शंभुनाथ डे की खोज
शंभुनाथ डे की खोज
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पूरा नाम | शंभुनाथ डे |
जन्म | 1 फ़रवरी, 1915 |
जन्म भूमि | हुगली, पश्चिम बंगाल |
मृत्यु | 15 अप्रॅल, 1985 |
अभिभावक | पिता- दशरथी डे, माता- छत्तेश्वरी |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | पैथोलॉजी, बैक्टीरियोलॉजी |
विशेष योगदान | डॉ. शंभुनाथ डे ने हैजे के जीवाणु पर विशेष शोध कार्य किये और पता लगाया कि यह जीवाणु शरीर में एक ज़हर पैदा करता है, जिससे शरीर में जल की कमी हो जाती है और मरीज की मृत्यु हो जाती है। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | शंभुनाथ डे को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने काम के लिए पहचान मिली। उन्हें 'नोबेल पुरस्कार' के लिए नामांकित भी किया गया। उनका नामांकन किसी और ने नहीं, बल्कि मशहूर वैज्ञानिक जोशुहा लेडरबर्ग ने किया था। |
शंभुनाथ डे कलकत्ता मेडिकल कॉलेज के पेथोलॉजी विभाग के पूर्व निदेशक और शोधकर्ता थे। उन्होंने पता लगाया था कि हैजे के जीवाणु द्वारा पैदा किया गया एक ज़हर शरीर में पानी की कमी और रक्त के गाढ़े होने का कारण बनता है, जिसके कारण आखिरकार हैजे के मरीज की जान चली जाती है। उन्होंने कई दिक्कतों और मुसीबतों के बाद भी कोलकाता के बोस संस्थान में यह बेहद जरूरी और खास मानी जाने वाली खोज की थी।
साधनों की कमी के बावजूद भी उन्होंने हैजे के जीवाणु द्वारा पैदा किए जाने वाले जानलेवा टॉक्सिन के बारे में पता लगाया था। इसके बाद दुनिया भर में अनगिनत हैजे के मरीजों की जान मुंह के रास्ते पानी देकर शरीर में पानी की पर्याप्त मात्रा बरकरार रख बचाई गई। एक समय में महामारी माने जाने वाले हैजा का खौफ इतना ज्यादा था कि गांव-के-गांव इसकी चपेट में आकर खत्म हो जाते थे, लेकिन अब यह एक सामान्य बीमारी मानी जाती है। यह सब शंभुनाथ डे की खोज के कारण ही मुमकिन हो सका।
शंभुनाथ डे की खोज किसी भी मायने में रॉबर्ट कॉख या किसी भी अन्य वैज्ञानिक खोज से कम नहीं थी, लेकिन शंभुनाथ जिस पहचान के हकदार थे, उन्हें वह कभी नहीं मिल सकी। 1985 में जब उनकी मौत हुई, तब तक उनका नाम भारत तक में बेहद कम जाना जाता था। दिल्ली में उनके जन्म शती के मौके पर आयोजित एक भाषण को छोड़ दिया जाए, तो यह मौका भी बहुत गुमनाम तरीके से बीत गया।[1]
शंभुनाथ डे का परिवार चाहता है कि कोलकाता विश्वविद्यालय उनकी याद में एक सालाना लेक्चर का आयोजन करे। उनके बेटे श्यामल डे का कहना था कि- "उनके योगदान को अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान समुदाय ने उनकी खोज करने के कई साल बाद महत्व दिया। साठ के दशक के आखिरी दौर में विदेशी शोधकर्ता उनके काम का संदर्भ इस्तेमाल करने लगे। 1978 में नोबेल फाउंडेशन ने उनसे संपर्क किया और उन्हें हैजा पर आयोजित एक संगोष्ठी में भाग लेने का न्योता दिया। 1990 में साइंस टुडे पत्रिका ने उनके ऊपर एक विशेष प्रति छापी, लेकिन उनके काम को भारत में कभी ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। बहुत कम लोगों ने उनके शोध और अध्ययन को अपने शोध में संदर्भ की तरह इस्तेमाल किया। हालांकि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह अपनी खोजों और प्रयोगों के साथ खुश रहते थे।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य
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नामक संदर्भ की जानकारी नहीं है