सनातन गोस्वामी को दीक्षा

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सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। सनातन गोस्वामी ने मंगलाचरण में केवल विद्यावाचस्पति के लिये 'गुरुन्' शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उनके दीक्षा गुरु थे, और अन्य सब शिक्षा गुरु। 'गुरुन' शब्द बहुवचन होते हुए भी गौरवार्थ में बहुत बार एक वचन में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी एक वचन में प्रयुक्त होकर विद्यावाचस्पति के साथ जुड़ा हुआ है।[1] यदि विद्यावाचस्पति और सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों दोनों से जुड़ा होता तो द्विवचन में प्रयुक्त किया गया होता। यदि जिनके नामों का यहाँ उल्लेख है, उन सबसे जुड़ा होता तो दो बार 'बन्दे' शब्द का प्रयोग न किया गया होता। मनोहरदास ने भी अनुरागबल्ली में वृहत्-वैष्णवतोषणी के मंगलाचरण का यही अर्थ किया है-

श्रीसनातन कैल दशम टिप्पणी।
तार मंगलाचरणे एइ मत बाणी॥
विद्यावाचस्पति निज गुरु करिलेन जे।

ताँहार श्रीमुख वाक्य देख परतेके॥

[2]

श्रीनरहरि चक्रवर्ती ने भक्तिरत्नाकर में विद्यावाचस्पति को ही सनातन का गुरु कहा है-

श्रीसनातन के गुरु विद्यावाचस्पति थे। वे बीच-बीच में रामकेलि ग्राम में आकर रहा करते थे।[3]

दीक्षा-गुरु

डा. राधागोविन्दनाथ ने[4] भी कहा है कि वैष्णवतोषणी के मंगलाचरण में उक्त विद्यावाचस्पति ही सनातन के गुरु थे। गौड़ीय-वैष्णव समाज में प्रचलित मत भी यही है। पर डा. विमानबिहारी मजूमदार[5] और डा. जाना ने[6] श्रीचैतन्य महाप्रभु को सनातन गोस्वामी का दीक्षा-गुरु माना है। प्रमाण में उन्होंने कहा है कि वृहद्भागवतामृत के दशम और एकादश श्लोक में सनातन गोस्वामी ने स्पष्ट रूप से श्रीचैतन्य को प्रणाम किया है। श्लोक इस प्रकार है-

[7] -जो कलि युग में प्रेमरस का विस्तार करने के लिए श्रीचैतन्य रूप में अवतीर्ण हुए हैं, उन निरूपाधि-कृपाकारी श्रीकृष्णरूप गुरुवर को मैं प्रणाम करता हूँ। यह ग्रन्थ भगवद्भक्ति-शास्त्र समूह का सार-स्वरूप है, जो श्रीचैतन्यदेव के प्रिय रूप, (यदि रूप)[8] द्वारा अनुभूत हुआ है।" डा. मजूमदार और डा. जाना का इस आधार पर श्रीचैतन्य को सनातन गोस्वामी का दीक्षा-गुरु मानना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यहाँ उन्होंने श्रीचैतन्यदेव की गुरु रूप में प्रणाम किया है अवश्य, पर दीक्षा-गुरु रूप में नहीं श्रीकृष्ण का अवतार होने के कारण जगद्गुरु रूप में। इन श्लोकों की टीका में उन्होंने स्वयं इस बात को स्पष्ट कर दिया है। टीका में उन्होंने लिखा है- " श्रीवैष्णव सम्प्रदाय रीत्या स्वस्यष्टदैवतरूपं श्रीगुरुवरं प्रणमति-वैष्णव सम्प्रदाय की रीति के अनुसार अपने इष्टदेव रूप में गुरुवर श्रीचैतन्यदेव को प्रणाम करता हूँ।" इष्ट समष्टि-गुरु रूप में साधक का गुरु होता है, दीक्षा-गुरु रूप में नहीं। वैष्णवशास्त्रानुसार श्रीमन्महाप्रभु हैं स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण तत्वत: समष्टिगुरु होते हुए भी व्यष्टिगुरु का कार्य नहीं करते। वे स्वयं किसी को दीक्षा नहीं देते। दीक्षा है कृष्ण-प्राप्ति का उपाय, श्रीकृष्ण हैं उपेय। उपेय स्वयं उपाय नहीं होता।

चैतन्य-चरण की प्राप्ति

डा. राधागोविन्दनाथ ने इस सम्बन्ध में एक और तर्क उपस्थित किया है। श्री चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु के दर्शन कर रूप-सनातन अपने घर चले गये और चैतन्य-चरण-प्राप्ति की आशा से उन्होंने दो पुरश्चरण करायें हरिभक्तिविलास 7।3 श्लोक की विधि के अनुसार पुरश्चरण दीक्षा के पश्चात ही होता है, उसके पूर्व नहीं। इससे स्पष्ट है कि श्रीचैतन्य का साक्षात् होने के पूर्व ही उनकी दीक्षा हो चुकी थी। रूप-सनातन ने विवाह किया या नहीं, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। चैतन्य चरितामृत और भक्तिरत्नाकर में उनके परिवार-परिजन आदि का उल्लेख है। उसके आधार पर कुछ लोगों का अनुमान है कि उन्होंने विवाह किया थां पर किसी प्राचीन ग्रन्थ में उनके विवाह का स्पष्ट उल्लेख नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डा. सुशील कुमार देने भी अपनी पुस्तक Early History of the Vaisnava Faith and Movement in Bengal (p. 148 fn) में लिखा है “The word gurun in the passage expressly qualifies Vidyavavchaspatin only, and the plural is honontic”
  2. 1 म मञ्जरी
  3. "श्रीसनातन गुरु विद्यावाचस्पति।
    मध्ये-मध्ये रामकेलि ग्रामे ताँर स्थिति॥"(1।598
  4. चैतन्यचरितामृत, परिशिष्ट, पृ: 419
  5. चैतन्यचरितेर उपादान, 2 य सं, पृ: 137
  6. वृन्दावनेर छय गोस्वामी, पृ: 47-48
  7. "नम: श्रीगुरुकृष्णाय निरूपाधिकृपाकृते।
    य श्रीचैतन्यरूपोऽभूत् तन्वन् प्रेमरसं कलौ॥
    भगवद्भक्ति शास्त्राणामयं सारस्यसंग्रह:।
    अनुभूतस्य चैतन्यदेवे तत्प्रियरूपत:॥"
  8. ब्रजमंडल के छय गोस्वामियों के अनुसार श्रीचैतन्यदेव का प्रियरूप है, उनका यति रूप, जिसके द्वारा उन्होंने राधा के भाव माधुर्य का आस्वादन किया। गौड़मण्डल के शिवानन्द सेन, नरहरि सरकार, वासु घोष। जिस प्रकार श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कहा जाता है कि द्वारका और कुरुक्षेत्र के कृष्ण पूर्ण है, मथुरा के पूर्णतर और वृन्दावन के पूर्णतम, उसी प्रकार ये गौर पारम्यवादीगण यतिवेशधारी श्रीचैतन्य को उनका पूर्ण रूप, गया से लौटने पर उनके भावोन्मत्तरूप को उनका पूर्णतररूप और नवद्वीप के किशोर गौरांग को उनका पूर्णतम रूप मानते हैं।

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