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पानी
बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो
चुभते हैं बरफ के महीन क्रिस्टल
छाती में
कुछ अलग रह का होता है दर्द
कविता के भीतर जम जाने का
पहचान में नही आता मर्ज़
न मिलती है कोई चाबी
‘स्विच ऑफ’ रहता है अक्सर
सेलफोन फिटर का .