देर रात को
सूनी गली मे
हाँक लगाता है कोई --
"आग ले लो........आग !”
उस ने पोटली खोल कर
छोटी बड़ी संदूकचियाँ निकालीं हैं
और बिछा दिया है सौदा--
"ये एक दम सुच्चा माल
देवताओं के देश से आया !!”
झुर्रियों वाला एक चेहरा है ताबदार, तना हुआ
मुट्ठियों से झर रहे थक्के पिघलती रोशनी के
मिट्टी पर गिरते ही ठोस हो जा रहे
“ये आखिरी चीज़ बची है
जो शुरू से ही ज़िन्दा है !!”
ज़ंग खाई उन खखरी पिटारियों में
बड़े जतन से सहेज कर रखी हुई आग की लपटें
उफन रहीं छेदों और झिर्रियों में से
और मैं निश्चेष्ठ लेटा हुआ अनमना अधमरा सा
“ये देखिए, अपने आप फैलती और सिमट जाती आप ही !!”
एकाएक बाहर दौड़ा हूँ बदहवास
सपनों के उस अधरंग से उठकर
लेकिन दहलीज़ पर ही ठिठक गया हूँ
खड़ा हुआ सहम कर बचता उन असली चिनगारियों से
देखता यह अद्भुत कारोबार ...
“मिलावट की कोई गुंजाईश नहीं
यह होती है या फिर होती ही नहीं !!”
कोई लेन –देन नहीं हो रहा
कोई मोल भाव नहीं
और उस नायाब ताम झाम को घेरे हुए कितने ही गाहक
उतावले
आशंकित
देर रात की दहशत में
बेबूझ
और तिलमिलाए हुए
“ये देखिए कैसे इस का ताप
गुप चुप पहुँच जाता
चीज़ों में अपने आप !!”
क्या किया जाए
कि सभी को चाहिए मुट्ठी भर आग
इस ठंडे अँधेरे में !
जनवरी 2007