आकस्मिकवाद
आकस्मिकवाद दार्शनिक मत; घटनाओं के अकारण घटित होने का सिद्धांत-यूनान के महान् दार्शनिक प्लेटो ने इसका प्रतिपादन किया। सीमाविशेष तक अरस्तू भी इसके समर्थक थे। संसार की गतिविधि के संचालन में अनेक आकस्मिक संयोगों का विशेष महत्व है। अत: इत मत को आकस्मिकवाद कहा गया। पाश्चात्य देशों में वैज्ञानिक विवेचन का प्राधान्य होने पर इस विचारधारा की मान्यता नहीं रही। उत्तरकालीन यूनानी दार्शनिकों ने भी 'विधि' और 'कारण' को प्रधानता देकर आकस्मिकवाद के सिद्धांत को अस्वीकार किया।
बौद्ध धर्म के व्यापक प्रसार के पूर्व भारत में आकस्मिकवाद की दार्शनिक मान्यता 'यदृच्छावाद' के रूप में थी। ब्रह्मांड की संरचना और संचालन 'आकस्मिकता' तथा 'अकारणत्व' को कारण माना गया। सांख्य दर्शन में सूक्ष्म, अज्ञात और आकस्मिक तत्व को कार्य का प्रेरक बताया गया। भारतीय दर्शन में 'आकस्मिकता' की 'स्वेच्छा' तथा 'अनवरतता' के रूप में भी मान्यता रही है।
'आकस्मिकवाद' स्पष्टत: मानता है कि सृष्टि की सभी घटनाएँ तथा समस्त कार्य अकारण और संयोगवश संपन्न हो रहे हैं। इस मत के आलोचकों का कथन है कि 'कारण' का सूक्ष्म स्वरूप ज्ञात न होने पर उसे भ्रमवश 'आकस्मिक' और 'संयोगबद्ध' कहना युक्तिसंगत नहीं है। अपने ज्ञान, कल्पना और साधनों के सीमित और असमर्थ होने के कारण ही हमें कार्य, घटना अथवा रचना के 'कारण' का बोध नहीं हो पाता और इस स्थिति को 'आकस्मिक' कह दिया जाता है। संप्रति 'आकस्मिकवाद' वैज्ञानिक चिंतनविधि के कारण मान्य नहीं है।
नीतिशास्त्रीय चिंतन में 'आकस्मिकवाद' इस तथ्य का प्रतिपादन करता है कि मानसिक परिवर्तन आकस्मिक और अकारण भी होते हैं, तथा पूर्वनिश्चित कारणों एवं प्रेरक तत्वों के अभाव में भी स्वेच्छया संचालित मानसिक व्यापार स्वत: गतिशील रहते हैं; चित्रकला में 'आकस्मिकवाद' प्रकाश के आकस्मिक प्रभावों के विवेचन से संबंधित हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 337 |