नॉर्मन बोरलॉग
नॉर्मन बोरलॉग
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पूरा नाम | नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलॉग |
जन्म | 25 मार्च, 1914 |
जन्म भूमि | क्रेस्को, आइवा |
मृत्यु | 12 सितम्बर, 2009 |
मृत्यु स्थान | डलास, टेक्सास |
कर्म-क्षेत्र | कृषि विज्ञान |
विद्यालय | मिनीसोटा विश्वविद्यालय |
पुरस्कार-उपाधि | नोबेल शांति पुरस्कार |
प्रसिद्धि | कृषि वैज्ञानिक |
नागरिकता | संयुक्त राज्य अमेरिका |
अन्य जानकारी | नॉर्मन बोरलॉग ने मेक्सिको में बीमारियों से लड़ सकने वाली गेहूं की एक नई किस्म विकसित की थी। इसके पीछे समझ थी कि अगर पौधे की लंबाई कम कर दी जाए, तो इससे बची हुइ ऊर्जा उसके बीजों यानी दानों में लगेगी, जिससे दाना ज्यादा बढ़ेगा, लिहाजा कुल फसल उत्पादन बढ़ेगा। |
नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलॉग (अंग्रेज़ी: Norman Ernest Borlaug, 25 मार्च, 1914; मृत्यु- 12 सितम्बर, 2009) नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी कृषि विज्ञानी थे, जिन्हें हरित क्रांति का पिता माना जाता है। नॉर्मन बोरलॉग उन पांच लोगों में से एक थे, जिन्हें 'नोबेल शांति पुरस्कार', 'स्वतंत्रता का राष्ट्रपति पदक' और कांग्रेस का गोल्ड मेडल प्रदान किया गया था। इसके अलावा उन्हें भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण भी मिला। नॉर्मन बोरलॉग के नवीन प्रयोगों ने अनाज की समस्या से जूझ रहे भारत सहित अनेक विकासशील देशों में हरित क्रांति का प्रवर्तन करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने 1970 के दशक में मेक्सिको में बीमारियों से लड़ सकने वाली गेहूं की एक नई किस्म विकसित की थी। इसके पीछे उनकी यह समझ थी कि अगर पौधे की लंबाई कम कर दी जाए, तो इससे बची हुइ ऊर्जा उसके बीजों यानी दानों में लगेगी, जिससे दाना ज्यादा बढ़ेगा, लिहाजा कुल फसल उत्पादन बढ़ेगा।
परिचय
नॉर्मन बोरलॉग ने खेती-बाड़ी में जो अभूतपूर्व बदलाव किए जिसे दुनिया भर में हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है। गेहूँ की नई क़िस्मों पर उनके क्रांतिकारी शोध ने ख़ासतौर से विकासशील देशों में खेती-बाड़ी का नक्शा ही बदलकर रखा दिया। उन्हें कृषि क्षेत्र में इस असाधारण क्रांति के लिए 1970 का 'नोबेल शांति पुरस्कार' भी मिला था। खेतीबाड़ी नॉर्मन बोरलॉग के जीवन का केंद्र बिंदु था। उनकी परवरिश आयोवा में अपने माता-पिता के खेतों पर हुई। ये वो दौर था जब बहुत से किसानों ने अपनी फ़सलें बर्बाद होते देखी थीं।[1]
शोध कार्य
नॉर्मन बोरलॉग के दादा ने उनसे विश्वविद्यालय से इस तरह की शिक्षा हासिल करने का अनुरोध किया जिससे भविष्य में फ़सलों की तबाही को शायद रोका जा सके। वास्तव में नॉर्मन बोरलॉग ने उससे कहीं ज़्यादा कर दिखाया। जिस शोध और कार्य ने नॉर्मन बोरलॉग को दुनिया भर में मशहूर कर दिया, वो काम उन्होंने 1960 के दशक में शुरू किया था, जब उन्होंने मैक्सिको में अंतरराष्ट्रीय मक्का और गेहूँ की स्थापना की। गेहूँ की बीमारियों से लड़ने वाली क़िस्म का विकास करने के बाद नॉर्मन बोरलॉग ने पाया कि अगर छोटे पौधे वाली क़िस्में उगाई जाएँ तो तने की जो ऊर्जा बचेगी वो उसके दाने यानी बीज में लग सकेगी जिससे बीज ज़्यादा बढ़ेगा और इस तरह कुल फ़सल उत्पादन ज़्यादा होगा।
इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि अगर गेहूँ की किसी क़िस्म का पौधा बड़ा है तो उसके लिए ख़ासी खाद और अन्य प्राकृतिक ऊर्जा की ज़रूरत होगी और अगर वो ऊर्जा पौधे में कम लगेगी तो दाने यानी बीज को ज़्यादा ऊर्जा मिलेगी इस तरह पैदावार बढ़ेगी।
कामयाबी
नॉर्मन बोरलॉग अपने इस प्रयोग में जल्दी ही कामयाब हो गए। बौने पौधों वाली और ज़्यादा बड़े दाने यानी बीज वाली गेहूँ की क़िस्म लातिन अमरीका में काफ़ी लोकप्रिय हुई। इस क़िस्म की एक ख़ासियत ये भी थी कि यह फ़सलों को होने वाली बीमारियों में ख़ुद को सुरक्षित रख सकती थी। उसके बाद नॉर्मन बोरलॉग ने गेहूँ की इस नई क़िस्म का 60 हज़ार टन और कुछ खाद वग़ैरा भारत और पाकिस्तान को भेजे जहाँ अकाल की स्थिति बनी हुई थी। नई क़िस्म के गेहूँ से फ़सल की पैदावार में लगभग 70 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई और उसके बाद तो भारत और पाकिस्तान गेहूँ उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गए।[1]
नोबेल शांति पुरस्कार
नोबेल संस्थान ने समझ लिया कि नॉर्मन बोरलॉग के इस शोध से लाखों लोगों को भूख से निजात मिलेगी। इसलिए उन्हें 'नोबेल शांति पुरस्कार' के लिए चुन लिया गया। वो पुरस्कार ग्रहण करते हुए नॉर्मन बोरॉग ने कहा था-
"यह पुरस्कार पाकर मैं बेहद ख़ुश हूँ लेकिन इसके साथ ज़ाहिर तौर पर बहुत-सी ज़िम्मेदारियाँ भी हैं जो कहीं ज़्यादा बड़ी हैं। मेरे ऊपर और भूख के ख़िलाफ़ क्रांति करने वाले उन लड़ाकों की जिन्होंने मेरा साथ देने का फ़ैसला किया, और वो भी बिना किसी फ़ायदे की उम्मीद के।"
आलोचना
हालाँकि उनके इस शोध को पर्यावरणवादियों की आलोचना का शिकार भी होना पड़ा, क्योंकि उनके बीजों की और खेती-बाड़ी के तरीक़ों की निर्भरता उर्वरक खादों पर बहुत थी जिससे ज़मीन की उत्पादक क्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है। नॉर्मन बोरलॉग ने तर्क दिया था कि इन नए तरीक़ों में एक तरह से प्रकृति का संरक्षण भी होगा क्योंकि पैदावार उगाने के लिए कम ज़मीन में फ़सल उगानी होगी और कम तकनीक लगने वाले प्राकृतिक रूप से उगाए जाने वाली खेतीबाड़ी ने दरअसल अकाल की स्थिति पैदा कर दी थी।
योगदान
भारत में हरित क्रांति में उल्लेखनीय योगदान करने वाले वैज्ञानिक डॉक्टर एम. एस. स्वामीनाथन, नॉर्मन बोरलॉग के योगदान को बहुत बड़ा मानते थे, "नॉर्मन बोरलॉग भूख के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले महान योद्धा थे। उनका मिशन सिर्फ़ खेतीबाड़ी से पैदावार बढ़ाना ही नहीं था, बल्कि वो ये भी सुनिश्चित करना चाहते थे कि ग़रीब तक अन्न ज़रूर पहुँचे ताकि दुनिया भर में कही भी कोई भी इंसान भूखा ना रहे।" डॉक्टर बोरलॉग ने लगभग 90 वर्ष की आयु में भी मैक्सिकों में अपने संस्थान में भी काम जारी रखा और तब उन्होंने विकसाशली देशों के वैज्ञानिकों को नई तकनीकें लागू करने के बारे में प्रशिक्षण भी दिया। वर्ष 2006 में फ़िलीपीन्स में एक सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि "दुनिया भर में अब भी बहुत से लोग ग़रीबी और भूख का सामना कर रहे हैं। इंसान की ये हालत विस्फोटक हैं और इन परेशानियों को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए।"[1]
मृत्यु
सन 1960 के दशक में कृषि क्षेत्र की काया पलट कर देने वाले वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग ने 95 वर्ष की अवस्था में इस दुनिया को अलविदा कह दिया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 हरित क्रांति के जनक बोरलॉग का निधन (हिंदी) bbc.com। अभिगमन तिथि: 24 मार्च, 2022।
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