मोहन राकेश

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मोहन राकेश
मोहन राकेश
मोहन राकेश
पूरा नाम मोहन राकेश
जन्म 8 जनवरी, 1925
जन्म भूमि अमृतसर
मृत्यु 3 जनवरी, 1972
मृत्यु स्थान नयी दिल्ली
कर्म-क्षेत्र नाटककार और उपन्यासकार
मुख्य रचनाएँ उपन्यास- अँधेरे बंद कमरे, अन्तराल

नाटक- अषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, 'आधे अधूरे'

भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
विद्यालय पंजाब विश्वविद्यालय
शिक्षा हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम.ए.
पुरस्कार-उपाधि 1968 में 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार'
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी आधुनिक हिन्दी साहित्य काल में मोहन राकेश का नाम प्रमुख है, जिन्होंने अपने लेखन से दूर होते हिन्दी साहित्य को रंगमंच के दुबारा क़रीब ला दिया और खुद को भारतेन्दु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के समकक्ष खड़ा कर दिया।
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मोहन राकेश (अंग्रेज़ी: Mohan Rakesh, जन्म- 8 जनवरी, 1925, अमृतसर; मृत्यु- 3 जनवरी, 1972, दिल्ली) 'नई कहानी आन्दोलन' के साहित्यकार थे। हिन्दी नाटक के क्षितिज पर मोहन राकेश का उदय उस समय हुआ, जब स्वाधीनता के बाद पचास के दशक में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का ज्वार देश में जीवन के हर क्षेत्र को स्पन्दित कर रहा था। उनके नाटकों ने न सिर्फ़ नाटक का आस्वाद, तेवर और स्तर ही बदल दिया, बल्कि हिन्दी रंगमंच की दिशा को भी प्रभावित किया। आधुनिक हिन्दी साहित्य काल में मोहन राकेश का नाम प्रमुख है, जिन्होंने अपने लेखन से दूर होते हिन्दी साहित्य को रंगमंच के दुबारा क़रीब ला दिया और खुद को भारतेन्दु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के समकक्ष खड़ा कर दिया।

जीवन परिचय

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें ‘नयी कहानी आंदोलन’ का नायक माना जाता है और साहित्य जगत में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का ‘महानायक’ कहते हैं। उन्होंने ‘आषाढ़ का एक दिन’ के रूप में हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा। कहानीकार-उपन्यासकार प्रकाश मनु भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं, जो नयी कहानी के दौर में मोहन राकेश को सर्वोपरि मानते हैं। मनु ने कहा ‘‘नयी कहानी आंदोलन ने हिंदी कहानी की पूरी तस्वीर बदली है। उस दौर में तीन नायक मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव रहे। खुद कमलेश्वर और राजेंद्र यादव भी राकेश को हमेशा सर्वश्रेष्ठ मानते रहे।[1]

जन्म तथा शिक्षा

मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी, 1925 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था। उनके पिता पेशे से वकील थे और साथ ही साहित्य और संगीत के प्रेमी भी थे। पिता की साहित्यिक रुचि का प्रभाव मोहन राकेश पर भी पड़ा। मोहन राकेश ने पहले लाहौर के 'ओरियंटल कॉलेज' से 'शास्त्री' की परीक्षा पास की। किशोरावस्था में सिर से पिता का साया उठने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पढ़ाई जारी रखी। इसके बाद उन्होंने 'पंजाब विश्वविद्यालय' से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। एक शिक्षक के रूप में पेशेवर ज़िंदगी की शुरुआत करने के साथ ही उनका रुझान लघु कहानियों की ओर हुआ। बाद में उन्होंने कई नाटक और उपन्यास लिखे। बाद में अनेक वर्षों तक दिल्ली, जालंधर, शिमला और मुम्बई में अध्यापन कार्य करते रहे।

स्वतंत्र लेखन

अपनी साहित्यिक अभिरुचि के कारण मोहन राकेश का अध्यापन कार्य में मन नहीं लगा और एक वर्ष तक उन्होंने 'सारिका' पत्रिका का सम्पादन किया। इस कार्य को भी अपने लेखन में बाधा समझकर इससे किनारे कर लिया और जीवन के अन्त तक स्वतंत्र लेखन ही इनके जीविकोपार्जन का साधन रहा। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार थे। समाज की संवेदनशील अनुभूतियों को चुनकर उनका सार्थक सम्बन्ध खोज निकालना उनकी कहानियों की विषय-वस्तु थी।

नए दौर के नाटक लेखक

हिन्दी नाटकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद का दौर मोहन राकेश का दौर है, जिसमें हिन्दी नाटक दुबारा से रंगमंच से जुड़े। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद यदि कोई लीक से हटकर नाम उभरता है तो वह मोहन राकेश जी का है। बीच में और भी कई नाम आते हैं, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए, किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक अलग ही स्थान पर नज़र आता है। इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया।[2]

रचनाएँ

मोहन राकेश की रचनाएं पाठकों और लेखकों के दिलों को छूती हैं। एक बार जो उनकी रचना को पढ़ता तो वह पूरी तरह से राकेश के शब्दों में डूब जाता है। राकेश के उपन्यास ‘अंधेरे बंद कमरे’, ‘ना आने वाला कल’, ‘अंतराल’ और ‘बाकलमा खुदा’ है। इसके अलावा ‘आधे अधूरे’, ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों के राजहंस’ उनके कुछ मशहूर नाटक हैं। ‘लहरों के राजहंस’ उनका सबसे विख्यात नाटक रहा।[1] मोहन राकेश ने नाटक, उपन्यास, कहानी, यात्रा वृत्तान्त, निबन्ध आदि विधाओं में विपुल साहित्य की रचना की।

कथा साहित्य

मोहन राकेश पहले कहानी विधा के ज़रिये हिन्दी में आए। उनकी 'मिसपाल', 'आद्रा', 'ग्लासटैंक', 'जानवर' और 'मलबे का मालिक', आदि कहानियों ने हिन्दी कहानी का परिदृश्य ही बदल दिया। वे 'नयी कहानी आन्दोलन' के शीर्ष कथाकार के रूप में चर्चित हुए। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार हैं। उनकी कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के उस्ताद थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक में उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है। कहानी के बाद राकेश को सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली है।[3]

नाट्य-लेखन

मोहन राकेश को कहानी के बाद नाट्य-लेखन के क्षेत्र में सफलता मिली। मोहन राकेश को हिन्दी नाटकों का अग्रदूत भी कह सकते हैं। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद कोई नाम उभरता है तो वह मोहन राकेश का है। उन्होंने अच्छे नाटक लिखे और हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहन से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया। वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर प्रदान किया और सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहीम अलकाज़ी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड़, श्यामानन्द जालान, रामगोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर ने मोहन राकेश के नाटकों का निर्देशन किया।

नाटक 'आषाढ़ का एक दिन'

राकेश जी की सबसे बड़ी उपलब्धि उनका नाटक "आषाढ़ का एक दिन" था, जिसने नाटकों को एक नया आयाम दिया। 'आषाढ़ का एक दिन' सन 1958 में प्रकाशित और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित एक हिन्दी नाटक है। कभी-कभी इसे हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। सन 1959 में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था। कई प्रसिद्ध निर्देशक इस नाटक कोअ मंच पर ला चुके हैं। 1979 में निर्देशक मणि कौल ने इस पर आधारित एक फ़िल्म बनाई, जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' भी जीत लिया। 'आषाढ़ का एक दिन' महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर केन्द्रित है, जो 100 ई. पू. से 500 ईसवी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ। इस नाटक का शीर्षक कालिदास की कृति 'मेघदूतम्' की शुरुआती पंक्तियों से लिया गया है, क्योंकि अषाढ़ का महीना उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का शुरुआती महिना होता है, इसका सीधा अर्थ "वर्षा ऋतू का एक दिन" हैं।[2]

मोहन राकेश द्वारा रचित 'आषाढ़ का एक दिन' एक त्रिखंडीय नाटक है। इसमें सफलता और प्रेम में से एक को चुनने के संशय से जूझते कालिदास, एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को रखा गया है। वहीं प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देने वाली इस नाटक की नायिका मल्लिका के रूप में हिन्दी साहित्य को एक न भूलने वाला योग्य पात्र मिला है।

कथन

'आषाढ़ का एक दिन' नाटक के प्रकाशन के बाद हिन्दी नाटक और रंगमंच में राकेश जी ने और भी कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। वे अपने नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' की भूमिका में कहते है कि "हिन्दी रंगमंच की हिन्दी भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक पूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा, रंगों और राशियों के विवेक को व्यक्त करना होगा हमारे दैनदिन जीवन के रागरंग को प्रस्तुत करने के लिए हमारे संवेदों और स्पदंनों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं भिन्न होगा।"[4] राकेश जी को हिन्दी में नये रंग नाटकों का पुरोधा कहा जा सकता है। उनको नाटक की भाषा विषय पर कार्य करने के लिए 'नेहरू फ़ैलोशिप' प्राप्त हुई थी, किन्तु असमय मृत्यु हो जाने के कारण यह काम पूरा नहीं हो सका।

समकालीन लेखक

राकेश जी ने हिन्दी नाटक को नई ज़मीन पर खड़ा कर दिया जो उन्होंने स्वयं ने ज़मीन तलाशी थी। उनके पूर्ववर्ती प्रयोगधर्मी नाट्यकारों- लक्ष्मीनारायण, जगदीशचन्द्र माथुर, उपेन्द्रनाथ अश्क, लक्ष्मीनारायण लाल, धर्मवीर भारती आदि जिन विश्वजनीन चेतना को अग्रसर किया था उसका विकास क्रम मोहन राकेश में देखा जा सकता है जिन्हें हम आधुनिक भाव बोध का नाम भी दे सकते हैं। जिनमें हम यथार्थवाद, प्रकृतिवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यक्तिवाद, एपिक थियेटर या अतियथार्थवाद या असंगतवाद आदि अनेक मत-मतान्तरों में देखा है। मोहन राकेश के नाटकों ने नाटक की क्षेत्रीय और देशीय परिसीमाओं तोड़कर विश्वभर की समान्तर प्रवृत्तियों के रूप में उभरी है। वही उनके नाटकों की समस्त देशीप्त के बावजूद भी एक सामान्य पृष्ठभूमि के रूप में सामने आयी। वस्तुतः यह समान जीवनानुभूतियों और मानवीय स्थितियों के बीच नाटक के ने एक ऐसा सामान्य स्वरूप ग्रहण किया जो सारे विश्व को आकर्षित किया और कालान्तर में इसका प्रभाव भारत पर भी पडे बिना न रहा।[4]

प्रमुख कृतियाँ

मोहन राकेश ने मुख्यत: नाटक और उपन्यास लिखे। नाटक और उपन्यास के अतिरिक्त उन्होंने कुछ संस्कृत नाटकों और विदेशी उपन्यासों का अनुवाद भी किया। इनकी मुख्य रचनाएँ इस प्रकार हैं-

उपन्यास नाटक कहानी संग्रह निबंध संग्रह अनुवाद
  • क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ
  • पहचान तथा अन्य कहानियाँ
  • वारिस तथा अन्य कहानियाँ।
  • परिवेश
  • एकत्र - असंकलित तथा अप्रकाशित रचनाएं
  • आखिरी चट्टान तक (यात्रा-वृत्त) तथा डायरी।
  • मृच्छकटिकम
  • शाकुंतलम

सम्मान और पुरस्कार

वर्ष 1968 में मोहन राकेश को 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

निधन

हिन्दी साहित्य जगत को नई ऊँचाई देने वाले मोहन राकेश का 3 जनवरी, 1972 को नयी दिल्ली में आकस्मिक निधन हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 नयी कहानी के अनूठे नायक मोहन राकेश (हिंदी) वीकेएंड टाइम्स। अभिगमन तिथि: 3 जनवरी, 2013।
  2. 2.0 2.1 प्रथम आधुनिक हिन्दी नाटक लेखक (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 जनवरी, 2012।
  3. मोहन राकेश (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 11जून, 2011।
  4. 4.0 4.1 हिन्दी रंगमंच के अग्रदूत मोहन राकेश (हिन्दी) वाङ्मय हिन्दी पत्रिका। अभिगमन तिथि: 11जून, 2011।

बाहरी कड़ियाँ

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