बवासीर
बवासीर |
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परिचय
वैसे प्राचीनकाल से ही देखा जाए तो सभ्यता के विकास के साथ-साथ बहुत सारे आसाध्य रोग भी पैदा हुए हैं। इनमें से कुछ रोगों का इलाज तो आसान है लेकिन कुछ रोग ऐसे भी है जिनका इलाज बहुत मुश्किल से होता है। इन रोगों में से एक रोग बवासीर (Piles) भी है। इस रोग को हेमोरहोयड्स, पाइस या मूलव्याधि भी कहते हैं। बवासीर भी आधुनिक सभ्यता की देन है। इन दिनों यह रोग आम हो गया है। बवासीर को आयुर्वेद / उर्दू में अर्श कहते हैं। अर्श एक दीर्घकालीन प्राण-घातक बीमारी है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है - अरि+श= अर्थात् दुश्मन, रिपु, शत्रु आदि तथा ‘श’- अर्थात् वह वैरी रोग। अतः शास्त्रकारों ने अरिवत् प्राणात् श्रृणाति, हिनस्ती अर्श अति: अर्थात् जो रोग शत्रु की तरह मानव के प्राणों को नष्ट कर देता हो उसे ही अर्श, बवासीर कहते हैं।[1] बवासीर रोग में आंतों के अंतिम हिस्से या मलाशय (गुदा) की भीतरी दीवार में मौजूद रक्त की नसें (धमनी शिराओं) सूजने के कारण तनकर फूल (फ़ैल) जाती हैं। इससे उनमें कमज़ोरी आ जाती है और मल त्याग के वक़्त ज़ोर लगाने से या कड़े मल के रगड़ खाने से ख़ून की नसों में दरार पड़ जाती हैं और उसमें से ख़ून बहने लगता है। अर्श (बवासीर) रोग जब भयंकर रूप से ग्रसित कर लेता है तब गुदा द्वार, नाभि, लिंग, अण्ड-कोष, मुख-मण्डल एवं हाथ-पैर आदि अंग-प्रत्यंगों में सूजन आ जाती है। रोग श्वांस-काश, ज्वर बेहोशी, वमन, अरूचि, हृदय में वेदना, अधिक रक्तस्राव, कब्जियत, गुदास्थान पक कर उसमें पीले रंग का फोड़ा होना, अत्यधिक प्यास तथा सर्वांग शिथिल होने से अत्यन्त कष्टमय एवं दुखित जीवन व्यतीत करना पड़ता है। बवासीर के रोगी के लिए उक्त लक्षण अत्यन्त खतरनाक एवं जीवन हीनता के अशुभ लक्षण हैं। अतिसार संग्रहणी और बवासीर यह एक दूसरे को पैदा करने वाले होते है।
प्रकार
बवासीर 2 प्रकार (kind of piles) की होती हैं। एक भीतरी बवासीर तथा दूसरी बाहरी बवासीर।
- भीतरी / ख़ूनी बवासीर / आन्तरिक / रक्त स्रावी अर्श / रक्तार्श
ख़ूनी बवासीर में मलाशय की आकुंचक पेशी के अन्दर अर्श होता है तो वह म्युकस मेम्ब्रेन (Mucous Membrane) से ढका रहता है। ख़ूनी बवासीर में किसी प्रक़ार की तकलीफ नहीं होती है केवल ख़ून आता है। पहले पखाने में लगके, फिर टपक के, फिर पिचकारी की तरह से सिर्फ़ ख़ून आने लगता है। इसके अन्दर मस्सा होता है। जो कि अन्दर की तरफ होता है फिर बाद में बाहर आने लगता है। टट्टी के बाद अपने से अन्दर चला जाता है। पुराना होने पर बाहर आने पर हाथ से दबाने पर ही अन्दर जाता है। आख़िरी स्टेज में हाथ से दबाने पर भी अन्दर नहीं जाता है।[2]भीतरी बवासीर हमेशा धमनियों और शिराओं के समूह को प्रभावित करती है। फैले हुए रक्त को ले जाने वाली नसें जमा होकर रक्त की मात्रा के आधार पर फैलती हैं तथा सिकुड़ती है। इस रोग में गुदा की भीतरी दीवार में मौजूद ख़ून की नसें सूजने के कारण तनकर फूल जाती हैं। इससे उनमें कमज़ोरी आ जाती है और मल त्याग के वक़्त ज़ोर लगाने से या कड़े मल के रगड़ खाने से ख़ून की नसों में दरार पड़ जाती हैं और उसमें से ख़ून बहने लगता है। इन भीतरी मस्सों से पीड़ित रोगी वहां दर्द, घाव, खुजली, जलन, सूजन और गर्मी की शिकायत करते हैं। यह बवासीर रोगी को तब होती है जब वह मलत्याग करते समय अधिक ज़ोर लगाता है। बच्चे को जन्म देते समय यदि स्त्री अधिक ज़ोर लगाती है तब भी उसे यह बवासीर हो जाती है। इस रोग से पीड़ित रोगी अधिकतर कब्ज से पीड़ित रहते हैं।[1] इसमें भी मलावरोध रहता है। इस बवासीर के कारण मलत्याग करते समय रोगी को बहुत तेज दर्द होता है। इस बवासीर के कारण मस्सों से ख़ून निकलने लगता है। यह बहुत भयानक रोग है, क्योंकि इसमें पीड़ा तो होती ही है साथ में शरीर का ख़ून भी व्यर्थ नष्ट होता है।
- बाहरी / बादी बवासीर / अरक्त स्रावी या ब्राह्य अर्श
बादी बवासीर रहने पर पेट ख़राब रहता है। कब्ज बना रहता है। गैस बनती है। न कि पेट गड़बड़ की वजह से बवासीर होती है। इसमें जलन, दर्द, खुजली, शरीर मै बेचैनी, काम में मन न लगना इत्यादि। टट्टी कड़ी होने पर इसमें ख़ून भी आ सकता है। इसमें मस्सा अन्दर होने की वजह से पखाने का रास्ता छोटा पड़ता है और चुनन फट जाती है और वहाँ घाव हो जाता है उसे डाक्टर अपनी जवान में फिशर भी कहते हें। जिससे असहाय जलन और पीडा होती है। बवासीर बहुत पुराना होने पर भगन्दर हो जाता है। जिसे अंग़जी में फिस्टुला कहते हें। फिस्टुला कई प्रक़ार का होता है। भगन्दर में पखाने के रास्ते के बगल से एक छेद हो जाता है जो पखाने की नली में चला जाता है। और फोड़े की शक्ल में फटता, बहता और सूखता रहता है। कुछ दिन बाद इसी रास्ते से पखाना भी आने लगता है। बवासीर, भगन्दर की आख़िरी स्टेज होने पर यह केंसर का रूप ले लेता है। जिसको रिक्टम केंसर कहते हें। जो कि जानलेवा साबित होता है।[2]
लक्षण
अन्दरूनी बवासीर में गुदाद्वार के अन्दर सूजन हो जाती है तथा यह मलत्याग करते समय गुदाद्वार के बाहर आ जाती है और इसमें जलन तथा दर्द होने लगता है। बाहरी बवासीर में गुदाद्वार के बाहर की ओर के मस्से मोटे-मोटे दानों जैसे हो जाते हैं। जिनमें से रक्त का स्राव और दर्द होता रहता है तथा जलन की अवस्था भी बनी रहती है। ख़ूनी बवासीर में मस्से ख़ूनी सुर्ख होते है और उनसे ख़ून गिरता है, जबकि बादी वाली बवासीर में मस्से काले रंग के होते है, और मस्सों में खाज पीडा और सूजन होती है।
इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति को बैठने में परेशानी होने लगती है जिसके कारण से रोगी ठीक से बैठ नहीं पाता है। एक बवासीर मे तो मस्सों में से ख़ून निकलता है और यह ख़ून निकलना और तेज जब हो जाता है जब रोगी व्यक्ति शौच करता है। इस रोग के कारण व्यक्ति को मलत्याग करने में बहुत अधिक कष्टों का सामना करना पड़ता है।[1]
जब कोई व्यक्ति बवासीर से ग्रसित हो जाता है तो कब्ज की उसे शिकायत सदा बनी रहती है तथा अन्य लक्षण संक्षेप में निम्नांकित हैं :-
- मांसांकुर / अंकुर / मस्से :- इसमें गुदाद्वार की त्रिवलि की नसें फूलकर बड़ी हो जाती हैं जो मटर ‘चना या मुनक्का’ की तरह देखने में लगती हैं। यह एक-दो से लेकर दस-बारह तक अंगूरों के गुच्छे की तरह हो सकते हैं। रोग के प्रारंभ में बवासीर के मस्से गुदा के बाहर नहीं आते हैं। फिर जैसे-जैसे बीमारी पुरानी होती जाती है। यह मस्से बहार निकलना शुरू कर देते हैं। ऐसे में इन्हें मल त्याग के पश्चात हाथों से भीतर धकेलना पड़ता है। अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंचने पर तो वह इस स्थिति में पहुंच जाते हैं कि हमेशा गुदा के बाहर ही लटके रह जाते हैं और हाथों से ढकेलने पर भी अंदर नहीं जाते। ऐसी अवस्था में इन मस्सों से एक चिपचिपे पदार्थ का स्राव होने लगता है।
- खुजली :- अर्श रोग की प्रारम्भिक अवस्था में जब अर्बुद ढीले रहते हैं तब उसमें कोई कष्ट नहीं होता। ऐसी हालात में शौच के पूर्व पश्चात् मलाशय में खुजली होती है। ‘मल द्वार खुजलाता है, सुरसुरी होती है, कभी-कभी प्रदाह और दर्द होता है, सूजन आ जाती है, जलन होती है और इस स्थान से उठी दुर्गंध भी अनेक लोग महसूस करते हैं। इस समय चलने-फिरने में रोगी को बड़ी भारी तकलीफ होती है। पाखाने के समय बड़ी तकलीफ होती है।
- मलाशय में अटकने की अनुभूति :- शौच के समय ज़ोर लगाने पर मस्से बाहर निकलते हैं जिसे पुनः अन्दर करने में रोगी को कष्ट होता है, कभी-कभी मस्सों को उंगली से भीतर करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में पूर्णरूप से मल विसर्जन भी नहीं होता।
- मलावरोध :- बवासीर की जड़ एक मात्र कब्ज ही है। रोगी को कब्ज हमेशा बना रहता है, कठिन मल खूब ज़ोर लगाने पर गांठ-गांठ निकलता है। दस्तकारक दवाएं खाने से भी कब्ज दूर नहीं होती। कई दिनों तक पाखाना नहीं होता।
- दर्द एवं रक्तस्राव :- ख़ूनी बवासीर में शौच के पूर्व एवं पश्चात बवासीर से रक्त मिलता है। ख़ून की पिचकारी-सी चलती है, नवीन (Acute) अवस्था में बहुत ज़्यादा दर्द रहता है, शौच करते वक्त जब मस्से बाहर निकलते हैं तब भारी तकलीफ होती है। मस्से बाहर निकल आने से मलद्वार की आकुंचन पेशी (र्स्फीटर) उन्हें दबा लेती है जिससे प्रदाह हो जाता है।
- मनोविकार :- अधिक दिनों तक रोग भोगने से ‘मनोस्नायु दौर्बल्य’ चिन्ता, उन्माद आदि मनोविकारों के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
- मल :- बवासीर के रोगी का मल ढीला, कड़ा, गांठदार, रक्त-मिश्रित, आंवयुक्त आदि हो सकते हैं किन्तु अर्श के मल को पहचानने के कुछ विशेष लक्षण भी स्मरणीय हैं - बवासीर के रोगी में गुदा मार्ग से रक्तस्राव जो शुरुआत में सीमित मात्रा में मल त्याग के समय या उसके तुरंत बाद होता है। यह रक्त या तो मल के साथ लिपटा होता है या बूंद-बूंद टपकता है। कभी-कभी यह बौछार या धारा के रूप में भी मल द्वारा से निकलता है। तो कभी पिचकारी की तरह तो कभी झरने की तरह निःसृत होता है। अक्सर यह रक्त चमकीले लाल रंग का होता है, कभी काले-काले, कई रंगों की तरह गिरते हैं, मगर कभी-कभी हल्का बैंगनी या गहरे लाल रंग का भी हो सकता है। कभी तो ख़ून की गिल्टियां भी मल के साथ मिली होती हैं। किन्तु कड़े मल के एक ओर ख़ून की एक पृथक रेखा-सी बनकर स्पष्ट दिखायी देती है। इस रोग मे मल्त्याग के बाद रोगी पूर्ण रुप से संतुष्टि नहीं महसूस करता है।
इस बीमारी की जांच किसी भी कुशल चिकित्सक द्वारा करायी जा सकती है। गुदा की भीतरी रचना और उसके विकार का पता उंगली से जांच द्वारा और एक विशेष उपकरण के द्वारा लगाया जा सकता है। इससे यह भी जानकारी मिल सकती है कि रोग कितना फैला हुआ है, उसमें कोई अन्य जटिलतायें तो शामिल नहीं है।
कारण
दोनों प्रकार की बवासीर होने के कारण निम्नलिखित हैं -
- कब्ज- बवासीर रोग होने का मुख्य कारण पेट में कब्ज बनना है। दीर्घकालीन कब्ज बवासीर की जड़ है। 50 से भी अधिक प्रतिशत व्यक्तियों को यह रोग कब्ज के कारण ही होता है। सुबह-शाम शौच न जाने या शौच जाने पर ठीक से पेट साफ़ न होने और काफ़ी देर तक शौचालय में बैठने के बाद मल निकलने या ज़ोर लगाने पर मल निकलने या जुलाब लेने पर मल निकलने की स्थिति को कब्ज होना कहते हैं। इसलिए जरूरी है कि कब्ज होने को रोकने के उपायों को हमेशा अपने दिमाग में रखें। कब्ज की वजह से मल सूखा और कठोर हो जाता है जिसकी वजह से उसका निकास आसानी से नहीं हो पाता। मलत्याग के वक़्त रोगी को काफ़ी वक़्त तक पखाने में उकडू बैठे रहना पड़ता है, जिससे रक्त वाहनियों पर ज़ोर पड़ता है और वह फूलकर लटक जाती हैं। कब्ज के कारण मलाशय की नसों के रक्त प्रवाह में बाधा पड़ती है जिसके कारण वहां की नसें कमज़ोर हो जाती हैं और आन्तों के नीचे के हिस्से में भोजन के अवशोषित अंश अथवा मल के दबाव से वहां की धमनियां चपटी हो जाती हैं तथा झिल्लियां फैल जाती हैं। जिसके कारण व्यक्ति को बवासीर हो जाती है।
- यह रोग व्यक्ति को तब भी हो सकता है जब वह शौच के वेग को किसी प्रकार से रोकता है।
- इस कष्टदायी रोग से मुक्ति पाने के लिए परहेज जरुरी है। मैदा, बेसन और मावे से बने पदार्थों से बचे। मोटे आटे से बनी रोटी खाएं।
- भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी होने के कारण बिना पचा हुआ भोजन का अवशिष्ट अंश मलाशय में इकट्ठा हो जाता है और निकलता नहीं है, जिसके कारण मलाशय की नसों पर दबाव पड़ने लगता हैं और व्यक्ति को बवासीर हो जाती है।
- गरिष्ठ भोजन - अत्यधिक मिर्च, मसाला, तली हुई चटपटी चीज़ें, मांस, अंडा, रबड़ी, मिठाई, मलाई, अति गरिष्ठ तथा उत्तेजक भोजन करने के कारण भी बवासीर रोग हो सकता है।
- अधिक भोजन - अतिभोजन अर्श रोग मूल कारणम् अर्थात् आवश्यकता से अधिक भोजन करना बवासीर का प्रमुख कारण है।
- शौच करने के बाद मलद्वार को गर्म पानी से धोने से भी बवासीर रोग हो सकता है।
- दवाईयों का अधिक सेवन करने के कारण भी यह रोग व्यक्ति को हो सकता है। डिस्पेपसिया और किसी जुलाब की गोली का अधिक दिनॊ तक सेवन करना।
- रात के समय में अधिक जगने के कारण भी व्यक्ति को बवासीर का रोग हो सकता है।[1]
- कुछ व्यक्तियों में यह रोग पीढ़ी दर पीढ़ी पाया जाता है। अतः अनुवांशिकता इस रोग का एक कारण हो सकता है।
- जिन व्यक्तियों को अपने रोज़गार की वजह से घंटों खड़े रहना पड़ता हो, जैसे बस कंडक्टर, ट्रॉफिक पुलिस, पोस्टमैन या जिन्हें भारी वजन उठाने पड़ते हों,- जैसे कुली, मज़दूर, भारोत्तलक वगैरह, उनमें इस बीमारी से पीड़ित होने की संभावना अधिक होती है।
- बवासीर गुदा के कैंसर की वजह से या मूत्र मार्ग में रूकावट की वजह से या गर्भावस्था में भी हो सकता है।[3]
- गर्भावस्था मे भ्रूण का दबाब पडना।
- बवासीर मतलब पाइल्स यह रोग बढ़ती उम्र के साथ जिनकी जीवनचर्या बिगड़ी हुई हो, उनको होता है।
- यकृत :- पाचन संस्थान का यकृत सर्वप्रधान अंग है। इसके भीतर तथा यकृत धमनी आदि में पोर्टल सिस्टम रक्त की अधिकता होकर यह रोगित्पन्न होता है। जैसे - सिरोसिस आफ़ लिवर।
- हृदय की कुछ बीमारियाँ।
- उदरामय - निरन्तर तथा तेज उदरामय निश्चित रूप से बवासीर उत्पन्न करता है।
- मद्यपान एवं अन्य नशीले पदार्थों का सेवन - अत्यधिक शराब, ताड़ी, भांग, गांजा, अफीम आदि के सेवन से बवासीर होता है।
- चाय एवं धूम्रपान - अधिकाधिक चाय, कॉफी आदि पीने तथा दिन रात धूम्रपान करने से अर्शोत्पत्ति होती है।
- पेशाब संस्थान - मूत्राशय की गड़बड़ी, पौरुष ग्रन्थि की वृद्धि, मूत्र पथरी आदि रोग में पेशाब करते समय ज़्यादा ज़ोर लगाने के कारण" भी यह रोग होता है। मल त्याग के समय या मूत्र नली की बीमारी मे पेशाब करते समय काँखना।
- शारीरिक परिश्रम का अभाव - जो लोग दिन भर आराम से बैठे रहते हैं और शारीरिक श्रम नहीं करते उन्हें यह रोग हो जाता है।
- बवासीर को आधुनिक सभ्यता का विकार कहें तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। खाने पीने मे अनिमियता, जंक फ़ूड का बढता हुआ चलन और व्यायाम का घटता महत्त्व, लेकिन और भी कई कारण हैं बवासीर के रोगियों के बढने में।
उपचार
रोग निदान के पश्चात प्रारंभिक अवस्था में कुछ घरेलू उपायों द्वारा रोग की तकलीफों पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा सकता है। सबसे पहले कब्ज को दूर कर मल त्याग को सामान्य और नियमित करना आवश्यक है। इसके लिये तरल पदार्थों, हरी सब्जियों एवं फलों का बहुतायात में सेवन करें। बादी और तली हुई चीज़ें, मिर्च-मसालों युक्त गरिष्ठ भोजन न करें। मलत्याग के पश्चात गुदा के आसपास की अच्छी तरह सफाई और गर्म पानी का सेंक करना भी फ़ायदेमंद होता है। इससे कभी बवासीर नहीं होता है। इसके लिये आवश्यक है कि नाख़ून क़तई बड़ा नहीं हो, अन्यथा भीतरी मुलायम खाल के जख्मी होने का ख़तरा होता है, प्रारंभ में यह उपाय अटपटा लगता है, पर शीघ्र ही इसके अभ्यस्त हो जाने पर तरोताजा महसूस भी होने लगता है। यदि उपरोक्त उपायों के पश्चात भी रक्त स्राव होता है तो चिकित्सक से सलाह लें। इन मस्सों को हटाने के लिये कई विधियां उपलब्ध है। मस्सों में इंजेक्शन द्वारा ऐसी दवा का प्रवेश जिससे मस्से सूख जायें। मस्सों पर एक विशेष उपकरण द्वारा रबर के छल्ले चढ़ा दिये जाते हैं, जो मस्सों का रक्त प्रवाह अवरुद्ध कर उन्हें सुखाकर निकाल देते हैं। एक अन्य उपकरण द्वारा मस्सों को बर्फ़ में परिवर्तित कर नष्ट किया जाता है। शल्यक्रिया द्वारा मस्सों को काटकर निकाल दिया जाता है।[3]
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