रुक्माबाई

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रुक्माबाई
रुक्माबाई
रुक्माबाई
पूरा नाम रुक्माबाई राउत
जन्म 22 नवम्बर, 1864
जन्म भूमि मुम्बई
मृत्यु 25 सितम्बर, 1955
अभिभावक पिता- जनार्दन पांडुरंग, माता- जयंतीबाई
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र चिकित्सा
प्रसिद्धि भारत की पहली महिला चिकित्सक
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी रुक्‍माबाई ने अपने जीवनकाल में पैंतीस साल तक मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में कार्य किया। उनके 153वें जन्म दिवस के अवसर पर गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें सम्मानित किया।

रुक्माबाई राउत (अंग्रेज़ी: Rukhmabai Raut, जन्म- 22 नवम्बर, 1864; मृत्यु- 25 सितम्बर, 1955) भारत की प्रथम महिला चिकित्सक थीं। वह एक ऐतिहासिक क़ानूनी मामले के केंद्र में भी थीं, जिसके परिणामस्वरूप 'एज ऑफ कॉन्सेंट एक्ट, 1891' नामक क़ानून बना था। रुक्माबाई को डॉक्टर बनने की इच्छा थी और वे लोगों की सेवा करना चाहती थीं। उनके इस फैसले को घरवालों और लोगों का समर्थन मिला। इसके लिए 'लंदन स्कूल ऑफ़ मेडिसन' में भेजने और पढ़ाई के लिए एक फंड तैयार किया गया था। वहाँ से रुक्माबाई ने स्नातक की उपाधि प्राप्त की और 1895 में वापस भारत लौटीं। रुक्माबाई ने सूरत के महिला अस्तपाल को चुना। उन्होंने जीवन भर डॉक्टरी की। डॉ. रुक्माबाई एक सामाजिक सुधारक भी थीं, जिन्होंने कई बुराईयों के लिए आवाज उठाई और महिला और बाल अधिकारों के लिए खुलकर बोला।

परिचय

रुक्माबाई का जन्म 22 नवम्बर, 1864 को बढ़ई समुदाय में मुंबई में हुआ था। उनके पिता का नाम जनार्दन पांडुरंग व माता का नाम जयंतीबाई था। जनार्दन पांडुरंग की मौत के बाद जयंतीबाई ने अपनी संपत्ति 8 साल की रुक्‍माबाई को सौंप दी।

रुक्माबाई का विवाह दादाजी भीकाजी के साथ ग्यारह वर्ष की उम्र में ही उनकी इच्छा के विरुद्ध हो गया था। उस समय बाल विवाह आम बात थी। हालांकि उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने की इजाजत थी, लेकिन उनके पति दादाजी भीकाजी राउत ने धीरे-धीरे उन्हें अपने साथ रहने के लिए मजबूर किया। मार्च 1884 में दादाजी ने मुम्बई उच्च न्यायालय में पत्नी पर वैवाहिक हकों को बहाल करने के लिए याचिका दायर की, जिसका फैसला दादाजी के हक में आया। न्यायालय ने कहा कि या तो वे न्यायालय का फैसला माने या उन्हें जेल जाना होगा। रुक्माबाई ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि अपने पति के साथ वैवाहिक रिश्तों में उलझकर रहने के के बजाय वे जेल में रहना पसंद करेंगी।[1]

सालों पहले जब महिलाओं के लिए कोई अधिकार भी नहीं थे, उस वक्त रुक्माबाई ने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और बाल विवाह के खिलाफ खड़ी हुईं। उन्होंने 11 साल की उम्र में विवाह की वैधता पर सवाल खड़े किए। उस वक्त उनके पति 19 साल के थे। उन्होंने ग़रीबी और खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर पति के साथ रहने से इनकार कर दिया था। 1885 में जजों के निर्णय ने दादाजी भीकाजी के वैवाहिक अधिकारों के सौंपे जाने के दावे को रद्द कर दिया। हालांकि साल 1888 में रुक्माबाई और दादाजी के बीच एक समझौता हुआ, जिसके मद्देनजर रुक्माबाई ने पति को मुआवजा दिया और शादी से पूरी तरह से मुक्ति पाई।

भारत की पहली महिला डॉक्टर

'हिंदू लेडी' के नाम से मशहूर हुईं रुक्माबाई ने अखबारों में कई पत्र लिखे, जिस पर उन्हें काफी समर्थन भी मिला। जब उन्होंने पढ़ने की इच्छा जताई तो उनके समर्थन में फंड इकट्ठा हो गया, जिससे उन्हें इंग्लैण्ड में लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन में पढ़ने का मौका मिला। कामा अस्पताल में डॉ. एडिथ पेचेे ने रुक्माबाई को प्रोत्साहित किया, जिन्होंने उनकी शिक्षा के लिए धन जुटाने में मदद की थी। रुक्माबाई 1889 में इंग्लैंड गई थीं। उनको मताधिकार कार्यकर्ता ईवा मैकलेरन और वाल्टर मैकलेरन और भारत की महिलाओं को चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए डफ़रिन के फंड की काउंटेस द्वारा सहायता दी गई थी। एडिलेड मैनिंग और कई अन्य ने रुक्माबाई रक्षा समिति को एक निधि की स्थापना में मदद की। योगदानकर्ताओं में शिवाजीराव होल्कर शामिल थे, जिन्होंने परंपराओं के विरुद्ध हस्तक्षेप करने का साहस दिखाया और 500 रुपये का दान दिया था। रुक्माबाई तो उनकी अंतिम परीक्षा के लिए एडिनबर्ग गईं और सूरत में एक अस्पताल में शामिल होने के लिए 1894 में भारत लौट आईं। 1904 में, भीकाजी की मृत्यु हो गई और रुक्माबाई ने हिंदू परंपरा में विधवाओं की सफ़ेद साड़ी पहनी। 1918 में रुक्माबाई ने महिला चिकित्सा सेवा में शामिल होने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया और राजकोट में महिलाओं के लिए एक राज्य अस्पताल में शामिल हो गईं। उन्होंने 1929-1930 में मुम्बई में सेवानिवृत्त होने के पश्चात पैंतीस साल के लिए मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में कार्य किया। उन्होंने सुधार के लिए अपना काम जारी रखा। 'पर्दाह-इसकी समाप्ति की आवश्यकता' को प्रकाशित किया।

रुक्माबाई पर फ़िल्म

रुक्माबाई की कहानी को उपन्यास और फ़िल्मों में शामिल किया गया है। तनिष्ठा चटर्जी, जो कि एक भारतीय अभिनेत्री हैं, उन्होंने 'एंग्री इंडियन गॉडेस' 'शैडोज ऑफ टाइम', 'पार्च्ड' और 'डॉक्टर रुक्माबाई' जैसी फ़िल्मों में अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवाया है। जब तनिष्ठा जागरण फ़िल्म फेस्टिवल में हिस्सा लेने आई थीं, तब उनकी फ़िल्म 'डॉक्टर रुक्माबाई' प्रदर्शित हुई। फ़िल्म 'देख इंडियन सर्कस' के लिए न्यूयॉर्क फ़िल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब जीत चुकीं तनिष्ठा ने रुक्माबाई की भूमिका निभाने के लिए अपनी तरफ से पूरी तैयारी की और किरदार के साथ न्याय करने की कोशिश की। तनिष्ठा चटर्जी का कहना था कि- "रुक्माबाई भारत की पहली महिला डॉक्टर थीं। उनका निधन 1955 में ही हो जाने के कारण मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य तो नहीं मिला, लेकिन अपनी भूमिका की तैयारी के लिए मैंने उनकी बायोग्राफी पढ़ी। उनकी कहानी आकर्षित करती है। वह महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं। मैं खुशकिस्मत हूं कि मुझे उनकी भूमिका निभाने का मौका मिला।"

रुक्माबाई के 153वें जन्म दिवस पर जारी गूगल-डूडल

सम्मान

अंग्रेज़ों के जमाने में जब उच्च शिक्षा किसी बड़े या ख़ास परिवार के लोग ही हासिल कर पाते थे, ऐसे वक़्त में साधारण परिवार की रुक्माबार्इ ने ऊंची शिक्षा प्राप्त करके डाॅक्टरी जैसे कठिन पेशे को चुना। जिसके बाद वह उस जमाने में पहली भारतीय महिला डॉक्टर बन गयीं। रुक्‍माबाई ने अपने जीवनकाल में पैंतीस साल तक मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में कार्य किया। कम उम्र में विवाह हो जाने के बाद भी रुक्‍माबाई ने अपनी पढ़ाई पूरी की और डॉक्टर बनीं। रुक्माबाई के 153वें जन्म दिवस के अवसर पर गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें सम्मानित किया। डूडल में रुक्माबाई को एक ओडस्वी महिला के रूप में दिखाया गया है और उनके आस-पास मरीजों की सेवा में लगे कर्मचारियों को भी दिखाया गया है।

मृत्यु

डॉक्टर रुक्माबाई का निधन 25 सितम्बर, 1955 को हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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