वहाँ जो औरत बैठी थी
उस ने होंठ रंग रखे थे खूब चटख
और नाखून भी
उस की गरदन पर काली झुर्रियाँ बन रहीं थीं
और पसीना चुहचहा रहा
ज़बरन घुँघराले किये बालों से
वहाँ जो औरत बैठी थी
उस के चारों ओर भिनभिना थे बच्चे
एक दूसरे को छेड़ते , खींचते
धकियाते, गिराते, रुलाते
वहाँ जो औरत बैठी थी
उस की आँखों से भाग कर
चमक सितारों में खो गई थी
उस के चेहरे पर लगा था ग्रहण
और चाँद मुस्करा रहा
उस के भीतर के तमाम परिन्दे
कर रहे थे कूच की तय्यारी
अपनी भरपूर चहचहाटों के साथ
भोर होते ही
वहाँ जो औरत बैठी रहेगी
उस की आर्द्रता सोख ले जाएंगे बादल
हवाएं चुरा लेंगीं उस के सुनहरे सपने
और दिन निकलते ही
सूरज छीन लेगा उस की रही सही गरमाईश
यह धरती ही थामे रहे सम्भवतः
जैसे तैसे
उस चुक रही औरत का बोझ
शाम तक
वहाँ जो औरत बैठी है
उसे बहुत देर तक
बैठे नहीं रहना चाहिए
यों सज धज कर
गुमसुम , चुपचाप.
मनाली, अगस्त 2000