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सन [[1940]] के दौर में [[भारत]] में हैजे के कारण होने वाली मौतों की संख्या काफी ज्यादा हुआ करती थी। इनसे दु:खी होकर [[शंभुनाथ डे]] ने हैजे के ऊपर शोध करना शुरू किया था। हालांकि वह उस समय [[लंदन]] स्थित यूनिवर्सिटी कॉलेज हॉस्पीटल मेडिकल स्कूल में आधिकारिक तौर पर दिल की बीमारी से संबंधित एक विषय पर शोध कर रहे थे। वह [[1949]] में भारत लौटकर आए और यहां काम करने लगे।
सन [[1940]] के दौर में [[भारत]] में हैजे के कारण होने वाली मौतों की संख्या काफी ज्यादा हुआ करती थी। इनसे दु:खी होकर [[शंभुनाथ डे]] ने हैजे के ऊपर शोध करना शुरू किया था। हालांकि वह उस समय [[लंदन]] स्थित यूनिवर्सिटी कॉलेज हॉस्पीटल मेडिकल स्कूल में आधिकारिक तौर पर दिल की बीमारी से संबंधित एक विषय पर शोध कर रहे थे। वह [[1949]] में भारत लौटकर आए और यहां काम करने लगे।


शंभुनाथ डे ने हैजा होने के बाद किडनी पर होने वाले असर और उसमें आने वाले अंतर पर शोध करना शुरू किया। सन [[1950]] से [[1955]] के बीच उन्होंने इस विषय से संबंधित कई शोधपत्र प्रकाशित किए। उनके शोध की दिशा उस समय बदल गई, जब उन्होंने गौर किया कि 'कोलकाता में हैजा के मरीजों के शरीर में जहरीला पदार्थ बन जाता है। इससे उन्हें पता चला कि यह बीमारी शुरुआत में ऑर्गेनिजम के कारण होती है और बाद में पीड़ित इंसान के पेट की अवकाशिका में कई गुना फैल जाती है और मरीज की मौत हो जाती है।


उन्हें अपने शोध से पता चला कि हैजा का [[जीवाणु]] एक किस्म का जहरीला पदार्थ शरीर में छोड़ता है और यही ज़हर शरीर पर असर करता है, जिससे कि मरीज की मौत हो जाती है। शंभुनाथ डे ने अपने शोध के नतीजे को खरगोशों के 'लूप मेथड' से साबित किया। स्थानीय विज्ञान समुदाय ने इस नतीजे को मानने से इनकार कर दिया और विदेशी वैज्ञानिकों में शंभुनाथ के शोध व उसके नतीजे को लेकर संदेह बना हुआ था। श्यामल डे के अनुसार- "लेकिन मेरे [[पिता]] को भरोसा था कि उन्होंने जो खोजा है, वह एक नई खोज है। लगभग हर रात वह बोस संस्थान के फिजिकल व प्रोटीन रसायन प्रयोगशाला जाते थे। वहां उन्होंने अपने उपकरण रखे थे और वहीं वह हर रात खरगोशों के ऊपर शोध करते थे। मेडिकल कॉलेज में ज़हर को अलग-थलग कर देने की शोध तकनीक मौजूद नहीं थी। वह कई घंटे तक अपने प्रयोगों का असर देखते, अंतर और नतीजों पर गौर करते और फिर नोट बनाते थे।"<ref name="a"/>
शंभुनाथ डे ने हैजा होने के बाद किडनी पर होने वाले असर और उसमें आने वाले अंतर पर शोध करना शुरू किया। सन [[1950]] से [[1955]] के बीच उन्होंने इस विषय से संबंधित कई शोधपत्र प्रकाशित किए। उनके शोध की दिशा उस समय बदल गई, जब उन्होंने गौर किया कि 'कोलकाता में हैजा के मरीजों के शरीर में जहरीला पदार्थ बन जाता है। इससे उन्हें पता चला कि यह बीमारी शुरुआत में ऑर्गेनिजम के कारण होती है और बाद में पीड़ित इंसान के पेट की अवकाशिका में कई गुना फैल जाती है और मरीज की मौत हो जाती है।<ref>{{cite web |url= http://navbharattimes.indiatimes.com/state/other-states/kolkata/bengal-scientist-who-discovered-the-reason-behind-deaths-from-cholera-remains-lergely-unknown-in-his-own-country/yearendershow10/49779069.cms|title=हैजा का इलाज खोजा, अपने देश में मिली 'गुमनामी' |accessmonthday=16 जुलाई|accessyear= 2017|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=navbharattimes.indiatimes.com |language=हिंदी }}</ref>
 
 
उन्हें अपने शोध से पता चला कि हैजा का [[जीवाणु]] एक किस्म का जहरीला पदार्थ शरीर में छोड़ता है और यही ज़हर शरीर पर असर करता है, जिससे कि मरीज की मौत हो जाती है। शंभुनाथ डे ने अपने शोध के नतीजे को खरगोशों के 'लूप मेथड' से साबित किया। स्थानीय विज्ञान समुदाय ने इस नतीजे को मानने से इनकार कर दिया और विदेशी वैज्ञानिकों में शंभुनाथ के शोध व उसके नतीजे को लेकर संदेह बना हुआ था। श्यामल डे के अनुसार- "लेकिन मेरे [[पिता]] को भरोसा था कि उन्होंने जो खोजा है, वह एक नई खोज है। लगभग हर रात वह बोस संस्थान के फिजिकल व प्रोटीन रसायन प्रयोगशाला जाते थे। वहां उन्होंने अपने उपकरण रखे थे और वहीं वह हर रात खरगोशों के ऊपर शोध करते थे। मेडिकल कॉलेज में ज़हर को अलग-थलग कर देने की शोध तकनीक मौजूद नहीं थी। वह कई घंटे तक अपने प्रयोगों का असर देखते, अंतर और नतीजों पर गौर करते और फिर नोट बनाते थे।"
 


[[शंभुनाथ डे]] को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने काम के लिए पहचान मिली। उन्हें '[[नोबेल पुरस्कार]]' के लिए नामांकित भी किया गया। उनका नामांकन किसी और ने नहीं, बल्कि मशहूर वैज्ञानिक जोशुहा लेडरबर्ग ने किया था। जोशुहा सूक्ष्मजीन अनुवांशिकी पर किए गए अपने काम के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। उन्हें चिकित्सा जगत का 'नोबेल पुरस्कार' भी मिला था।
[[शंभुनाथ डे]] को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने काम के लिए पहचान मिली। उन्हें '[[नोबेल पुरस्कार]]' के लिए नामांकित भी किया गया। उनका नामांकन किसी और ने नहीं, बल्कि मशहूर वैज्ञानिक जोशुहा लेडरबर्ग ने किया था। जोशुहा सूक्ष्मजीन अनुवांशिकी पर किए गए अपने काम के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। उन्हें चिकित्सा जगत का 'नोबेल पुरस्कार' भी मिला था।

11:29, 16 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

शंभुनाथ डे विषय सूची
शंभुनाथ डे का शोध कार्य
शंभुनाथ डे
शंभुनाथ डे
पूरा नाम शंभुनाथ डे
जन्म 1 फ़रवरी, 1915
जन्म भूमि हुगली, पश्चिम बंगाल
मृत्यु 15 अप्रॅल, 1985
अभिभावक पिता- दशरथी डे, माता- छत्तेश्वरी
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र पैथोलॉजी, बैक्टीरियोलॉजी
विशेष योगदान डॉ. शंभुनाथ डे ने हैजे के जीवाणु पर विशेष शोध कार्य किये और पता लगाया कि यह जीवाणु शरीर में एक ज़हर पैदा करता है, जिससे शरीर में जल की कमी हो जाती है और मरीज की मृत्यु हो जाती है।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी शंभुनाथ डे को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने काम के लिए पहचान मिली। उन्हें 'नोबेल पुरस्कार' के लिए नामांकित भी किया गया। उनका नामांकन किसी और ने नहीं, बल्कि मशहूर वैज्ञानिक जोशुहा लेडरबर्ग ने किया था।

सन 1940 के दौर में भारत में हैजे के कारण होने वाली मौतों की संख्या काफी ज्यादा हुआ करती थी। इनसे दु:खी होकर शंभुनाथ डे ने हैजे के ऊपर शोध करना शुरू किया था। हालांकि वह उस समय लंदन स्थित यूनिवर्सिटी कॉलेज हॉस्पीटल मेडिकल स्कूल में आधिकारिक तौर पर दिल की बीमारी से संबंधित एक विषय पर शोध कर रहे थे। वह 1949 में भारत लौटकर आए और यहां काम करने लगे।


शंभुनाथ डे ने हैजा होने के बाद किडनी पर होने वाले असर और उसमें आने वाले अंतर पर शोध करना शुरू किया। सन 1950 से 1955 के बीच उन्होंने इस विषय से संबंधित कई शोधपत्र प्रकाशित किए। उनके शोध की दिशा उस समय बदल गई, जब उन्होंने गौर किया कि 'कोलकाता में हैजा के मरीजों के शरीर में जहरीला पदार्थ बन जाता है। इससे उन्हें पता चला कि यह बीमारी शुरुआत में ऑर्गेनिजम के कारण होती है और बाद में पीड़ित इंसान के पेट की अवकाशिका में कई गुना फैल जाती है और मरीज की मौत हो जाती है।[1]


उन्हें अपने शोध से पता चला कि हैजा का जीवाणु एक किस्म का जहरीला पदार्थ शरीर में छोड़ता है और यही ज़हर शरीर पर असर करता है, जिससे कि मरीज की मौत हो जाती है। शंभुनाथ डे ने अपने शोध के नतीजे को खरगोशों के 'लूप मेथड' से साबित किया। स्थानीय विज्ञान समुदाय ने इस नतीजे को मानने से इनकार कर दिया और विदेशी वैज्ञानिकों में शंभुनाथ के शोध व उसके नतीजे को लेकर संदेह बना हुआ था। श्यामल डे के अनुसार- "लेकिन मेरे पिता को भरोसा था कि उन्होंने जो खोजा है, वह एक नई खोज है। लगभग हर रात वह बोस संस्थान के फिजिकल व प्रोटीन रसायन प्रयोगशाला जाते थे। वहां उन्होंने अपने उपकरण रखे थे और वहीं वह हर रात खरगोशों के ऊपर शोध करते थे। मेडिकल कॉलेज में ज़हर को अलग-थलग कर देने की शोध तकनीक मौजूद नहीं थी। वह कई घंटे तक अपने प्रयोगों का असर देखते, अंतर और नतीजों पर गौर करते और फिर नोट बनाते थे।"


शंभुनाथ डे को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने काम के लिए पहचान मिली। उन्हें 'नोबेल पुरस्कार' के लिए नामांकित भी किया गया। उनका नामांकन किसी और ने नहीं, बल्कि मशहूर वैज्ञानिक जोशुहा लेडरबर्ग ने किया था। जोशुहा सूक्ष्मजीन अनुवांशिकी पर किए गए अपने काम के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। उन्हें चिकित्सा जगत का 'नोबेल पुरस्कार' भी मिला था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हैजा का इलाज खोजा, अपने देश में मिली 'गुमनामी' (हिंदी) navbharattimes.indiatimes.com। अभिगमन तिथि: 16 जुलाई, 2017।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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