"श्राद्ध वर्जना": अवतरणों में अंतर

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विष्णुधर्मसूत्र[1] ने व्यवस्था दी है कि म्लेच्छदेश में न तो श्राद्ध करना चाहिए और न ही जाना चाहिए; उसमें पुन: कहा गया है कि म्लेच्छदेश वह है जिसमें चार वर्णों की परम्परा नहीं पायी जाती है। वायु पुराण ने व्यवस्था दी है कि त्रिशंकु देश, जिसका बारह योजन विस्तार है, जो कि महानदी के उत्तर और कीकट (मगध) के दक्षिण में है, श्राद्ध के लिए योग्य नहीं हैं। इसी प्रकार कारस्कर, कलिंग, सिंधु के उत्तर का देश और वे सभी देश जहाँ वर्णाश्रम की व्यवस्था नहीं पायी जाती है, श्राद्ध के लिए यथासाध्य त्याग देने चाहिए। ब्रह्मपुराण[2] ने कुछ सीमा तक एक विचित्र बात कही है कि निम्नलिखित देशों में श्राद्ध कर्म का यथासम्भव परिहार करना चाहिए–किरात देश, कलिंग, कोंकण, क्रिमि (क्रिवि?), दशार्ण, कुमार्य (कुमारी अन्तरीप), तंगण, क्रथ, सिंधु नदी के उत्तरी तट, नर्मदा का दक्षिणी तट एवं करतोया का पूर्वी भाग।

मार्कण्डेयपुराण[3] ने व्यवस्था दी है कि श्राद्ध के लिए उस भूमि को त्याग देना चाहिए जो कि कीट-पतंगों से युक्त, रूक्ष, अग्नि से दग्ध है, जिसमें कर्णकटु ध्वनि होती है, जो कि देखने में भयंकर और दुर्गन्धपूर्ण है। प्राचीन काल से ही कुछ व्यक्तियों एवं पशुओं को श्राद्धस्थल से दूर रखने को कहा गया है, उन्हें श्राद्धकृत्य को देखने या अन्य प्रकारों से विघ्न डालने की अनुमति नहीं है। गौतम[4] ने व्यवस्था दी है कि कुत्तों, चाण्डालों एवं महापातकों के अपराधियों से देखा गया भोजन अपवित्र (अयोग्य) हो जाता है, इसलिए श्राद्ध कर्म कम घिरे हुए स्थल में किया जाना चाहिए; या कर्ता को उस स्थल के चतुर्दिक तिल बिखेर देने चाहिए या कियी योग्य ब्राह्मण को, जो अपनी उपस्थिति से पंक्ति को पवित्र कर देता है, उस दोष (कुत्ता या चाण्डाल द्वारा देखे गये भोजन आदि दोष) को दूर करने के लिए शान्ति का सम्पादन करना चाहिए।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने कहा है कि विद्वान लोगों ने कुत्तों, पतितों, कोढ़ी, खल्वाट व्यक्ति, परदारा से यौन सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति, आयुधजीवी ब्राह्मण के पुत्र तथा शूद्रा से उत्पन्न ब्राह्मणपुत्र द्वारा देखे गये श्राद्ध की भर्त्सना की है–यदि ये लोग श्राद्ध भोजन करते हैं तो वे उस पंक्ति में बैठकर खानेवाले व्यक्तियों को अशुद्ध कर देते हैं। मनु[5] ने कहा है–चाण्डाल, गाँव के सूअर या मुर्गा, कुत्ता, रजस्वला एवं क्लीव को भोजन करते समय ब्राह्मणों को देखने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। इन लोगों के द्वारा यदि होम (अग्निहोत्र), दान (गाय एवं सोने का) कृत्य देख लिया जाए, या जब ब्राह्मण भोजन कर रहे हों या किसी धार्मिक कृत्य (दर्श-पूर्णमास आदि) के समय या श्राद्ध के समय ऐसे लोगों की दृष्टि पड़ जाये तो सब कुछ फलहीन हो जाता है। सूअर देवों या पितरों के लिए अर्पित भोजन को केवल सुँघकर, मुर्गा भागता हुआ उड़ता हुआ, कुत्ता केवल दृष्टि –निक्षेप से एवं नीच जाति स्पर्श से (उस भोजन को) अशुद्ध कर देते हैं। यदि कर्ता का नौकर लंगड़ा, ऐंचाताना, अधिक या कम अंगवाला (11 या 9 आदि अंगुलियों वाला) हो तो उसे श्राद्ध सम्पादन स्थल से बाहर कर देना चाहिए। अनुशासन पर्व में आया है कि रजस्वला या पुत्रहीन नारी या चरक ग्रस्त (श्वित्री) द्वारा श्राद्धभोजन नहीं देखा जाना चाहिए। विष्णुधर्मसूत्र[6] में श्राद्ध के निकट आने की अनुमति न पानेवाले 30 व्यक्तियों की सूची है। कूर्म पुराण[7] का कथन हे कि किसी अंगहीन, पतित, कोढ़ी, पूयव्रण (पके हुए घाव) से ग्रस्त, नास्तिक, मुर्गा, सूअर, कुत्ता आदि को श्राद्ध से दूर रखना चाहिए; घृणास्पर रूप वाले, अपवित्र, वस्त्रहीन, पागल, जुआरी, रजस्वला, नील रंग या पीत-लोहित वस्त्र धारण करने वालों एवं नास्तिकों को श्राद्ध से दूर रखना चाहिए। मार्कण्डेयपुराण[8], वायु पुराण[9], विष्णुपुराण[10] एवं अनुशासन पर्व[11] में भी लम्बी सूचियाँ दी हुई हैं। स्कन्दपुराण[12] ने भी लिखा है कि कुत्ते, रजस्वला, पतित एवं वराह (सूअर) को श्राद्धकृत्य देखने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय 84)
  2. ब्रह्मपुराण (220|8-10)
  3. मार्कण्डेयपुराण (29|19=श्राद्ध प्र., पृ. 139)
  4. गौतम (15|25-28)
  5. मनु (3|239-242)
  6. विष्णुधर्मसूत्र (82|3)
  7. कूर्म पुराण (2|22|34-35)
  8. मार्कण्डेयपुराण (32|20-24)
  9. वायु पुराण (78|26-40)
  10. विष्णुपुराण (3|16|12-14)
  11. अनुशासन पर्व (91|43-44)
  12. स्कन्दपुराण (6|217|43)

बाहरी कड़ियाँ

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