उर्मिला
उर्मिला का नाम हिंदुओं के पवित्र धर्म ग्रंथ रामायण में लक्ष्मण की पत्नी के रूप में मिलता है। महाभारत, पुराण तथा काव्य में भी इससे अधिक उर्मिला का कोई परिचय नहीं मिलता। केवल आधुनिक काल में उर्मिला के विषय में विशेष सहानुभूति प्रकट की गयी है। युग की भावना से प्रेरित होकर आधुनिक युग में दलितों, पतितों और उपेक्षितों के उद्वार के जो प्रयत्न किये गये हैं उनमें प्राचीन काव्यों के विस्मृत और उपेक्षित पात्रों, विशेषकर स्त्री पात्रों का भी उच्चतम स्थान है।
परिचय
वाल्मिकी रामायण के अनुसार, उर्मिला जनक नंदनी सीता की छोटी बहन थीं और सीता के विवाह के समय ही दशरथ और सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण को ब्याही गई थीं। इनके अंगद और चन्द्रकेतु नाम के दो पुत्र तथा सोमदा नाम की एक पुत्री थी। आधुनिक साहित्यकारों ने उर्मिला को विविध कलाओं में पारंगत और कर्तव्यपरायण नारी के रूप में चित्रित किया है। राम के साथ लक्ष्मण के भी चौदह वर्ष के लिए वन जाने पर उर्मिला ने अपनी विरह-व्यथा को जीव-जन्तुओं के प्रति सहानुभूति में बदल दिया।[1]
साहित्य में उर्मिला
राम काव्य परम्परा में उर्मिला के चरित्र का सफल रेखांकन ‘साकेत’ और ‘उर्मिला’ में मिलता है, जिसमें उसके उपेक्षित व्यक्तित्व को उभारा गया है । ‘साकेत’ का नवम् सर्ग उर्मिला के विरह-विषाद की चरम निदर्शना है । वह अपने मन-मन्दिर में प्रिय की प्रतिभा स्थापित कर सम्पूर्ण भोगों को त्याग कर अपना जीवन योगमय बना लेती है, यथा-
मानस मन्दिर में सती, पति की प्रतिमा थाप,
जलती थी उस विरह में, बनी आरती आप ।
आँखों में प्रिय मूर्ति थी, भूले थे सब भोग,
हुआ योग से भी अधिक, उसका विषम वियोग ॥29॥[2]
उर्मिला में क्षत्राणी का व्यक्तित्व भी दृष्टिगोचर होता है । लक्ष्मण को शक्ति लगने का समाचार पाकर वह शत्रुघ्न के समीप उपस्थित हो जाती है । वह कार्तिकेय के निकट भवानी लग रही थी । उसके आनन पर सौ अरूणों का तेज फूट रहा था । उसके माथे का सिन्दूर सजग अंगार सदृश था।[3] वह कहती हैं-
विंध्य-हिमाचल-भाल भला झुक आ न धीरो,
चन्द्र-सूर्य कुल-कीर्ति कला रूक जाय न वीरो ।[4]
ठहरो, यह मैं चलूँ कीर्ति सी आगे-आगे,
भोगें अपने विषम कर्मफल अधम अभागे ।।31॥[5]
उर्मिला ओर लक्ष्मण का पारस्परिक प्रेम एक-दूसरे को पूर्णता की ओर अग्रसर करता है। इस युगल का प्रेम शुद्ध, सात्विक और आत्मिक है । उसमें कहीं उच्छृंखलता, विलासिता और पार्थिवता की दुर्गन्ध नहीं है । तभी तो संयोग की अपूर्व वेला में उर्मिला लक्ष्मण से पूछती है कि-
प्रेम के शुद्ध रूप कहो- सम्मिलन है प्रधान या गौण?
कौन ऊँचा है? भावोद्रेक? या कि नत आत्मनिवेदन मौन?[6]
डॉ. श्यामसुन्दर दास ने कहा, ‘काव्य की यह चिर उपेक्षिता, ‘साकेत’ ही नहीं, हिन्दी महाकाव्यों की चरित्रभूमि में प्रथम बार जिस वेष में प्रकट होती है, वह वेष अश्रु विगलित होकर भी ओजमय, आदर्शप्रधान होकर भी स्वाभाविकता के निकट एवं दैवी गुणों से मंडित होकर भी नारी सुलभ है ।[7]
महत्त्वपूर्ण संदर्भ
- सर्वप्रथम महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने एक निबन्ध में अत्यन्त भावुकतापूर्ण शैली में उपेक्षिता उर्मिला का स्मरण किया और आदिकवि वाल्मीकि तथा अन्य परवर्ती कवियों की उर्मिला-विषयक उदासीनता की आलोचना की। उसी लेख से प्रेरणा लेकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' में एक लेख लिखा और कवियों को उर्मिला का उद्धार करने का आह्वान किया।
- मैथिलीशरण गुप्त ने द्विवेदी जी के लेख से प्रेरणा लेकर 'उर्मिला-उत्ताप' रचना प्रारम्भ की। 'उर्मिला-उत्ताप' के चार सर्ग सन् 1920 के पहले ही रचे जा चुके थे किन्तु बाद में गुप्त जी ने अपनी रचना को सम्पूर्ण रामकथा का रूप देने का विचार किया और इसे 'साकेत' के नाम से रचकर प्रकाशित किया। राम कथा में उर्मिला जैसे एक गौण पात्र को जितनी प्रमुखता दी जा सकती थी, गुप्त जी ने उसे देने का भरपूर प्रयत्न किया। उन्होंने उर्मिला के अल्पकालीन संयोग का मनोहर चित्र देकर उसके दीर्घ और दारुण वियोग का अत्यन्त मार्मिक और प्रभावशाली चित्र देने में सफलता प्राप्त की। 'साकेत' के नवम सर्ग में उर्मिला के विरही जीवन के बड़े ही मर्मस्पर्शी चित्र मिलते हैं। गुप्त जी ने इस चित्रांकन में प्राचीन कवियों के वर्णनों और उक्तियों का प्रयोग कर अपने काव्यानुशीलन का भी परिचय दिया है। 'साकेत' के अन्तिम सर्ग में लक्ष्मण और उर्मिला का पुनर्मिलन वैसा ही हृदयावर्जक है, जैसा कि प्रथम सर्ग में वर्णित उनका संयोगसुख आहलादकारी है।
- उर्मिला विषयक कुछ अन्य रचनाएँ भी हुई जिसमें बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' का 'उर्मिला' शीर्षक खण्डकाव्य विशेष उल्लेखनीय है। इस खण्डकाव्य में केवल उर्मिला विषयक घटना प्रसंगों को लेने के कारण कवि कथानक की एकात्मकता और स्वतन्त्रता को अधिक सुरक्षित रख सका है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय संस्कृति कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा पर्वतीय |प्रकाशक: राजपाल एन्ड सन्स दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 148 |
- ↑ साकेत, सर्ग 9, पृ.269
- ↑ हिन्दी के आधुनिक पौराणिक महाकाव्य, डॉ. देवीप्रसाद, पृ.135
- ↑ साकेत, पृ. 474-75
- ↑ साकेत, पृ. 135
- ↑ उर्मिला, डॉ. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ पृ 135
- ↑ हिन्दी महाकाव्यों में नारी-चित्रण, पृ. 650
- 'साकेत'; मैथिलीशरण गुप्त:
- 'उर्मिला'; बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
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