जैन धर्म
जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। 'जैन' कहते हैं उन्हें, जो 'जिन' के अनुयायी हों । 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म । जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमन्त्र है-
णमो अरिहंताणं।
णमो सिद्धाणं।
णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं।
णमो लोए सव्वसाहूणं॥
अर्थात अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार।
ये पाँच परमेष्ठी हैं।
मथुरा मैं विभिन्न कालों में अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं जो जैन संग्रहालय मथुरा में संग्रहीत हैं।
अवैदिक धर्मों में जैन धर्म सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने जाते हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभ देव का मथुरा से संबंध था। जैन धर्म में की प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार, नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने 52 देशों की रचना की थी। शूरसेन देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों में थी (जिनसेनाचार्य कृत महापुराण- पर्व 16,श्लोक 155)। जैन `हरिवंश पुराण' में प्राचीन भारत के जिन 18 महाराज्यों का उल्लेख हुआ है, उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है । जैन मान्यता के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए थे।
जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का विहार मथुरा में हुआ था।[1] अनेक विहार-स्थल पर कुबेरा देवी द्वारा जो स्तूप बनाया गया था, वह जैन धर्म के इतिहास में बड़ा प्रसिद्ध रहा है। चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ का स्मारक तीर्थ भी मथुरा में यमुना नदी के तटपर था। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ को जैन धर्म में श्री कृष्ण के समकालीन और उनका चचेरा भाई माना जाता है। इस प्रकार जैन धर्म-ग्रंथों की प्राचीन अनुश्रुतियों में ब्रज के प्राचीनतम इतिहास के अनेक सूत्र मिलते हैं। जैन ग्रंथों में उल्लेख है कि यहाँ पार्श्वनाथ महावीर स्वामी ने यात्रा की थी। पउमचरिय में एक कथा वर्णित है जिसके अनुसार सात साधुओं द्वारा सर्वप्रथम मथुरा में ही श्वेतांबर जैन संम्प्रदाय का प्रचार किया गया था।
एक अनुश्रुति में मथुरा को इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ[2] की जन्मभूमि बताया गया है, किंतु उत्तर पुराण में इनकी जन्मभूमि मिथिला वर्णित है।[3] विविधतीर्थकल्प से ज्ञात होता है कि नेमिनाथ का मथुरा में विशिष्ट स्थान था।[4] मथुरा पर प्राचीन काल से ही विदेशी आक्रामक जातियों, शक, यवन एवं कुषाणों का शासन रहा।
तीर्थंकर उपदेश
- 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्म मार्ग से च्युत हो रहे जन समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्म मार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्म मार्ग-मोक्ष मार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्त्तक-तीर्थंकर कहा गया है। जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य, प्रशस्त कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं।
- आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है[5] कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।[6]
- इन तीर्थंकरों का वह उपदेश जिन शासन, जिनागम, जिनश्रुत, द्वादशांग, जिन प्रवचन आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। उनके इस उपदेश को उनके प्रमुख एवं प्रतिभाशाली शिष्य विषयवार भिन्न-भिन्न प्रकरणों में निबद्ध या ग्रथित करते हैं। अतएव उसे 'प्रबंध' एवं 'ग्रन्थ' भी कहते हैं। उनके उपदेश को निबद्ध करने वाले वे प्रमुख शिष्य जैनवाङमय में गणधर कहे जाते हैं। ये गणधर अत्यन्त सूक्ष्मबुद्धि के धारक एवं विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं। उनकी धारणाशक्ति और स्मरणशक्ति असाधारण होती है। आगे विस्तार में पढ़ें:- तीर्थंकर उपदेश
तीर्थंकर
- तीर्थंकर 24 माने गए है।
- जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार प्रसिद्ध है-
- ॠषभनाथ तीर्थंकर,
- अजित,
- सम्भव,
- अभिनन्दन,
- सुमति,
- पद्य,
- सुपार्श्व,
- चन्द्रप्रभ,
- पुष्पदन्त,
- शीतल,
- श्रेयांस,
- वासुपूज्य,
- विमल,
- अनन्त,
- धर्मनाथ,
- शांति,
- कुन्थु,
- अरह,
- मल्लिनाथ,
- मुनिसुब्रत,
- नमि,
- नेमिनाथ तीर्थंकर,
- पार्श्वनाथ तीर्थंकर, और
- वर्धमान-महावीर आगे विस्तार में पढ़ें:- तीर्थंकर
ॠषभनाथ तीर्थंकर
- इनमें प्रथम तीर्थंकर ॠषभदेव हैं।
- जैन साहित्य में इन्हें प्रजापति, आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहद्देव, पुरुदेव, नाभिसूनु और वृषभ नामों से भी समुल्लेखित किया गया है।
- युगारंभ में इन्होंने प्रजा को आजीविका के लिए कृषि (खेती), मसि (लिखना-पढ़ना, शिक्षण), असि (रक्षा , हेतु तलवार, लाठी आदि चलाना), शिल्प, वाणिज्य (विभिन्न प्रकार का व्यापार करना) और सेवा- इन षट्कर्मों (जीवनवृतियों) के करने की शिक्षा दी थी, इसलिए इन्हें ‘प्रजापति’ [7], माता के गर्भ से आने पर हिरण्य (सुवर्ण रत्नों) की वर्षा होने से ‘हिरण्यगर्भ’ [8], विमलसूरि-[9], दाहिने पैर के तलुए में बैल का चिह्न होने से ‘ॠषभ’, धर्म का प्रवर्तन करने से ‘वृषभ’ [10], शरीर की अधिक ऊँचाई होने से ‘बृहद्देव’ [11]एवं पुरुदेव, सबसे पहले होने से ‘आदिनाथ’ [12] और सबसे पहले मोक्षमार्ग का उपदेश करने से ‘आदिब्रह्मा’ [13]कहा गया है।
- इनके पिता का नाम नाभिराय होने से इन्हें ‘नाभिसूनु’ भी कहा गया है।
- इनकी माता का नाम मरुदेवी था। आगे विस्तार में पढ़ें:- ॠषभनाथ तीर्थंकर
नेमिनाथ तीर्थंकर
- अवैदिक धर्मों में जैन धर्म सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने जाते हैं।
- जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभ देव का मथुरा से संबंध था।
- जैन धर्म में की प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार, नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने 52 देशों की रचना की थी।
- शूरसेन देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों में थी
- जैन `हरिवंश पुराण' में प्राचीन भारत के जिन 18 महाराज्यों का उल्लेख हुआ है, उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है।
आगे विस्तार में पढ़ें:- नेमिनाथ तीर्थंकर
तीर्थंकर पार्श्वनाथ
- अरिष्टेनेमि के एक हज़ार वर्ष बाद तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म वाराणसी में हुआ।
- इनके पिता राजा अश्वसेन और माता वामादेवी थीं।
- एक दिन कुमार पार्श्व वन-क्रीडा के लिए गंगा के किनारे गये। जहाँ एक तापसी पंचग्नितप कर रहा था। वह अग्नि में पुराने और पोले लक्कड़ जला रहा था। पार्श्व की पैनी दृष्टि उधर गयी और देखा कि उस लक्कड़ में एक नाग-नागिन का जोड़ा है और जो अर्धमृतक-जल जाने से मरणासन्न अवस्था में है। कुमार पार्श्व ने यह बात तापसी से कही। तापसी झुंझलाकर बोला – ‘इसमें कहाँ नाग-नागिन है? और जब उस लक्कड़ को फाड़ा, उसमें मरणासन्न नाग-नागिनी को देखा। पार्श्व ने ‘णमोकारमन्त्र’ पढ़कर उस नाग-नागिनी के युगल को संबोधा, जिसके प्रभाव से वह मरकर देव जाति से धरणेन्द्र पद्मावती हुआ। आगे विस्तार में पढ़ें:- तीर्थंकर पार्श्वनाथ
महावीर
वर्धमान महावीर या महावीर, जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान श्री ऋषभनाथ (श्री आदिनाथ)की परम्परा में 24वें तीर्थंकर थे। इनका जीवन काल 599 ईसवी ,ईसा पूर्व से 527 ईस्वी ईसा पूर्व तक माना जाता है । वर्धमान महावीर का जन्म एक क्षत्रिय राजकुमार के रूप में एक राजपरिवार में हुआ था । इनके पिता का नाम राजा सिद्धार्थ एवं माता का नाम प्रियकारिणी था । उनका जन्म प्राचीन भारत के वैशाली राज्य (जो अब बिहार प्रान्त) में हुआ था । वर्धमान महावीर का जन्मदिन महावीर जयन्ती के रूप में मनाया जाता है। आगे विस्तार में पढ़ें:- महावीर
भरत ॠषभदेव पुत्र
- ऋषभदेव के पुत्र भरत बहुत धार्मिक थे।
- उनका विवाह विश्वरूप की कन्या पंचजनी से हुआ था।
- भरत के समय से ही अजनाभवर्ष नामक प्रदेश भारत कहलाने लगा। राज्य-कार्य अपने पुत्रों को सौंपकर वे पुलहाश्रम में रहकर तपस्या करने लगे। एक दिन वे नदी में स्नान कर रहे थे। वहाँ एक गर्भवती हिरणी भी थी। शेर की दहाड़ सुनकर मृगी का नदी में गर्भपात हो गया और वह किसी गुफ़ा में छिपकर मर गयी। भरत ने नदी में बहते असहाय मृगशावक को पालकर बड़ा किया। उसके मोह से वे इतने आवृत्त हो गये कि अगले जन्म में मृग ही बने। मृग के प्रेम ने उनके वैराग्य मार्ग में व्याघात उत्पन्न किया था, किन्तु मृग के रूप में भी वे भगवत-भक्ति में लगे रहे तथा अपनी माँ को छोड़कर पुलहाश्रम में पहुँच गये। भरत ने अगला जन्म एक ब्राह्मण के घर में लिया। उन्हें अपने भूतपूर्व जन्म निरंतर याद रहे। ब्राह्मण उन्हें पढ़ाने का प्रयत्न करते-करते मर गया किन्तु भरत की अध्ययन में रुचि नहीं थी। आगे विस्तार में पढ़ें:- भरत (ॠषभदेव पुत्र)
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वीथिका
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जैन प्रतिमा का ऊपरी भाग
Upper Part of a Jina -
तीर्थंकर ऋषभनाथ
Tirthankara Rishabhanath -
आसनस्थ जैन तीर्थंकर
Seated Jaina Tirthankara -
जैन प्रतिमा का धड़
Bust of Jina -
जैन मस्तक
Head of a Jina -
जैन तीर्थंकर
Jaina Tirthankara -
अजमुखी जैन मातृदेवी
Goat Headed Jaina Mother Goddess -
आसनस्थ जैन तीर्थंकर
Seated Jaina Tirthankara -
तीर्थंकर ऋषभनाथ
Tirthankara Rishabhanath -
आसनस्थ जैन तीर्थंकर
Seated Jaina Tirthankara -
जैन मस्तक
Head of a Jina -
आसनस्थ जैन तीर्थंकर
Seated Jaina Tirthankara -
अजमुखी जैन मातृदेवी
Goat Headed Jaina -
जैन आयोगपट्ट
Jaina Tablet -
जैन आयोगपट्ट
Jain Ayagapatta
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिनप्रभ सूरि कृत 'बिबिध तीर्थ कल्प' का 'मथुरा पुरी कल्प' प्रकरण, पृष्ठ 17 व 85
- ↑ बीस़ी भट्टाचार्य, जैन आइकोनोग्राफी (लाहौर, 1939), पृ 80
- ↑ बी.सी भट्टाचार्य, जैन आइकोनोग्राफी (लाहौर, 1939), पृ 79
- ↑ विविधतीर्थकल्प, पृ 80
- ↑ ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये।
धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1 - ↑ आप्तपरीक्षा, कारिका 16
- ↑ आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भुस्तोत्र, श्लोक 2|
- ↑ जिनसेन, महापुराण, 12-95
- ↑ पउमचरियं, 3-68|
- ↑ आ. समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र, श्लोक 5|
- ↑ मदनकीर्ति, शासनचतुस्त्रिंशिका, श्लोक 6, संपा. डॉ. दरबारी लाल कोठिया।
- ↑ मानतुङ्ग, भक्तामर आदिनाथ स्तोत्र, श्लोक 1, 25 |
- ↑ मानतुङ्ग, भक्तामर आदिनाथ स्तोत्र, श्लोक 1, 25 |