सुमन कल्याणपुर का फ़िल्मी कॅरियर
सुमन कल्याणपुर का फ़िल्मी कॅरियर
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पूरा नाम | सुमन कल्याणपुर |
जन्म | 28 जनवरी, 1937 |
जन्म भूमि | ढाका, बंगाल (आज़ादी से पूर्व) |
अभिभावक | पिता- शंकर राव हेमाडी |
पति/पत्नी | रामानंद कल्याणपुर |
कर्म भूमि | मुम्बई |
कर्म-क्षेत्र | गायन |
विषय | भारतीय शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, भजन, गज़ल |
पुरस्कार-उपाधि | दादा साहब फाल्के पुरस्कार, 1961 पद्म भूषण, 2023 |
प्रसिद्धि | पार्श्वगायिका |
नागरिकता | भारतीय |
मुख्य गीत | इक जुर्म करके हमने चाहा था मुस्कुराना, परबतों के पेड़ों पर, ये मौसम रंगीन समां, आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर जुबान पर |
सक्रिय वर्ष | 1954–1988 |
अन्य जानकारी | करीब 28 साल के अपने करियर में सुमन कल्याणपुर ने पार्श्वगायन के क्षेत्र में अपना एक सम्मानजनक स्थान बनाया। |
अद्यतन | 15:22, 8 जुलाई 2023 (IST)
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सुमन कल्याणपुर हिन्दी सिनेमा की पार्श्व गायिका हैं। जिनकी आवाज में वही खनक एवं मधुरता है जो लता जी की आवाज़ में है। बहुत कम लोग पहचान पाते हैं कि जो गीत वो लता जी का गाया समझ कर सुन रहे हैं वो असल में सुमन जी का गाया हुआ होता है। ऐसा ही एक गीत है "ना तुम हमें जानो ना हम तुम्हें जाने" फ़िल्म बात एक रात की का है, सुमन जी के गाए कुछ और गीत हैं -छोडो मोरी बइयां, मेरे महबूब न जा, बहना ने भाई की कलाई पे प्यार बांधा है आदि । फ़िल्म 'ब्रम्हचारी' के एक गीत "आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर ज़बान पर " में तो संदेह हो जाता है कि रफ़ी साहब के साथ लता जी हैं पर ये गीत सुमन जी का गाया हुआ है। सुमन जी ने सन 1954 से फ़िल्मों में गायन आरम्भ किया था तथा करीब 740 से अधिक गीत गाए है। खैर जो भी हो परन्तु आवाज़ की दृष्टि से लता जी के समान यदि किसी ने आवाज़ पाई है तो वो है सुमन कल्याणपुर।[1]
फ़िल्मी कॅरियर
सुमन जी के मुताबिक, उनके घर में सभी का झुकाव कला और संगीत की तरफ था, लेकिन सार्वजनिक तौर पर गाने-बजाने पर पाबंदी थी। इसके बावजूद साल 1952 में उनको 'ऑल इंडिया रेडियो' पर गाने का मौका मिला तो वह इंकार नहीं कर पायी। यह उनका पहला सार्वजनिक कार्यकम था जिसके ठीक एक साल बाद साल 1953 में उन्हें मराठी फ़िल्म शाची चांदनी में गाने का मौका मिला। शेख मुख्तार उन दिनों फ़िल्म 'मंगू' बना रहे थे जिसके संगीतकार थे मोहम्मद शफी। फ़िल्म शाची चांदनी के गीतों से प्रभावित होकर शेख मुख्तार ने फ़िल्म मंगू के लिए तीन गीत रिकॉर्ड कराए। लेकिन फिर पता नहीं किन वजहों से फ़िल्म 'मंगू' में मोहम्मद शफी की जगह ओ.पी.नैयर आ गए और उस फ़िल्म में उनकी गायी सिर्फ एक लोरी कोई पुकारे धीरे से तुझे ही बाकी रही। इस तरह साल 1954 में बनी फ़िल्म 'मंगू' से हिन्दी फ़िल्मों में उनके गायन की शुरूआत हुई थी।
फ़िल्म 'मंगू' के फौरन बाद सुमन को इस्मत चुगताई द्वारा निर्मित और शाहिद लतीफ द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'दरवाजा' (1954) में नौशाद के संगीत-निर्देशन में 5 गीत गाने का मौका मिला था। लेकिन ये फ़िल्म पहले प्रदर्शित हुई थी इसलिए आमतौर पर इसे सुमन कल्याणपुर की पहली फ़िल्म माना जाता है। साल 1954 में ही सुमन को ओ.पी.नैयर के संगीत में बनी फ़िल्म 'आरपार' के हिट गीत 'मोहब्बत कर लो जी भर लो अजी किसने रोका है' में रफी और गीता का साथ देने का मौका मिला था। सुमन के मुताबिक इस गीत में उनकी गायी एकाध पंक्ति को छोड़ दिया जाए तो उनकी हैसियत महज कोरस गायिका की सी रह गयी थी। ओ.पी.नैयर के संगीत में उनका गाया ये इकलौता गीत साबित हुआ।[2]
1960 का दशक में फ़िल्मी सफर
सुमन के लिए बेहद व्यस्तताओं भरा रहा। उन्होंने अपने दौर के तकरीबन सभी दिग्गज संगीतकारों के लिए गीत गाए। उनकी आवाज और गायकी काफ़ी हद तक लता मंगेशकर से मिलती थी और इसीलिए जब भी लता की अपने साथी संगीतकारों या गायकों से अनबन हुई तो उसका सीधा लाभ सुमन कल्याणपुर को मिला। उस दौर में खासतौर से रफी के साथ गाए उनके गीत बेहद कामयाब हुए। 'दिल एक मंदिर है', 'तुझे प्यार करते हैं करते रहेंगे', 'अगर तेरी जलवानुमाई न होती', 'मुझे ये फूल न दे', 'बाद मुद्दत के ये घड़ी आयी', 'ऐ जाने तमन्ना जाने बहारां', 'तुमने पुकारा और हम चले आए', 'अजहूं न आए बालमा', 'ठहरिए होश में आ लूं तो चले जाईएगा', 'पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है', 'ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे', 'रहें ना रहें हम महका करेंगे', 'इतना है तुमसे प्यार मुझे मेरे राजदार' और 'दिले बेताब को सीने से लगाना होगा' जैसे गीत उसी दौर में बने थे।[2]
1970 के दशक में फ़िल्मी सफर
जैसे-जैसे नए संगीतकार और गायक-गायिकाएं आते गए, सुमन कल्याणपुर की व्यस्तताएं कम होती चली गयीं। साल 1981 में बनी फ़िल्म 'नसीब' का 'रंग जमा के जाएंगे' उनका आखिरी रिलीज गीत साबित हुआ। सुमन के मुताबिक, फ़िल्म 'नसीब' के बाद उनको गायन के मौके अगर मिले भी तो वो गीत या तो रिलीज ही नहीं हो पाए और अगर हुए भी तो उनमें से उनकी आवाज नदारद थी। गोविंदा की फ़िल्म 'लव 86' में उन्होंने एक सोलो और मोहम्मद अजीज के साथ एक युगलगीत गाया था। लेकिन जब वो फ़िल्म और उसके रेकॉर्ड रिलीज हुए तो उनकी जगह कविता कृष्णमूर्ति ले चुकी थीं। कुछ ऐसा ही केतन देसाई की फ़िल्म 'अल्लारक्खा' में भी हुआ था जिसके संगीतकार अनु मलिक थे।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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