"वर्तनी (हिन्दी)": अवतरणों में अंतर
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* तत्सम शब्दों का प्रयोग वांछनीय हो, तब हलंत रुपों का ही प्रयोग किया जाए; विशेष रूप से तब जब उनसे समस्त पद या व्युत्पन्न शब्द बनते हों। यथा:- प्राक्-(प्रागैतिहास) , तेजस् -(तेजस्वी), विद्युत् -(विद्युल्लता) आदि। तत्सम संबोधन में हे राजन्, हे भगवन् रूप ही स्वीकृत होंगे। हिन्दी शैलीमें हे राजा, हे भगवान लिखे जाएँ। जिन शब्दों में हल् चिह्न लुप्त हो चुका हो उनमें उसे फिर से लगाने का प्रयत्न न किया जाए। जैसे:- महान विद्वान आदि (क्योंकि हिन्दी में अब 'महान' से 'महानता' और 'विद्वानों' जैसे रूप प्रचलित हो चुके हैं। | * तत्सम शब्दों का प्रयोग वांछनीय हो, तब हलंत रुपों का ही प्रयोग किया जाए; विशेष रूप से तब जब उनसे समस्त पद या व्युत्पन्न शब्द बनते हों। यथा:- प्राक्-(प्रागैतिहास) , तेजस् -(तेजस्वी), विद्युत् -(विद्युल्लता) आदि। तत्सम संबोधन में हे राजन्, हे भगवन् रूप ही स्वीकृत होंगे। हिन्दी शैलीमें हे राजा, हे भगवान लिखे जाएँ। जिन शब्दों में हल् चिह्न लुप्त हो चुका हो उनमें उसे फिर से लगाने का प्रयत्न न किया जाए। जैसे:- महान विद्वान आदि (क्योंकि हिन्दी में अब 'महान' से 'महानता' और 'विद्वानों' जैसे रूप प्रचलित हो चुके हैं। | ||
* व्याकरण ग्रंथों में व्यंजन संधि समझाते हुए केवल उतने ही शब्द दिए जाएँ, जो शब्द रचना को समझने के लिए आवश्यक हों (उत्+नयन=उन्नयन, उत्+लास=उल्लास) या अर्थ की दृष्टि से उपयोगी हों (जगदीश, जगन्माता, जगज्जननी)। | * व्याकरण ग्रंथों में व्यंजन संधि समझाते हुए केवल उतने ही शब्द दिए जाएँ, जो शब्द रचना को समझने के लिए आवश्यक हों (उत्+नयन=उन्नयन, उत्+लास=उल्लास) या अर्थ की दृष्टि से उपयोगी हों (जगदीश, जगन्माता, जगज्जननी)। | ||
* [[हिन्दी]] में | * [[हिन्दी]] में हृदयंगम (हृदयम्+गम), संचित(सम्+चित्) आदि शब्दों का संधि-विच्छेद समझाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इसी तरह 'साक्षात्कार', 'जगदीश', 'षट्कोण', जैसे शब्दों के अर्थ को समझाने की आवश्यकता हो, तभी उनकी संधि का हवाला दिया जाए। हिन्दी में इन्हें स्वतंत्र शब्दों के रूप में ग्रहण करना ही अच्छा होगा। | ||
====स्वर परिवर्तन==== | ====स्वर परिवर्तन==== | ||
* संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों-का-त्यों ग्रहण किया जाए। अत: 'ब्रह्मा' को 'ब्रम्हा' को 'चिह्न' 'उऋण' को 'उरिण' में बदलना उचित नहीं होगा। इसी प्रकार ग्रहीत, दृष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्याधिक, अनाधिकार आदि अशुद्ध प्रयोग ग्राह्य नहीं हैं। इनके स्थान पर क्रमश: गृहीत, द्रष्टव्य, प्रदर्शनी, अत्यधिक, अनधिकार ही लिखना चाहिए। | * संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों-का-त्यों ग्रहण किया जाए। अत: 'ब्रह्मा' को 'ब्रम्हा' को 'चिह्न' 'उऋण' को 'उरिण' में बदलना उचित नहीं होगा। इसी प्रकार ग्रहीत, दृष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्याधिक, अनाधिकार आदि अशुद्ध प्रयोग ग्राह्य नहीं हैं। इनके स्थान पर क्रमश: गृहीत, द्रष्टव्य, प्रदर्शनी, अत्यधिक, अनधिकार ही लिखना चाहिए। |
09:55, 24 फ़रवरी 2017 का अवतरण
लिखने की रीति को वर्तनी या अक्षरी कहते हैं। इसे 'हिज्जे' भी कहा जाता है।
उच्चारण
वर्तनी का सीधा संबंध उच्चारण से होता है। हिन्दी में जो बोला जाता है वही लिखा जाता है। यदि उच्चारण अशुद्ध होगा तो वर्तनी भी अशुद्ध होगी। प्रायः अपनी मातृभाषा या बोली के कारण तथा व्याकरण संबंधी ज्ञान की कमी के कारण उच्चारण में अशुद्धियाँ आ जाती हैं जिसके कारण वर्तनी में भी अशुद्धियाँ आ जाती हैं।
संस्कृत भाषा के मूल श्लोकों को अदधृत करते समय संयुक्ताक्षर पुरानी शैली से भी लिखे जा सकेंगे। जैसे:संयुक्त, चिह्न, विद्या, चच्चल, विद्वान, वृद्ध, द्वितीय, बुद्धि आदि। किंतु यदि इन्हें भी उपर्युक्त नियमों के अनुसार ही लिखा जाए तो कोई आपत्ति नहीं होगी।
कारक चिह्न
- हिन्दी के कारक चिह्न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों में प्रातिपदिक से पृथक लिखे जाएँ। जैसे: राम को, राम से, स्त्री से, सेवा में आदि। सर्वनाम शब्दों में ये चिह्न प्रातिपदिक के साथ मिलाकर लिखे जाएँ। जैसे- तूने, आपने, तुमसे, उसने, उससे आदि।
- सर्वनामों के साथ यदि दो कारक चिह्न हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा पृथक लिखा जाए। जैसे- उसके लिए, इसमें से।
- संयुक्त क्रिया पदों में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक-पृथक लिखी जाएँ। जैसे- पढ़ा करता है, आ सकता है, जाया करता है, खाया करता है, जा सकता है, कर सकता है, खेला करेगा, घूमता रहेगा, आदि।
हाइफ़न (योजक चिह्न)
- हाइफ़न का विधान स्पष्टता के लिए किया गया है।
- द्वंद्व समास में पदों के बीच हाइफ़न रखा जाए। राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती संवाद, देख-रेख चाल-चलन हँसी-मजाक, लेन-देन, खेलना-कूदना आदि।
- सा, जैसा आदि से पूर्व हाइफ़न रखा जाए। जैसे: तुम-सा, राम- जैसा, चाकू-से तीखे।
- तत्पुरुष समास में हाइफ़न का प्रयोग केवल वहीं किया जाए जहाँ उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे-भू-तत्व। सामान्यत: तत्पुरुष समास में हाइफ़न लगाने की आवश्यकता नहीं है। जैसे रामराज्य, राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी, आत्महत्या आदि।
इसी तरह यदि 'अ-नख' (बिना नख का) समस्त पद में हाइफ़न न लगाया जाए तो उसे 'अनख' पढ़े जाने से 'क्रोध' का अर्थ निकल सकता है। अ-नति (नम्रता का अभाव) अनति (थोड़ा), अ-परस (जिसे किसी ने न छुआ हो):अपरस (एकचर्मरोग), भू-तत्त्व (पृथ्वी-तत्व) भूतत्त्व (भूत होने का भाव) आदि समस्त पदों की भी यही स्थिति है। ये सभी युग्म वर्तनी और अर्थ दोनों दृष्टियों से भिन्न-भिन्न शब्द हैं।
- कठिन संधियों से बचने के लिए भी हाइफ़न का प्रयोग किया जा सकता है। जैसे-दवि-अक्षर (दव्यक्षर), दवि-अर्थक (दव्यअर्थक) आदि।
अव्यय
- 'तक', 'साथ', आदि अव्यय सदा पृथक लिखे जाएँ। जैसे: यहाँ तक, आपके साथ।
- आह, ओह, अहा, ऐ, ही, तो, सो, भी, न, जब, तब, कब, यहाँ वहाँ, कहाँ, सदा, क्या, श्री, जी, तक, भर, मात्र, साथ, कि, किंतु, मगर, लेकिन, चाहे या अथवा, तथा, यथा, और आदि, अनेक प्रकार के भावों का बोध कराने वाले अव्यय हैं।
कुछ अव्ययों के आगे कारक चिह्न भी आते हैं। जैसे-अब से, तब से, यहाँ से, वहाँ से, सदा से, आदि। नियम के अनुसार अव्यय सदा पृथक लिखे जाने चाहिए। जैसे आप ही के लिए, मुझ तक को, आपके साथ, गज़ भरकपड़ा, देशभर, रातभर, दिनभर, वह इतना भर कर दे, मुझे जाने तो दो, काम भी नहीं बना, पचास रुपए मात्र आदि।
- सम्मानार्थक 'श्री' और 'जी' अव्यय भी पृथक लिखे जाएँ। जैसे:श्रीराम, कन्हैयालाल जी, महात्मा जी आदि। (यदि श्री, जी आदि व्यक्तिवाचक संज्ञा के ही भाग हों तो मिलाकर लिखे जाएँ। जैसे: श्रीराम, रामजी लाल, सोमयाजी आदि)
- समस्त पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखे जाएँ (यानी पृथक नहीं लिखे जाएँ) जैसे प्रतिदिन, प्रतिशत, मानवमात्र, निमित्तमात्र, यथासमय, यथोचित आदि। यह सर्वविदित नियम है कि समास होने पर समस्त पद एक माना जाता है। अत: उसे विभक्त रूप में न लिखकर एक साथ लिखना ही संगत है। 'दस रुपए मात्र' 'मात्र दो व्यक्ति' में पदबंध की रचना है। यहाँ मात्र अलग से लिखा जाए (यानी मिलाकर नहीं लिखें)
अनुस्वर (ं), चंद्रबिन्दु (ँ)
अनुस्वार व्यंजन है और अनुनासिकता स्वर का नासिक्य विकार। हिन्दी में ये दोनों अर्थभेदक भी हैं। अत: हिन्दी में अनुसार (.) और अनुनासिकता चिह्न () दोनों ही प्रचलित रहेंगे।
अनुस्वार
- संस्कृत शब्दों का अनुस्वार अन्य वर्गीय वर्णों से पहले यथावत् रहेगा। जैसे संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, अंश, कंस, आदि।
- संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचम वर्ण के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो एकरुपता और मुद्रण/लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए। जैसे पंकज, गंगा, चंचल, कंजूस, कंठ, ठंडा,संत, संध्या, मंदिर, संपादक आदि (कण्ठ, ठण्डा, संत, मन्दिर, सन्ध्या, सम्पादक, सम्बन्ध, वाले रूप नहीं) कोष्ठक में रखे हुए रूप संस्कृत के उदधरणों में ही मान्य होंगे। हिन्दी में बिंदी (अनुस्वार) का प्रयोग करना ही उचित होगा।
- यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे वाड़मय,अन्य, चिन्मय, उन्मुख, आदि (वांमय, अंय, चिंमय, उंमुख आदि रूप ग्राहय नहीं होंगे)
- पंचम वर्ण यदि दवित्त्व रूप में (दुबारा) आय तो पंचम वर्ण अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे- अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि (अंत, संमेलन, संमति रूप ग्राहय नहीं होंगे)।
- अंग्रेज़ी, उर्दू से गृहीत शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्य व्यंजन को पूरा लिखना अच्छा रहेगा। जैसे लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि।
- संस्कृत के कुछ तत्सम शब्दों के अंत में अनुस्वार का प्रयोग म् का सूचक है। जैसे- अहं (अहम्), एवं (एवम्), शिवं (शिवम्),
अनुनासिकता (चंद्रबिंदु)
- हिन्दी के शब्दों में उचित ढंग से चंद्रबिंदु का प्रयोग अनिवार्य होगा।
- अनुनासिकता व्यंजन नहीं है, स्वरों का ध्वनिगुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में नाक से भी हवा निकलती है। जैसे-आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ।
- चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है। जैसे -हंस:हँस, अंगना: अँगना, स्वांग(स्व+अंग): स्वाँग आदि में।
अतएव ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए। किंतु जहाँ (विशेषकर शिरोरेखा के ऊपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का (अनुस्वार चिह्न का) प्रयोग किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न न करे, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु के प्रयोग की छूट रहेगी। जैसे:नहीं, में मैं, आदि। कविता आदि के प्रसंग में छंद की दृष्टि से चंद्रबिंदु का यथा स्थान अवश्य प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार छोटे बच्चों की प्रवेशिकाओं में जहाँ चंद्रबिंदु का उच्चारण अभीष्ट हो, वहाँ मोटे अक्षरों में उसका यथास्थान सर्वत्र प्रयोग किया जाए। जैसे: कहाँ, हँसना, आँगन, सँवारना, मँ, मैँ नहीँ आदि।
विसर्ग (:)
- संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्त हों तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाए जैसे: 'दु:खानुभूति' में। यदि उस शब्द के तदभव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका हो तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा। जैसे 'दुख-सुख के साथी'।
- तत्सम शब्दों के अंत में प्रयुक्त विसर्ग का प्रयोग अनिवार्य है। यथा:-अत:, पुन:, स्वत:, प्राय:, पूर्णत:, मूलत:, अंतत:, वस्तुत:, क्रमश:, आदि।
- 'ह' का अघोष उच्चरित रूप विसर्ग है, अत: उसके स्थान पर (स) घोष 'ह' का लेखन किसी हालत में न किया जाए (अत: पुन: आदि के स्थान पर अतह, पुनह आदि लिखना अशुद्ध वर्तनी
का उदाहरण माना जाएगा। )
- दु:साहस/दुस्साहस, नि:शब्द/निश्शब्द के उभय रूप मान्य होंगे। इनमें दवित्व वाले रूप को प्राथमिकता दी जाए।
- नि: स्वार्थ मान्य है(निस्सवार्थ उचित नहीं होगा)
- निस्तेज, निर्वचन, निश्चल आदि शब्दों विसर्ग वाला रूप (नि:तेज, नि:वचन, नि:चल) न लिखा जाए।
- अंत:करण, अंत:पुर, प्रात: काल आदि शब्द विसर्ग के साथ ही लिखे जाएँ।
- तदभव/देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न किया जाए। इस आधार पर छ: लिखना ग़लत होगा। छह लिखना ही ठीक होगा।
- प्रायदवीप, समाप्तप्राय आदि शब्दों में तत्सम रूप में भी विसर्ग नहीं है।
- विसर्ग को वर्ण के साथ मिलाकर लिखा जाए, जबकि कोलन चिह्न (उपविराम) शब्द से कुछ दूरी पर हो। जैसे: अत: यों है:-
हल् चिह्न
- इसको हल् चिह्न कहा जाए, न कि हलंत। व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्न उस व्यंजन के स्वर रहित होने की सूचना देता है, यानी वह व्यंजन विशुद्ध रूप से व्यंजन है। इस तरह से 'जगत' हलंत शब्द कहा जाएगा, क्योंकि यह शब्द व्यंजनांत है, स्वरांत नहीं।
- संयुक्ताक्षर बनाने के नियम के अनुसार ड्, छ्, ट्, ठ्, ड्, ढ्, ह् में हल् चिह्न का ही प्रयोग होगा। जैसे;-चिह्न, बुड्ढा, विद्वान आदि में।
- तत्सम शब्दों का प्रयोग वांछनीय हो, तब हलंत रुपों का ही प्रयोग किया जाए; विशेष रूप से तब जब उनसे समस्त पद या व्युत्पन्न शब्द बनते हों। यथा:- प्राक्-(प्रागैतिहास) , तेजस् -(तेजस्वी), विद्युत् -(विद्युल्लता) आदि। तत्सम संबोधन में हे राजन्, हे भगवन् रूप ही स्वीकृत होंगे। हिन्दी शैलीमें हे राजा, हे भगवान लिखे जाएँ। जिन शब्दों में हल् चिह्न लुप्त हो चुका हो उनमें उसे फिर से लगाने का प्रयत्न न किया जाए। जैसे:- महान विद्वान आदि (क्योंकि हिन्दी में अब 'महान' से 'महानता' और 'विद्वानों' जैसे रूप प्रचलित हो चुके हैं।
- व्याकरण ग्रंथों में व्यंजन संधि समझाते हुए केवल उतने ही शब्द दिए जाएँ, जो शब्द रचना को समझने के लिए आवश्यक हों (उत्+नयन=उन्नयन, उत्+लास=उल्लास) या अर्थ की दृष्टि से उपयोगी हों (जगदीश, जगन्माता, जगज्जननी)।
- हिन्दी में हृदयंगम (हृदयम्+गम), संचित(सम्+चित्) आदि शब्दों का संधि-विच्छेद समझाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इसी तरह 'साक्षात्कार', 'जगदीश', 'षट्कोण', जैसे शब्दों के अर्थ को समझाने की आवश्यकता हो, तभी उनकी संधि का हवाला दिया जाए। हिन्दी में इन्हें स्वतंत्र शब्दों के रूप में ग्रहण करना ही अच्छा होगा।
स्वर परिवर्तन
- संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों-का-त्यों ग्रहण किया जाए। अत: 'ब्रह्मा' को 'ब्रम्हा' को 'चिह्न' 'उऋण' को 'उरिण' में बदलना उचित नहीं होगा। इसी प्रकार ग्रहीत, दृष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्याधिक, अनाधिकार आदि अशुद्ध प्रयोग ग्राह्य नहीं हैं। इनके स्थान पर क्रमश: गृहीत, द्रष्टव्य, प्रदर्शनी, अत्यधिक, अनधिकार ही लिखना चाहिए।
- जिन तत्सम शब्दों में तीन व्यंजनों के संयोग की स्थिति में एक द्वित्वमूलक व्यंजन लुप्त हो गया है उसे न लिखने की छूट है।:- अर्द्ध-अर्ध, तत्त्व-तत्त्व आदि।
'ए','औ',का प्रयोग
- हिन्दी में ऐ, औ का प्रयोग दो प्रकार के उच्चारण को व्यक्त करने के लिए होता है। पहले प्रकार का उच्चारण 'है', और 'और', आदि में मूल स्वरों की तरह होने लगा है; जबकि दूसरे प्रकार का उच्चारण 'गवैया' , 'कौआ' आदि शब्दों में संध्यक्षरों के रूप में आज भी सुरक्षित है। दोनों ही प्रकार के उच्चारणों को व्यक्त करने के लिए इन्हीं चिह्नों(ऐ, औ) का प्रयोग किया जाए। 'गवय्या', कव्वा', आदि संशोधनों की आवश्यकता नहीं है। अन्य उदाहरण हैं:- भैया, सैयद, तैयार, हौवा, आदि।
- दक्षिण के अय्यर, नय्यर, रामय्या, आदि व्यक्ति नामों को हिन्दी उच्चारण के अनुसार ऐयर, नैयर, रामैया आदि न लिखा जाए, क्योंकि मूल भाषा में इसका उच्चारण भिन्न है।
- अव्वल, क़व्वाल, क़व्वाली जैसे शब्द प्रचलित हैं। इन्हें लेखन में यथावत रखा जाए।
- संस्कृत के तत्सम शब्द 'शय्या' को 'शैया' न लिखा जाए।
पूर्वकालिक कृदंत प्रत्यय 'कर'
- पूर्वकालिन कृदंत प्रत्यय 'कर' क्रिया से मिलाकर लिखा जाए। जैसे :- मिलाकर, खा+पीकर, रो+रोकर आदि।
- कर+कर से 'करके' और करा+ कर से 'कराके' बनेगा।
वाला
- क्रिया रुपों में 'करने वाला' 'आने वाला' 'बोलने वाला' आदि को अलग लिखा जाए। जैसे: - मैं घर जाने वाला हूँ जाने वाले लोग।
- योजक प्रत्यय के रूप में 'घरवाला' 'टोपीवाला' , 'दिलवाला', दूधवाला आदि एक शब्द के समान ही लिखे जाएँगे।
- 'वाला' जब प्रत्यय के रूप में आएगा तब तो नियम 2 के अनुसार मिलाकर लिखा जाएगा, अन्यथा अलग से। यह वाला, यह वाली, पहले वाला, अच्छा वाला, लाल वाला, कल वाली, बात आदि में वाला निर्देशक शब्द है। अत: इसे अलग ही लिखा जाए।
इसी तरह लंबे बालों वाली लड़की दाढ़ी वाला आदमी आदि शब्दों में भी वाला अलग लिखा जाएगा। इससे हम रचना के स्तर पर अंतर कर सकते हैं। जैसे- गाँववाला, गाँव वाला मकान,
श्रुतिमूलक 'य', 'व'
- जहाँ श्रुतिमूलक य, व का प्रयोग विकल्प से होता है वहाँ न किया जाए, अर्थात् किए: किये, नई: नयी, हुआ: हुवा आदि में से पहले (स्वरात्मक) रुपों का प्रयोग किया जाए। यह नियम क्रिया, विशेषण, अव्यय आदि सभी रुपों और स्थितियों में लागू माना जाए। जैसे:- दिखाए गए, राम के लिए, पुस्तक लिये हुए, नई दिल्ली आदि।
- जहाँ 'य' श्रुतिमूलक व्याकरणिक परिवर्तन न होकर शब्द का ही मूल तत्त्व हो वहाँ वैकल्पिक श्रुतिमूलक स्वरात्मक परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है।
जैसे:- स्थायी, अव्ययीभाव, दायित्व आदि (अर्थात् यहाँ स्थाई, अव्यईभाव, दाइत्व नहीं लिखा जाएगा)।
विदेशी ध्वनियाँ
उर्दू शब्द-
उर्दू से आए अरबी -फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिन्दी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिन्दी ध्वनियों में रुपांतर हो चुका है, हिन्दी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे:- कलम क़िला दाग़ आदि (क़लम, क़िला दाग़) नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्यक हो, वहाँ उनके हिन्दी में प्रचलित रुपों में यथास्थान नुक्ते लगाए जाएँ। जैसे:-खाना: ख़ाना, राज: राज़ फन: फ़न आदि।
अंग्रेज़ी शब्द
अंग्रेज़ी के जिन शब्दों में अर्धविवृत 'ओ' ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध रूप का हिन्दी में प्रयोग अभीष्ट होने पर 'आ' की मात्रा के ऊपर अर्धचंद्र का प्रयोग किया जाए (ऑ) जहाँ तक अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं से नए शब्द ग्रहण करने और उनके देवनागरी लिप्यंतरण का संबंध है, अगस्त-सितंबर, 1962 में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा वैज्ञानिक शब्दावली पर आयोजित भाषाविदों की संगोष्ठी में अंतरराष्ट्रीय शब्दावली के देवनागरी लिप्यंतरण के संबंध में की गई सिफ़ारिश उल्लेखनीय है। उसमें कहा गया है कि अंग्रेज़ी शब्दों का लिप्यंतरण इतना क्लिष्ट नहीं होना चाहिए कि उसके वर्तमान देवनागरी वर्णों में अनेक नए संकेत-चिह्न लगाने पड़ें। अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मानक अंग्रेज़ी उच्चारण के अधिक-से अधिक निकट होना चाहिए।
द्विधा रूप वर्तनी
हिन्दी में कुछ प्रचलित शब्द ऐसे हैं जिनकी वर्तनी के दो-दो रूप बराबर चल रहे हैं। विद्वत्समाज में दोनों रुपों की एक सी मान्यता है। कुछ उदाहरण हैं:- गरदन/गर्दन, गरमी/गर्मी, बरफ़/बर्फ़, बिलकुल/बिल्कुल, वापस/वापिस, बीमारी/बिमारी, दुकान/दूकान, आखिरकार/आखीरकार, चिहन/चिन्ह आदि।
अन्य नियम
- शिरोरेखा का प्रयोग प्रचलित रहेगा।
- फुलस्टॉप (पूर्ण विराम) को छोड़कर शेष विराममादि चिह्न वही ग्रहण कर लिये गए हैं अंग्रेज़ी में प्रचलित हैं। यथा:- (हाइफ़न/योजक चिह्न), (डैश/निर्देशक चिह्न), (कोलन एंड डैश/विवरण चिह्न) (कोमा/अल्पविराम), (सेमीकोलन/अर्धविराम),: (कोलन/उपविराम), ? (क्वश्चन मार्क/प्रश्न चिह्न) ! (साइन ऑफ़ इंटेरोगेशन/विस्मयसूचक चिह्न), (अपोस्ट्राफ़ी/ऊर्ध्व अल्प विराम), " " (डबल इंवर्टेड कोमाज़/उद्धारणचिह्न), () [] (तीनों कोष्ठक),
(...लोप चिह्न), (संक्षेपसूचक चिह्न) (हंसपद)।
- विसर्ग के चिह्न को ही कोलन का चिह्न मान लिया गया है। पर दोनों में यह अंतर रखा गया है कि विसर्ग वर्ण से सटाकर और कोलन शब्द से कुछ दूरी पर रहे।
- पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई (।) का ही प्रयोग किया जाए। वाक्य के अंत में बिंदु (अंग्रेज़ी फुलस्टॉप) का नहीं।
मानक वर्तनी के प्रयोग का उदाहरण
हिन्दी एक विकासशील भाषा है। संघ की राजभाषा घोषित हो जाने के बाद यह शनै:-शनै: अखिल भारतीय रूप ग्रहण कर रही है। अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के संपर्क में आकर, उनसे बहुत कुछ ग्रहण करके और हिन्दीतर भाषियों द्वारा प्रयुक्त होते-होते उसका यथासमय एक सर्वसम्मत अखिल भारतीय रूप विकसित होगा-ऐसी आशा है। यद्यपि यह सही है कि एक विस्तृत भू-खंड में और बहुभाषी समाज के बीच व्यवह्रत किसी भी विकासशील भाषा के उच्चारणगत गठन में अनेकरुपता मिलना स्वाभाविक है, उसे व्याकरण के कठोर नियमों में जकड़ा नहीं जा सकता; उसके प्रयोगकर्ताओं को किसी ऐसे शब्द को, जिसके दो या अधिक समानांतर रूप प्रचलित हो चुके हों, एक विशेष रूप में प्रयुक्त करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता; ऐसे शब्दारुपों के बारे में किसी विशेषज्ञ समिति द्वारा निर्णय दे देने के बाद भी उनकी ग्राह्यता-अग्राह्यता के विषय में मतभेद बना ही रहता है; फिर भी प्रथमत: कम-से-कम लेखन, टंकन और मुद्रण के क्षेत्र में तो हिन्दी भाषा में एकरूपता और मानकीकरण की तत्काल आवश्यकता है। क्या ऐसा करना आज के यंत्राधीन जीवन की अनिवार्यता नहीं है? भाषा विषयक कठोर नियम बना देने से उनकी स्वीकार्यता तो संदेहास्पद हो जाती है, साथ ही भाषा के स्वाभाविक विकास में भी अवरोध आने का थोड़ा सा डर रहता है। फलत: भाषा गतिशील, जीवंत और समयानुरूप नहीं रह पाती। हिन्दी वर्णमाला के मानकीकरण में और हिन्दी वर्तनी के एकरुपता विषयक नियम निर्धारित करते समय इन सब तथ्यों को ध्यान में रखा गया है और इसीलिए, जहाँ तक बन पड़ा है, काफ़ी हद तक उदारतापूर्ण नीति अपनाई गई है।
हिन्दी के संख्यावाचक शब्दों की एकरूपता
हिन्दी प्रदेशों में संख्यावाचक शब्दों के उच्चारण और लेखन में प्राय: एकरुपता का अभाव दिखाई देता है। इसलिए एक से सौ तक सभी संख्यावाचक शब्दों पर विचार करने के बाद इनका जो मानक रूप स्वीकृत हुआ, वह इस प्रकार है:- एक, दो, तीन, चार, पाँच , छह, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह, सोलह, सत्रह, अठारह, उन्नीस, बीस, इक्कीस, बाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस, बत्तीस, तैंतीस, चौंतीस, पैंतीस, छत्तीस, सैंतीस, अड़तीस, उनतालीस, चालीस, इकतालीस, बयालीस, तैंतालीस, चौवालीस, पैंतालीस, छियालीस, सैंतालीस, अड़तालीस, उनचास, पचास, इक्यावन, बावन, तिरपन, चौवन, पचपन, छप्पन, सत्तावन, अट्ठावन, उनसठ, साठ, इकसठ, बासठ, तिरसठ, चौंसठ, पैंसठ, छियासठ, सड़सठ, अड़सठ, उनहत्तर, सत्तर, इकहत्तर, बहत्तर, तिहत्तर, चौहत्तर, पचहत्तर, छिहत्तर, सतहत्तर, अठहत्तर, उन्यासी, अस्सी, इक्यासी, बयासी, तिरासी, चौरासी, पचासी, छियासी, सत्तासी, अट्ठासी, नवासी, नब्बे, इक्यानबे, बानबे, तिरानबे, चौरानबे, पंचानबे, छियानबे, सत्तानबे, अट्ठानबे, निन्यानबे, सौ।
क्रमसूचक संख्याएँ
पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ (प्रथम द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम)।
भिन्नसूचक संख्याएँ
एक चौथाई, आधा, पौन, सवा(सवा एक नहीं), डेढ़ (साढ़े एक नहीं), पौने दो, सवा दो, ढाई, (साढ़े दो नहीं), पौने तीन, सवा तीन, साढ़े तीन, आदि।
मानक वर्तनी
भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने सन् 1983 में शिक्षा मंत्रालय द्वारा पूर्व में किए हिन्दी भाषा की लिपि व वर्तनी के मानकीकरण संबंधी प्रयासों का समन्वित रूप 'देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' के रूप में प्रस्तुत किया। इन्होंने वर्तनी के सम्बन्ध में कुछ सुझाव प्रस्तुत किये है जिनका विवरण इस प्रकार है:-
- खड़ी पाई वाले व्यंजन
खड़ी पाई वाले व्यंजनों के संयुक्त रूप परंपरागत तरीके से खड़ी पाई को हटाकर ही बनाए जाएँ। यथा:-
ख्याति, लग्न, विघ्न | व्यास |
कच्चा, छज्जा | श्लोक |
नगण्य | राष्ट्रीय |
कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास | स्वीकृत |
प्यास, डिब्बा, सभ्य, रम्य | यक्ष्मा |
शय्या | त्र्यंबक |
- अन्य व्यंजन
- क और फ / फ़ के संयुक्ताक्षर पक्का, दफ़्तर आदि की तरह बनाए जाएँ, न कि संयुक्त, पक्का दत्फर की तरह।
- ङ, छ, ट, ठ, ड, ढ, द और ह के संयुक्ताक्षर हल चिह्न लगाकर ही बनाए जाएँ। यथा:-
अशुद्ध | शुद्ध |
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वाङमय | वाङ्मय |
विदया | विद्या |
चिहन | चिह्न |
- संयुक्त 'र' के प्रचलित तीनों रूप यथावत् रहेंगे। यथा:- प्रकार, धर्म, राष्ट्र
- श्र का प्रचलित रूप ही मान्य होगा। इसे श के साथ र मिश्रित करके नहीं लिखा जाएगा। त + र के संयुक्त रूप के लिए पहले त्र को मानक माना गया है। इसी तरह अन्य संयुक्त व्यंजनों पर भी यही नियम लागू होंगे। जैसे:- क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र आदि
- हल् चिह्न युक्त वर्ण से बनने वाले संयुक्ताक्षर के द्वितीय व्यंजन के साथ 'इ' की मात्रा का प्रयोग संबंधित व्यंजन के तत्काल पूर्व ही किया जाएगा, न कि पूरे युग्म से पूर्व। यथा:-
अशुद्ध | शुद्ध |
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कुटटिम | कुट्टिम |
चिटठियाँ | चिट्ठियाँ |
अशुद्धियाँ
प्रायः लोग जिन शब्दों के उच्चारण एवं वर्तनी में अशुद्धियाँ करते हैं, उन शब्दों के अशुद्ध और शुद्ध रूप आगे तालिका में दिये जा रहे हैं-
- स्वर संबंधी अशुद्धियाँ
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- व्यंजन संबंधी अशुद्धियाँ
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