वह आया था आग के आदिम इलाके से
आग तापता
आग ही ओढ़ता
और बताता सलीका
चीज़ों को देखने का
खालिस आग की रौशनी में
वह जब करता था शक
उन तमाम चीज़ों पर
जो आग का तिलिस्म जगाती थीं
और उन बातों पर भी
जिनमें कि हम आग मानते आए हैं
तो ठीक करता था
क्योंकि आग को आग मानने
और उसे आग कह देने भर से
खत्म नहीं हो जाती बात
आग तो होना पड़ता है
उसकी यादों में तैरते हैं अनगिनत किस्से
छोटे-छोटे फितरती देवताओं के
खंगालते थे जो तमाम खोखले खयाल
साथ साथ करते जा रहे निशानदेही
गफलतों, और फिसलनों वाली उन ख़ाली जगहों की
जहाँ फफूँद थे शातिर मनचली हवाओं के उगाए हुए
वहाँ ठसाठस अंगार भर देते
बीन बीन चिनगियाँ जो पोसते थे
छिपा कर उम्रदराज़़ पेड़ों की कोटरों में
कि चलनी ही है आँधी एक दिन
और दहक उठना है
उसके सपनों में उगा पूरा जंगल।
दिखाता रहेगा खोलकर परत दर परत
अपने अंतस् के व्रण
कि महज़ एक ओढ़ा हुआ विचार नहीं
सचमुच का अनुभव होती है आग
और क्या करती है उन चीज़ों के साथ
जिन्हें छू लेती है ..............
ढो रहा अपनी नंगी पीठ पर
आग के उपादान-उपस्कर
धधकते हाथों से छू कर
बनाता हमारे काँधों को पत्थर
उपभोग करता आग का
और उसी का वितरण
वह आता रहेगा
हर अँधेरे में
एक अभिशप्त मसीहा !
जुलाई 2007