भारत के कृषि प्रदेश

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भारत के कृषि प्रदेश अधिकांशत: मानसूनी वर्षा पर निर्भर हैं। यहाँ की भौगोलिक दशाएँ भी भिन्न-भिन्न पकार की हैं। कृषि प्रदेश का तात्पर्य उस विस्तृत क्षेत्र से है, जहाँ कृषि सम्बंधी दशाओं, विशेष रूप से फ़सलों के प्रकार एवं उनकी उत्पादन विधि में समानता पायी जाती है। भारत में तापमान, वर्षा उच्चावच, मिट्टी के प्रकार, फ़सल एवं पशुओं का सह-सम्बंध आदि की विभिन्नता के कारण अनेक कृषि प्रदेशों का विकास हुआ है। विभिन्न विद्वानों ने दो प्रमुख चरों के आधार पर भारत के कृषि प्रदेशों के निर्धारण हेतु प्राकृतिक कारणों को महत्वपूर्ण माना है, तो कुछ विद्वानों ने फ़सलों की प्रमुखता के आधार पर भारत को कृषि प्रदेशों में विभाजित किया है।

वर्षा की स्थिति

डॉ. सी. बी. क्रेसी का यह कथन है कि "किसी भी देश में इतने व्यक्ति वर्षा पर निर्भर नहीं करते, जितने कि भारत में, क्योंकि सामायिक वर्षा में किंचित भी परिवर्तन होने से सम्पूर्ण देश की समृद्धि रुक जाती है। वर्षा का वितरण, तापमान, समुद्रतल से ऊँचाई, अक्षांश, प्रकृतिक वनस्पति, मिट्टियाँ, फ़सलें और पशु आदि की किस्में सभी कृषि के स्वरूप एवं कृषि प्रदेशों के निर्धारण में बड़ा प्रभाव डालते हैं। इस सभी प्रभावों को ध्यान में रखने पर एक महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट होता है कि देश के विभिन्न भागों में फ़सल उत्पादन सम्बंधी अथवा कृषि की दशा में समानता पयी जाती है और एक संक्रामक क्षेत्र दूसरे में तीव्रता से परिवर्तित न होकर धीरे-धीरे दूसरे क्षेत्र में बदलता है। केवल मध्यवर्ती क्षेत्रों में ही यह भिन्नता अधिक स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।

विभाजन

अनेक विद्वानों द्वारा भारत को कृषि प्रदेशों में विभाजित करने का प्रयास किया गया है। इनमें डॉ. स्टाम्प, प्रो. सिमकिन्स, डॉ. स्पेट के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। सभी ने कृषि प्रदेशों को निश्चित करने का आधार भू-प्रकृति, जलवायु और जनसंख्या घनत्व को माना है। डॉ. चैन हॉन सैंग ने भू-आकृति एवं उसकी स्थिति, कृषि, जल की व्यवस्था, फ़सलों का प्रारूप, भूमि लगान व्यवस्था एवं सामान्य आर्थिक विकास तत्वों को कृषि प्रदेश के वर्गीकरण में प्रमुख तत्व मानकर सम्पूर्ण देश को 16 प्रमुख भागों में बांटा है। डॉ. थार्नर ने कृषि आयोजन एवं प्रबंधन की दृष्टि से देश को कई प्रकार से कृषि प्रदेशों में विभाजित किया है। एक वर्गीकरण में उन फ़सलों के प्रदेशों को सम्मिलित किया गया है, जो मुख्य फ़सलों की उत्पादक योजनाओं से सम्बन्धित है। दूसरे में कृषि जलवायु प्रदेश के कृषि आयोजन के सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखते हैं। फ़सल प्रदेशों को इन विद्वानों ने सात मुख्य फ़सलों एवं तीन अन्य फ़सलों के आधार पर बांटते समय दो बातों का ध्यान रखा है- प्रथम, कुल राष्ट्रीय उत्पादन में एक फ़सल का कितना प्रतिशत एक ज़िले से प्राप्त होता है। दूसरा, उस ज़िले में कुल बोयी गयी भूमि के अनुपात में उस फ़सल के क्षेत्र का प्रतिशत क्या है। इस प्रकार निम्न कृषि उप-विभाग किये गये हैं-

  1. कपास क्षेत्र (6)
  2. मूंगफली प्रदेश (10)
  3. गन्ना प्रदेश (8)
  4. मक्का प्रदेश (9)
  5. ज्वार प्रदेश (9)
  6. चावल प्रदेश (12)
  7. मोटे अनाज प्रदेश (14)
  8. दाल प्रदेश (13)
  9. तिलहन प्रदेश (13)

इस प्रकार कुल फ़सल प्रदेशों की संख्या डॉ. थार्नर के अनुसार 13 है। कृषि जनवायु प्रदेश सीमांकन के अनुसार थार्नर नं भारत को 3 बृहत कृषि प्रदेशों, 10 उप कृषि प्रदेशों एवं 52 फ़सल विशेष प्रदेशों में विभाजित किया है।

डॉ. रन्धावा का विभाजन

कृषि विशेषज्ञ डॉ. रन्धावा के अनुसार भारत को पाँच बृहत कृषि प्रदेशों में बांटा जा सकता है-

  1. शीतोष्ण हिमालय प्रदेश
  2. उत्तरी शुष्क गेहूँ प्रदेश
  3. पूर्वोत्तर अथवा चावल प्रदेश
  4. पश्चिमोत्तर अथवा मालावार प्रदेश
  5. दक्षिणी मध्यम वर्षा अथवा मोटे अनाज वाला प्रदेश

शीतोष्ण हिमालय प्रदेश

इस प्रदेश को दो उप-विभागों में विभाजित किया गया है- (क) पूर्वी हिमालय प्रदेश, जिसके अन्तर्गत अरुणाचल प्रदेश का पहाड़ी भाग, ऊपरी असम, सिक्किम और भूटान सम्मिलित हैं। यहाँ 250 सेण्टीमीटर से अधिक वर्षा होने से सघन वन पाये जाते हैं। यहाँ मुख्यतः चायचावल पैदा किये जाते हैं। (ब) पश्चिमी हिमाचल प्रदेश, इसके अन्तर्गत कुमायूं, गढ़वाल, शिमला की पहाडि़याँ, जम्मू-कश्मीर एवं हिमालय प्रदेश शामिल है। यहाँ की जलवयु प्रायः अर्धशुष्क है। उत्तरी भागों में सर्दियों में वर्षा अथवा हिमपात होता है। यहाँ पर सेब, नाशपाती, चेरी, शफ्तालू, बादाम, अंगूर आदि फल विशेष रूप से पैदा किये जाते हैं। आलू, मक्का और चावल अन्य फ़सलें हैं। भेंड़, बकरी पालन यहाँ का मुख्य अथवा सहायक व्यवसाय है। इससे ऊन तथा मांस प्राप्त होता है। शहद प्राप्ति हेतु मधुमक्खी पालन भी किया जाता है। अब यहाँ विकसित एवं सिंचित कृषि की जाती है।

उत्तरी शुष्क अथवा गेहूँ प्रदेश

इस प्रदेश में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरी गुजरात, उत्तर प्रदेश, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश सम्मिलित हैं। यहाँ वर्षा 75 से.मी. से कम होती है। मरुस्थलीय भागों में वर्षा 20 से.मी. से भी कम होती है। मिट्टी मे बालू एवं कांप विशेष रूप से पायी जाती हैं। सभी स्थानों पर सिंचाई की सहायता से गेहूँचावल पैदा किया जाता है। यह भारत का प्रमुख गेहूँ प्रदेश है। कपास, जौ, चना, मक्का, ज्वार-बाजरा अन्य सहायक फ़सलें हैं। घोड़े, ऊँट, भेड़-बकरियां एवं गाय-बैल यहाँ के प्रमुख पशु हैं। यहाँ उत्तम नस्ल की गाय, बैल, मुर्रा नस्ल की भैंसें, घोड़े एवं भेड़ें पाली जाती हैं। भूसा हरी चरी तथा उन्नत पशु आहार दुधारू पशुओं को खिलाया जाता है।

पूर्वोत्तर अथवा चावल प्रदेश

इसके अन्तर्गत असम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तराखण्ड, पूर्वी आन्ध्र प्रदेश, पूर्वी तमिलनाडु पूर्वी मध्य प्रदेश मुख्यतः आते हैं। यहाँ पर वर्षा 150 से.मी. अथवा इससे अधिक होती है। कांप मिट्टी अधिक पायी जाती है। यहाँ की मुख्य फ़सल धान है। अन्य फ़सलों में गन्ना, जूट एवं चाय स्थानीय रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। चारे के अन्तर्गत बहुत ही कम क्षे़त्र है। अत: यहाँ के पशु जैसे- भैंसे आदि निकृष्ट श्रेणी के होते हैं।

पश्चिमोत्तर अथवा मालावार प्रदेश

मुम्बई से कन्याकुमारी तक यह मेखला पायी जाती है। केरल, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र के तटीय भागों में वर्षा 250 से.मी. अथवा इससे अधिक होती है। यहाँ अधिकांशतः लैटेराइट मिट्टी पायी जाती है। यहाँ पर बागानी फ़सलें अधिक पैदा की जाती हैं, जिनमें नारियल, काजू, कहवा, चाय, अन्नानास, टेपियोक, सुपारी, गरम मसाले तथा रबड़ आदि मुख्य हैं। चावल यहाँ का मुख्य खाद्यान्न है।

मोटे अनाज वाला प्रदेश

इस प्रदेश के अन्तर्गत दक्षिणी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पूर्वी महाराष्ट्र तथा अधिकांश कर्नाटक सम्मिलित है। यहाँ वर्षा 50 से.मी. से 75 से.मी. ही होती है, क्योकि यह प्रदेश अधिकांशतः वृष्टि छाया क्षेत्रों में आते हैं। यहाँ लावा की काली मिट्टी, लैटेराइट, कहीं-कहीं कांप मिट्टी पायी जाती है। यहाँ मुख्यत: कपास, मूंगफली, चावल, गन्ना, ज्वार, बाजरा, रागी, रेंडी दालें आदि विशेष रूप से पैदा की जाती हैं। इस प्रदेश में भेड़ें अधिक पायी जाती हैं। इनसे मिलने वाली ऊन प्रायः घटिया किस्म की होती है। अब शहतूत की सहायता से रेशम की फार्मिंग का भी विकास हो रहा है।

इस वर्गीकरण को भौगोलिक पर्यावरण, स्थानीय संसाधन स्वरूप, जनसमस्या प्रारूप एवं कृषि रचित गवेषणा की दृष्टि से विशेष मान्यता नहीं मिल सकी। क्योंकि मात्र वर्षा तथा तापमान और उसके भूमि से रासायनिक सम्बन्ध को ही मोटे तौर पर ध्यान में रखा गया है। जबकि भारत जैसे विशाल देश एवं बृहत सांस्कृतिक समस्या वाले अतिप्राचीन कृषि प्रधान देश के लिए ऐसा उचित नहीं है। अत: ऐसा वर्गीकरण अधूरा एवं अनपेक्षित भी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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