"जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला -गोपालदास नीरज": अवतरणों में अंतर

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<poem>जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला,
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मेरे स्वागत को हर एक जेब से खंजर निकला ।
जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला,
मेरे स्वागत को हर एक जेब से खंजर निकला।


तितलियों फूलों का लगता था जहाँ पर मेला,
तितलियों फूलों का लगता था जहाँ पर मेला,
प्यार का गाँव वो बारूद का दफ़्तर निकला ।
प्यार का गाँव वो बारूद का दफ़्तर निकला।


डूब कर जिसमे उबर पाया न मैं जीवन भर,
डूब कर जिसमें उबर पाया न मैं जीवन भर,
एक आँसू का वो कतरा तो समुंदर निकला ।
एक आँसू का वो क़तरा तो समुंदर निकला।


मेरे होठों पे दुआ उसकी जुबाँ पे ग़ाली,
मेरे होठों पे दुआ उसकी जुबाँ पे ग़ाली,
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला ।
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला।


ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा,
ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा,
मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला ।
मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला।


वो तेरे द्वार पे हर रोज़ ही आया लेकिन,
वो तेरे द्वार पे हर रोज़ ही आया लेकिन,
नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला ।
नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला।


रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई,
रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई,
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला ।
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला।


क्या अजब है इंसान का दिल भी 'नीरज'
क्या अजब है इंसान का दिल भी 'नीरज'
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला ।
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला।


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12:32, 25 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला -गोपालदास नीरज
गोपालदास नीरज
गोपालदास नीरज
कवि गोपालदास नीरज
जन्म 4 जनवरी, 1925
मुख्य रचनाएँ दर्द दिया है, प्राण गीत, आसावरी, गीत जो गाए नहीं, बादर बरस गयो, दो गीत, नदी किनारे, नीरज की पाती, लहर पुकारे, मुक्तकी, गीत-अगीत, विभावरी, संघर्ष, अंतरध्वनी, बादलों से सलाम लेता हूँ, कुछ दोहे नीरज के
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
गोपालदास नीरज की रचनाएँ

जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला,
मेरे स्वागत को हर एक जेब से खंजर निकला।

तितलियों फूलों का लगता था जहाँ पर मेला,
प्यार का गाँव वो बारूद का दफ़्तर निकला।

डूब कर जिसमें उबर पाया न मैं जीवन भर,
एक आँसू का वो क़तरा तो समुंदर निकला।

मेरे होठों पे दुआ उसकी जुबाँ पे ग़ाली,
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला।

ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा,
मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला।

वो तेरे द्वार पे हर रोज़ ही आया लेकिन,
नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला।

रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई,
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला।

क्या अजब है इंसान का दिल भी 'नीरज'
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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