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ज़रथुष्ट्र (ज़रथुष्त्र) धर्म विश्व का एक अत्यंत प्राचीन धर्म है, जिसकी स्थापना [[आर्य|आर्यों]] की ईरानी शाखा के एक संत ज़रथुष्ट्र ने की थी। [[इस्लाम]] के आविर्भाव के पूर्व प्राचीन [[ईरान]] में ज़रथुष्ट्र धर्म का ही प्रचलन था। सातवीं शताब्दी में अरबों ने ईरान को पराजित कर वहाँ के ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बियों को जबरन इस्लाम में दीक्षित कर लिया था। ऐसी मान्यता है कि कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और वे एक नाव पर सवार होकर [[भारत]] भाग आये और यहाँ [[गुजरात]] तट पर नवसारी में आकर बस गये। वर्तमान में भारत में उनकी जनसंख्या लगभग एक लाख है, जिसका 70% [[बम्बई]] में रहते हैं।  
'''पारसी धर्म''' या 'ज़रथुष्ट्र (ज़रथुष्त्र) धर्म' विश्व का अत्यंत प्राचीन धर्म है, जिसकी स्थापना [[आर्य|आर्यों]] की ईरानी शाखा के एक [[ज़रथुष्ट्र|संत ज़रथुष्ट्र]] ने की थी। [[इस्लाम]] के आविर्भाव के पूर्व प्राचीन [[ईरान]] में ज़रथुष्ट्र धर्म का ही प्रचलन था। सातवीं शताब्दी में अरबों ने ईरान को पराजित कर वहाँ के ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बियों को जबरन [[इस्लाम धर्म|इस्लाम]] में दीक्षित कर लिया था। ऐसी मान्यता है कि कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और वे एक नाव पर सवार होकर [[भारत]] भाग आये और यहाँ [[गुजरात]] तट पर नवसारी में आकर बस गये। वर्तमान में भारत में उनकी जनसंख्या लगभग एक लाख है, जिसका 70% [[बम्बई]] में रहते हैं।
 
संत ज़रथुष्ट्र को [[ऋग्वेद]] के [[अंगिरा]], [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। परन्तु ऋग्वेदिक ऋषियों के विपरीत ज़रथुष्ट्र ने एक संस्थागत धर्म का प्रतिपादन किया। सम्भवत: किसी संस्थागत धर्म के वे प्रथम पैगम्बर थे। इतिहासकारों का मत है कि वे 1700-1500 ई.पू. के बीच सक्रिय थे। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था। 30 वर्ष की आयु में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ । उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई।
==अर्थ==
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पारसी या ज़रथुष्ट्र धर्म एकैकाधिदेववादी धर्म है, जिसका तात्पर्य यह है कि पारसी लोग एक ईश्वर 'अहुरमज्द' में आस्था रखते हुए भी अन्य देवताओं की सत्ता को नहीं नकारते। यद्यपि अहुरमज्द उनके सर्वोच्च देवता हैं, परन्तु दैनिक जीवन के अनुष्ठानों व कर्मकांडों में '[[अग्निदेव|अग्नि]]' उनके प्रमुख देवता के रूप में दृष्टिगत होते हैं। इसीलिए पारसियों को अग्निपूजक भी कहा जाता है। पारसियों की शव-विसर्जन विधि विलक्षण है। वे शवों को किसी ऊँची मीनार पर खुला छोड़ देते हैं, जहाँ गिद्ध-चील उसे नोंच-नांचकर खा जाते हैं। बाद में उसकी अस्थियाँ एकत्रित कर दफना दी जाती है। परन्तु हाल के वर्षों में इस परम्परा में कमी हो रही है और शव को सीधे दफनाया जा रहा है।  
==स्थापना==
पारसी धर्म को 'ज़रथुष्ट्र धर्म' भी कहा जाता है, क्योंकि संत ज़रथुष्ट्र ने इसकी शुरुआत की थी। संत ज़रथुष्ट्र को [[ऋग्वेद]] के [[अंगिरा]], [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। परन्तु ऋग्वेदिक ऋषियों के विपरीत ज़रथुष्ट्र ने एक संस्थागत धर्म का प्रतिपादन किया। सम्भवत: किसी संस्थागत धर्म के वे प्रथम पैगम्बर थे। इतिहासकारों का मत है कि वे 1700-1500 ई.पू. के बीच सक्रिय थे। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था। 30 वर्ष की आयु में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ । उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई।
====अर्थ====
'पारसी' या 'ज़रथुष्ट्र' धर्म एकैकाधिदेववादी धर्म है, जिसका तात्पर्य यह है कि पारसी लोग एक ईश्वर 'अहुरमज्द' में आस्था रखते हुए भी अन्य देवताओं की सत्ता को नहीं नकारते। यद्यपि अहुरमज्द उनके सर्वोच्च देवता हैं, परन्तु दैनिक जीवन के अनुष्ठानों व कर्मकांडों में '[[अग्निदेव|अग्नि]]' उनके प्रमुख देवता के रूप में दृष्टिगत होते हैं। इसीलिए पारसियों को अग्निपूजक भी कहा जाता है। पारसियों की शव-विसर्जन विधि विलक्षण है। वे शवों को किसी ऊँची मीनार पर खुला छोड़ देते हैं, जहाँ गिद्ध-चील उसे नोंच-नांचकर खा जाते हैं। बाद में उसकी अस्थियाँ एकत्रित कर दफना दी जाती है। परन्तु हाल के वर्षों में इस परम्परा में कमी हो रही है और शव को सीधे दफनाया जा रहा है।  
==धर्मदीक्षा संस्कार==
==धर्मदीक्षा संस्कार==
ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बियों के दो अत्यंत पवित्र चिह्न हैं- सदरो (पवित्र कुर्ती) और पवित्र धागा। धर्मदीक्षा संस्कार के रूप में ज़रथुष्ट्रधर्मी बालक तथा बालिका- दोनों को एक विशेष समारोह में ये पवित्र चिह्न दिये जाते हैं, जिन्हें वे आजीवन धारण करते हैं। मान्यता है कि इन्हें धारण करने से व्यक्ति दुष्प्रभावों और दुष्ट आत्माओं से सुरक्षित रह सकता है। विशेष आकृति वाली सदरों को निर्माण सफ़ेद सूती कपड़े के नौ टुकड़ों से किया जाता है। इसमें एक जेब होती है, जिसे 'किस्म-ए-कर्फ' कहते हैं। पवित्र धागा, जिसे 'कुश्ती' कहते हैं, ऊन के 72 धागों को बंटकर बनाते हैं और उसे कमर के चारों ओर बांध दिया जाता है, जिसमें दो गांठें सामने और दो गांठे पीछे बांधी जाती हैं।  
ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बियों के दो अत्यंत पवित्र चिह्न हैं- सदरो (पवित्र कुर्ती) और पवित्र धागा। धर्मदीक्षा संस्कार के रूप में ज़रथुष्ट्रधर्मी बालक तथा बालिका- दोनों को एक विशेष समारोह में ये पवित्र चिह्न दिये जाते हैं, जिन्हें वे आजीवन धारण करते हैं। मान्यता है कि इन्हें धारण करने से व्यक्ति दुष्प्रभावों और दुष्ट आत्माओं से सुरक्षित रह सकता है। विशेष आकृति वाली सदरों को निर्माण सफ़ेद सूती कपड़े के नौ टुकड़ों से किया जाता है। इसमें एक जेब होती है, जिसे 'किस्म-ए-कर्फ' कहते हैं। पवित्र धागा, जिसे 'कुश्ती' कहते हैं, ऊन के 72 धागों को बंटकर बनाते हैं और उसे कमर के चारों ओर बांध दिया जाता है, जिसमें दो गांठें सामने और दो गांठे पीछे बांधी जाती हैं।  
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#'''अमेश स्पेन्ता'''- यज़तों की स्तुति।  
#'''अमेश स्पेन्ता'''- यज़तों की स्तुति।  


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==संबंधित लेख==
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09:49, 5 अगस्त 2013 का अवतरण

पारसी धर्म का प्रतीक

पारसी धर्म या 'ज़रथुष्ट्र (ज़रथुष्त्र) धर्म' विश्व का अत्यंत प्राचीन धर्म है, जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक संत ज़रथुष्ट्र ने की थी। इस्लाम के आविर्भाव के पूर्व प्राचीन ईरान में ज़रथुष्ट्र धर्म का ही प्रचलन था। सातवीं शताब्दी में अरबों ने ईरान को पराजित कर वहाँ के ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बियों को जबरन इस्लाम में दीक्षित कर लिया था। ऐसी मान्यता है कि कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और वे एक नाव पर सवार होकर भारत भाग आये और यहाँ गुजरात तट पर नवसारी में आकर बस गये। वर्तमान में भारत में उनकी जनसंख्या लगभग एक लाख है, जिसका 70% बम्बई में रहते हैं।

स्थापना

पारसी धर्म को 'ज़रथुष्ट्र धर्म' भी कहा जाता है, क्योंकि संत ज़रथुष्ट्र ने इसकी शुरुआत की थी। संत ज़रथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। परन्तु ऋग्वेदिक ऋषियों के विपरीत ज़रथुष्ट्र ने एक संस्थागत धर्म का प्रतिपादन किया। सम्भवत: किसी संस्थागत धर्म के वे प्रथम पैगम्बर थे। इतिहासकारों का मत है कि वे 1700-1500 ई.पू. के बीच सक्रिय थे। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था। 30 वर्ष की आयु में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ । उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई।

अर्थ

'पारसी' या 'ज़रथुष्ट्र' धर्म एकैकाधिदेववादी धर्म है, जिसका तात्पर्य यह है कि पारसी लोग एक ईश्वर 'अहुरमज्द' में आस्था रखते हुए भी अन्य देवताओं की सत्ता को नहीं नकारते। यद्यपि अहुरमज्द उनके सर्वोच्च देवता हैं, परन्तु दैनिक जीवन के अनुष्ठानों व कर्मकांडों में 'अग्नि' उनके प्रमुख देवता के रूप में दृष्टिगत होते हैं। इसीलिए पारसियों को अग्निपूजक भी कहा जाता है। पारसियों की शव-विसर्जन विधि विलक्षण है। वे शवों को किसी ऊँची मीनार पर खुला छोड़ देते हैं, जहाँ गिद्ध-चील उसे नोंच-नांचकर खा जाते हैं। बाद में उसकी अस्थियाँ एकत्रित कर दफना दी जाती है। परन्तु हाल के वर्षों में इस परम्परा में कमी हो रही है और शव को सीधे दफनाया जा रहा है।

धर्मदीक्षा संस्कार

ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बियों के दो अत्यंत पवित्र चिह्न हैं- सदरो (पवित्र कुर्ती) और पवित्र धागा। धर्मदीक्षा संस्कार के रूप में ज़रथुष्ट्रधर्मी बालक तथा बालिका- दोनों को एक विशेष समारोह में ये पवित्र चिह्न दिये जाते हैं, जिन्हें वे आजीवन धारण करते हैं। मान्यता है कि इन्हें धारण करने से व्यक्ति दुष्प्रभावों और दुष्ट आत्माओं से सुरक्षित रह सकता है। विशेष आकृति वाली सदरों को निर्माण सफ़ेद सूती कपड़े के नौ टुकड़ों से किया जाता है। इसमें एक जेब होती है, जिसे 'किस्म-ए-कर्फ' कहते हैं। पवित्र धागा, जिसे 'कुश्ती' कहते हैं, ऊन के 72 धागों को बंटकर बनाते हैं और उसे कमर के चारों ओर बांध दिया जाता है, जिसमें दो गांठें सामने और दो गांठे पीछे बांधी जाती हैं।

ज़रथुष्ट्र धर्म की मान्यता

ज़रथुष्ट्र धर्म में दो शक्तियों की मान्यता है-

  • स्पेन्ता मैन्यू, जो विकास और प्रगति की शक्ति है और
  • अंग्र मैन्यू, जो विघटन और विनाशकारी शक्ति है।

ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बी सात देवदूतों (यज़त) की कल्पना करते हैं, जिनमें से प्रत्येक सूर्य, चंद्रमा, तारे, पृथ्वी, अग्नि तथा सृष्टि के अन्य तत्वों पर शासन करते हैं। इनकी स्तुति करके लोग अहुरमज्द को भी प्रसन्न कर सकते हैं।

धर्मग्रंथ

पारसियों का प्रवित्र धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वेदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखी गई है। ईरान के सासानी काल में जेंद अवेस्ता का पहलवी भाषा में अनुवाद किया गया, जिसे 'पंजंद' कहा जाता है। परन्तु इस ग्रंथ का सिर्फ़ पाँचवा भाग ही आज उपलब्ध है। इस उपलब्ध ग्रंथ भाग को पांच भागों में बांटा गया है-

  1. यस्त्र (यज्ञ)- अनुष्ठानों एवं संस्कारों के मंत्रों का संग्रह,
  2. विसपराद- राक्षसों एवं पिशाचों को दूर रखने के नियम,
  3. यष्ट- पूजा-प्रार्थना,
  4. खोरदा अवेस्ता- दैनिक प्रार्थना पुस्तक,
  5. अमेश स्पेन्ता- यज़तों की स्तुति।


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