सुरग नरक मैं रहा -कबीर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
| ||||||||||||||||||||
|
सुरग नरक मैं रहा, सतगुर के परसादि। |
अर्थ सहित व्याख्या
कबीरदास कहते हैं कि हे मानव! सत्गुरु की कृपा से मैं स्वर्ग-नरक दोनों से विरत हूँ। ये दोनों भोग के स्थल हैं। इनमें जन्म-मरण का चक्कर लगा रहता है। मैं तो निरन्तर प्रभु के चरण-कमल के आनन्द में मग्न रहता हूँ।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख