो मोहम्मद रफ़ी खुद ब खुद जेहन में आ जाते हैं। यह दौर तकरीबन 80 के दशक तक प्रभावी रहा। भारत में सिनेमा के आरंभिक दौर से ही इसके लिए संगीत की अनिवार्यता महसूस की गई। कहते हैं, जब सिनेमा मूक था तब भी लाइव संगीत से इसे संवारने की कोशिश की जाती थी। बाद के दिनों में जब सिनेमा को आवाज मिली तो अभिनेता होने की शर्त में गायक होना शामिल था। के. एल. सहगल उस पीढ़ी के प्रतिमान माने जा सकते हैं। बाद के दिनों में पार्श्वगायन ने सिनेमा संगीत को एक विशिष्ट और स्वतंत्र पहचान देने की शुरुआत की और सिनेमा संगीत में प्रशिक्षित गायकों का दखल बढ़ा। यह वह दौर था, जब गाने पहले सुने जाते थे, फिल्म दर्शकों के सामने बाद में आती थी। कह सकते हैं उस दौर में फिल्मों के प्रमोशन का एकमात्र विकल्प गाने ही थे। रेडियो पर गाना सुनकर ही अंदाजा लगा लिया जाता था कि इसे परदे पर राजकपूर ने गाया होगा और इसे दिलीप कुमार ने।[1]
प्रसिद्ध पार्श्वगायक
गायकों से भी उम्मीद रखी जाती थी कि वे जिस अभिनेता के लिए आवाज दे रहे होंगे, उसके मैनरिज्म का निर्वाह करेंगे। वही मुकेश राजकपूर के लिए कुछ और सुनाई देते थे, मनोज कुमार के लिए कुछ और। किशोर कुमार के राजेश खन्ना और देव आनंद के लिए गाए गीतों का फर्क समझने में आज भी मुश्किल नहीं होती। इसके लिए वर्षों के रियाज के साथ एक-एक गीत पर मेहनत की जाती थी। जाहिर है, अभिनेताओं की पीढ़ियां गुजर रही थीं, लेकिन लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मुकेश, मन्ना डे, किशोर कुमार, आशा भोंसले जैसे गायकों को चुनौती देने वाले गायक सामने नहीं आ पा रहे थे। इसका कारण उनके ज्ञान और समर्पण के साथ उनकी प्रकृति प्रदत्त आवाज भी थी। ये सभी अपने समय के निपुण पार्श्वगायक थे।
नये पार्श्वगायकों का उदय
90 के दशक में म्यूजिक कैसेट के अवतरण के साथ नए गायकों की एक श्रृंखला तो आई, लेकिन अपनी स्वतंत्र पहचान के बजाय इन्होंने प्राय: पुराने स्थापित गायकों की नकल से स्थापित होने की कोशिश की। हालांकि बाद के दिनों में कुमार शानू, अनुराधा पोडवाल, सोनू निगम, कविता कृष्णमूर्ति, उदित नारायण, शान, श्रेया घोषाल और सुनिधि चौहान जैसे गायकों ने पार्श्वगायन में अपनी स्वतंत्र पहचान भी कायम की। लेकिन यह तब की बात थी, जब तक गायकों की गायकी उनकी आवाज और उनके संगीत की समझ पर निर्भर रहा करती थी। लेकिन अभी संगीत में परंपरागत वाद्य यंत्रों का स्थान मशीनी आवाजों ने ले लिया है। रिकार्डिंग की आधुनिक सुविधाओं ने संगीतकारों और गायकों के बीच ट्यूनिंग की जरूरत भी खत्म कर दी। यहां तक कि साथी गायकों की साथ उपस्थिति की अनिवार्यता भी जाती रही। धुन कभी रिकॉर्ड हो रही है तो गीत किसी और दिन। किसी ने आज रिकॉर्डिंग करवाई, किसी ने तीन दिन बाद। तकनीक ने सहूलियतें बढ़ाईं, लेकिन इस सबके बीच संगीत की अहमियत भी खोती रही।[1]
आधुनिक तकनीक
फ़िल्म निर्माताओं को भी अहसास हो गया था कि जब गाने सितारों से बिकने हैं तो पार्श्वगायकों की पहचान को अहमियत क्यों दी जाय। इसमें आधुनिक तकनीक के 200 डॉलर के एक प्रोग्राम ने क्रांतिकारी भूमिका अदा की। 'मेलोडाइन' नाम का यह सॉफ्टवेयर प्रोग्राम आवाज, पिच और स्केल तक दुरुस्त करने की क्षमता रखता है। इस प्रोग्राम ने गाने के लिए गायक होने की जरूरत ही खत्म कर दी। आश्चर्य नहीं कि 'कोलावरी डी...' के धनुष तो क्या, आज ऋतिक रोशन, रणवीर कपूर से लेकर संजय दत्त तक गानों को अपनी आवाज दे रहे हैं। हिन्दी सिनेमा में 'वन सॉन्ग वंडर' की भीड़ मची है। तकनीक द्वारा पार्श्वगायन में लाए गए इस जनतंत्र का प्रभाव आने वाले दिनों में हिन्दी सिनेमा पर दिखेगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 तकनीक लाई प्लेबैक सिगिंग में जनतंत्र (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 09 नवम्बर, 2013।
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