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*राजा राममोहन राय द्वारा संस्थापित धर्मसुधारक समिति है।
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'''ब्रह्मसमाज''' [[हिन्दू धर्म]] से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक [[राजा राममोहन राय]] थे, जिन्होंन 20 अगस्त, 1828 ई. में इसकी स्थापना [[कलकत्ता]] (वर्तमान कोलकाता) में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन [[हिन्दू]] समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- [[सती प्रथा]], बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को समाप्त करना। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का [[पिता]] माना जाता है। राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे, जिन्होने समाज में व्याप्त मध्ययुगीन बुराईयों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाया। [[देवेन्द्रनाथ टैगोर]] ने भी ब्रह्मसमाज को अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। उन्होंने ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया था। केशवचन्द्र सेन का बहुत अधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही आगे चलकर ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना।
*नवशिक्षित लोगों की एक धार्मिक संस्था।
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==प्रचार तथा विभाजन==
*[[उपनिषद|उपनिषदों]] में जिसकी चर्चा है उसी एक ब्रह्म (परमात्मा) की उपासना को अपना इष्ट रखकर [[राममोहन राय राजा|राजा राममोहन राय]] ने [[कलकत्ता]] में ब्रह्मसमाज की स्थापना की ।
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राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई. को [[बंगाल]] के हुगली ज़िले में स्थित 'राधा नगर' में हुआ था। इन्हें [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[अरबी भाषा|अरबी]], [[संस्कृत]] जैसे प्राच्य भाषाओं एवं लैटिन, यूनानी, फ़्राँसीसी, [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]], हिब्रू जैसी पाश्चात्य भाषाओं में निपुणता प्राप्त थी। [[पटना]] तथा [[वाराणसी]] में अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होंने 1803 ई. से 1814 ई. तक कम्पनी में नौकरी की। राजा राममोहन राय ने [[एकेश्वरवाद]] में विश्वास व्यक्त करते हुए मूर्तिपूजा एवं अवतारवाद का विरोध किया। इन्होंने कर्म के सिद्धान्त तथा पुनर्जन्म पर कोई निश्चित मत नहीं व्यक्त किया। राजा राममोहन राय ने धर्म ग्रंथों को मानवीय अन्तरात्मा तथा तर्क के ऊपर नहीं माना। राजा राममोहन राय के उपदेशों का सार ‘सर्वधर्म समभाव’ था। कालान्तर में देवेन्द्रनाथ टैगोर (1818-1905 ई.) ने ब्रह्मसमाज को आगे बढ़ाया और उन्होंने तीर्थयात्रा, मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड आदि की आलोचना की। इनके द्वारा ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया गया। केशवचन्द्र सेन (1834-1884 ई.) ने अपनी वाक्पटुता एवं उदारवादी दृष्टिकोण से इस आंदोलन को बल प्रदान किया। इनके ही प्रयासों के फलस्वरूप ब्रह्मसमाज की शाखाएँ [[उत्तर प्रदेश]], [[पंजाब]] एवं [[मद्रास]] में खोली गयी। केशवचन्द्र सेन का अत्यधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही कालान्तर में ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना। 1865 ई. में देवेन्द्रनाथ ने केशवचन्द्र को ब्रह्मसमाज से बाहर निकाल दिया।
*इसके अन्तर्गत बिना किसी नबी, पैगम्बर, देवदूत आचार्य या पुरोहित को अपना मध्यस्थ माने, सीधे अकेले ईश्वर की उपासना ही मनुष्य का कर्तव्य माना गया।
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==राजा राममोहन का योगदान==
* ईसाई महात्मा ईसा को और मुसलमान मुहम्मद साहब को मध्यस्थ मानते हैं और यही उनके धर्म की नींव है। इस बात में ब्रह्मसमाज उनसे आगे बढ़ गया।
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राजा राममोहन राय ने कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाएँ भी की हैं, उनकी कुछ रचनाएँ इस प्रकार हैं- 'तुहफतुल-मुवाहिद्दीन', 'गिफ़्ट द मोनाथेइस्ट्स' (1809 ई. में पारसी में प्रकाशित), 'पीसेप्टस ऑफ़ जीसस' आदि। इन्होंने 'संवाद कौमुदी' का भी सम्पादन किया। राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में [[हिन्दू धर्म]] के एकेश्वरवादी मत के प्रचार हेतु आत्मीय सभा का गठन किया, जिसमें [[द्वारकानाथ टैगोर]] शामिल थे। 1815 ई. में इन्होंने वेदांत कॉलेज की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने अपने समय में भारतीय समाज में व्याप्त तमाम बुराइयों में सर्वाधिक प्रखर आन्दोलन सती प्रथा के विरुद्ध चलाया। 1829 ई. में [[भारत]] के [[गवर्नर-जनरल]] [[लॉर्ड विलियम बैंटिक]] द्वारा सती प्रथा को प्रतिबंधित करने के लिए लगाए गए क़ानून को लागू करवाने में राजा राममोहन राय ने सरकार की मदद की। राजा राममोहन राय ने पाश्चात्य शिक्षा के प्रति अपना समर्थन जताते हुए कहा कि, 'यह हमारे सम्पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है।' 1817 ई. में डेविड हेयर की सहायता से कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की गई।
*पुनर्जन्म का कोई प्रमाण न होने से जन्मान्तर का प्रश्न ही न छेड़ा गया।
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*परमात्मा की प्राप्ति के सिवा कोई परलोक नहीं माना गया। निदान, मुसलमान और ईसाईयों से कहीं अधिक सरल और तर्कसंगत यह मत स्थापित हुआ।
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राजा राममोहन राय को भारत में पत्रकारिता का अग्रदूत माना जाता है। इन्होंने समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता का समर्थन किया था। भारत की स्वतंत्रता के बारे में उनका मत था कि, भारत को तुरन्त स्वतंत्रता न लेकर प्रशासन में हिस्सेदारी लेना चाहिए। अतः राजा राममोहन राय ब्रिटिश शासन के समर्थक थे। इन्होंने भारत में पूंजीवाद का समर्थन किया। [[रवीन्द्रनाथ टैगोर]] ने राजा राममोहन राय के विषय में कहा कि, ‘राजा राममोहन राय अपने समय में सम्पूर्ण मानव समाज में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आधुनिक युग के महत्व को पूरी तरह समझा।’ राजा राममोहन राय ने भारतीय स्वतन्त्रता एवं राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन दिया। 1821 ई. में स्पेनिश अमेरिका में क्रांति के सफल होने पर राजा जी ने एक सार्वजनिक भोज का आयोजन कर अपनी खुशी को व्यक्त किया। इन्हीं सब कारणों से राजा राममोहन राय के व्यक्तित्व को एक 'अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व' माना जाता है।
*मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर सबमें ब्रह्म ही स्थित माना गया।
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====तत्वबोधिनी सभा====
*मूर्तिपूजा और बहुदेव पूजा का निषेध हुआ। परन्तु सर्वव्यापक ब्रह्म को सबमें स्थित जानकर अन्य सभी मतों को सहन किया गया।
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1850 ई. में [[मुग़ल]] बादशाह [[अकबर द्वितीय]] ने राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि के साथ अपने दूत के रूप में तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में भेजा। इन्हें ब्रिटिश सम्राट से मुग़ल बादशाह को मिलने वाली पेंशन की राशि को बढ़ाने की बात करनी थी। यहीं पर ब्रिस्टल में 27 सितम्बर, 1833 ई. को राजा राममोहन राय की मृत्यु हो गयी। [[सुभाषचन्द्र बोस]] ने राजा राममोहन राय को ‘युगदूत’ की उपाधि से सम्मानित किया था। राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद ब्रह्मसमाज की गतिविधियों का संचालन द्वारिकानाथ टैगोर तथा पंडित रामचन्द्र विद्यागीश ने किया। इनके बाद द्वारिकानाथ के पुत्र [[देवेन्द्रनाथ टैगोर]] ने (1818-1905 ई.) ब्रह्मसमाज की गतिविधयों को जारी रखा। ब्रह्मसमाज में शामिल होने से पहले देवेन्द्रनाथ ने [[कलकत्ता]] के जोरासांकी में 'तत्वरंजिनी सभा' की स्थापना की। बाद में 'तत्वरंजिनी' ही 'तत्वबोधिनी सभा' के रूप में परिवर्तित हो गयी। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने तत्वबोधिनी सभा से जुड़ी पत्रिका ‘तत्वबोधिनी’ का प्रारम्भ किया। इसके सम्पादक 'अक्षय कुमार दत्त' थे। 1840 ई. में तत्वबोधिनी स्कूल की स्थापना हुई, अक्षय कुमार इसके अध्यापक पद पर नियुक्त हुये। इस स्कूल के अन्य सदस्यों में राजेन्द्र लाल मित्र, पं. ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, ताराचन्द्र चक्रवर्ती तथा प्यारेचन्द्र मित्र आदि थे।
*अपने मन्तव्यों में इस समाज ने वर्णाश्रम व्यवस्था, छूत-छात, जात-पाँत, चौका आदि कुछ न रखा। जप, तप, होम, व्रत, उपवास आदि के नियम नहीं माने। श्राद्ध, प्रेतकर्म का झगड़ा ही नहीं रखा।
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====संगत सभा की स्थापना====
*उपनिषदों को भी आधारग्रन्थ की तरह माना गया, प्रमाण की तरह नहीं। साथ ही संसार की जो सब बातें बुद्धिग्राह्य समझी गयीं, उनको लेने में ब्रह्मसमाज को कोई आपत्ति न थी।
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21 दिसम्बर, 1843 ई. को देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्मसमाज की सदस्यता ग्रहण की तथा उत्साह के साथ राजा राममोहन राय के विचारों को प्रचारित किया। देवेन्द्रनाथ ने अलेक्ज़ेंडर डफ़ द्वारा भारतीय संस्कृति पर किए जा रहे [[ईसाई धर्म]] के प्रचार के प्रहार के विरुद्ध संघर्ष किया। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 'ब्रह्म धर्म' नामक धार्मिक पुस्तिका का संकलन किया तथा उपासना के ब्रह्म स्वरूप ब्रह्मेपासना की शुरुआत की। 1857 ई. में आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज की सदस्यता ग्रहण की। इनके उदारवादी विचारों ने ब्रह्म की लोकप्रियता को बढ़ाया। केशवचन्द्र सेन ने देवेन्द्रनाथ के साथ मिलकर तत्कालीन आध्यात्मिक तथा सामाजिक समस्याओं के विचार के उद्देश्य से 'संगत सभा' (मैत्री संघ) की स्थापना की।
*ब्रह्मसमाज क़ुरान, इंजील, वेदादि सभी धर्मग्रन्थों को समान सम्मान देता है और संसार के सभी अच्छे धर्मशिक्षकों को सम्मान देता है और संसार के सभी अच्छे धर्मशिक्षकों का समान समादर करता है।
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==आदि ब्रह्मसमाज का गठन==
*इस प्रकार ब्रह्मसमाज ने हिन्दू संस्कृति की सीमाबद्ध मर्यादा को इतना विस्तृत कर दिया है कि उसके सदस्य मुसलमान और ईसाई भी हो सकते हैं।
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1861 ई. में केशवचन्द्र सेन ने 'इण्डियन मिरर' नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्र (मिरर) ने शीघ्र ही अपनी पहचान बना ली और [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] का पहला दैनिक समाचार होने का गौरव प्राप्त किया। बाद में इण्डियन मिरर ब्रह्मसमाज का मुख पत्र बन गया। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज को एक अखिल भारतीय रूप देने के उद्देश्य से पूरे [[भारत]] का दौरा किया, जिसके परिणामस्वरूप [[मद्रास]] में 'वेद समाज' तथा [[महाराष्ट्र]] में '[[प्रार्थना समाज]]' की स्थापना हुई। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने महिलाओं के उद्धार, नारी शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह आदि के समर्थन में प्रचार किया तथा बाल विवाह का विरोध किया। इन अमूलकारी परिवर्तनवादी विचारों के कारण ही 1865 ई. में ब्रह्मसमाज में पहली फूट पड़ी। देवेन्द्रनाथ टैगोर के अनुयायियों ने आदि ब्रह्मसमाज का गठन किया। आदि ब्रह्मसमाज का नारा था 'ब्रह्मवाद ही हिन्दूवाद है।'
*पादरियों द्वारा प्रचारित पाश्चात्य शिक्षा के फल से हिन्दू शिक्षित समाज जो अपनी संस्कृति और आचार-विचार से विचलित हो रहा था और जो शायद कभी-कभी पथभ्रष्ट होकर अपने पुरातन क्षेत्र से निकल कर विदेशी संस्कृति के क्षेत्र में बहक जाता था, उसकी सामयिक रक्षा की गयी।
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*ऐसा वर्ग बहुत उत्सुकता पूर्वक ब्रह्मसमाज के अपने मनोनुकूल दल में सम्मिलित हो गया।
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*[[लन्दन]] की यात्रा से लौटने के बाद 1872 ई. में केशवचन्द्र सेन ने सरकार को 'ब्रह्मविवाह अधिनियम' को क़ानूनी दर्जा देने के लिए तैयार कर लिया। आचार्य केशव चन्द्र सेन ने पश्चिमी शिक्षा के प्रसार, स्त्रियों के उद्धार तथा स्त्री शिक्षा आदि के उद्देश्य से 'इण्डियन रिफ़ार्म एसोसिएशन' की स्थापना की। ब्रह्मसमाज में दूसरा विभाजन 1878 ई. में हुआ, जब आचार्य केशवचन्द्र सेन ने 'ब्रह्मविवाह अधिनियम' 1872 ई. का उल्लंघन करते हुये अपनी अल्पायु पुत्री का विवाह [[कूचबिहार]] के महाराजा से किया।
*राजा राममोहन राय के बाद महर्षि [[देवेन्द्रनाथ ठाकुर]] ब्रह्मसमाज के नेता हुए। ये कुछ अधिक परम्परावादी थे, इसलिए इनके अनुयायी अपने को 'आदिब्रह्म' कहते थे।
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==साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना==
*केशवचन्द्र सेन ने इनको अधिक सुधारवादी और सरल बनाकर 'नव ब्रह्मसमाज' का रूप दिया।
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केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों ने उनसे अलग होकर 'साधारण ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। साधारण ब्रह्मसमाज के अनुयायी मूर्तिपूजा और जाति प्रथा के विरोधी तथा नारी मुक्ति के समर्थक थे। साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना [[आनन्द मोहन बोस]] द्वारा तैयार की गई रूपरेखा पर हुआ था। आनन्द मोहन बोस इसके प्रथम अध्यक्ष थे। इस संगठन के सक्रिय कार्यकर्ताओं में शिवनाथ शास्त्री, [[विपिनचन्द्र पाल]] द्वारिकानाथ गांगुली तथा [[सुरेन्द्रनाथ बनर्जी]] प्रमुख थे।
*इनके समय (संवत् 1895-1940) में ब्रह्मसमाज का प्रचार अधिक व्यापक हो गया।
 
*देश में [[प्रार्थना समाज]] आदि अनेक नामों से इसकी स्थापना हुई और बड़ी संख्या में हिन्दू लोग इसके अनुयायी हो गये।
 
*ब्रह्मसमाज की स्थापना से राष्ट्र रक्षा के एक महान उद्देश्य की पूर्ति हुई, अर्थात राजा राममोहन राय की दूरदर्शिता ने बंगाल में हिन्दू समाज की बहुत बड़ी रक्षा की और नवशिक्षित लोगों को विधर्मी होने से उसी प्रकार बचा लिया, जिस प्रकार [[आर्य समाज]] ने पश्चिमोत्तर [[भारत]] में हिन्दुओं को बचाया।
 
==भारतवर्षीय ब्राह्मसमाज==
 
राजा राममोहन राय द्वारा संस्थापित धर्मसुधारक समिति है। ब्राह्मासमाज आगे चलकर दो समाजों में बँट गया। यह घटना 11 नवम्बर सन [[1866]] ई. की है, जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्राह्मसमाज के मंत्री बने। आदि ब्राह्मसमाज देवेन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा व्यवस्थापित नियमों को मान्यता देता था, और भारतवर्षीय ब्राह्मसमाज के विचार अधिक उदार थे। इसमें साधारण प्रार्थना तथा स्तुतिपाठ के साथ-साथ [[हिन्दू]], [[ईसाई धर्म|ईसाई]], [[मुसलमान|मुस्लिम]], ज़ोरोष्ट्रियायी तथा कनफ़्यूशियस के ग्रन्थों का भी पाठ होता था। केशवचन्द्र ने इसे हिन्दू प्रणाली की सीमा से ऊपर उठाकर मानववादी धर्म के रूप में बदल दिया। फलत: भारतवर्षीय ब्राह्मसमाज की सदस्यता देश के कोने-कोने में फैल गई तथा आदि ब्राह्मसमाज जितना सुधारवादी बना, उतना ही अपनी मूल परम्परा से दूर होता गया, इसकी जीवन शक्ति क्षीण होती गई और यह सूखने लगा।
 
  
 
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07:30, 19 अगस्त 2011 का अवतरण

ब्रह्मसमाज हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंन 20 अगस्त, 1828 ई. में इसकी स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को समाप्त करना। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का पिता माना जाता है। राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे, जिन्होने समाज में व्याप्त मध्ययुगीन बुराईयों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाया। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने भी ब्रह्मसमाज को अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। उन्होंने ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया था। केशवचन्द्र सेन का बहुत अधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही आगे चलकर ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना।

प्रचार तथा विभाजन

राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई. को बंगाल के हुगली ज़िले में स्थित 'राधा नगर' में हुआ था। इन्हें फ़ारसी, अरबी, संस्कृत जैसे प्राच्य भाषाओं एवं लैटिन, यूनानी, फ़्राँसीसी, अंग्रेज़ी, हिब्रू जैसी पाश्चात्य भाषाओं में निपुणता प्राप्त थी। पटना तथा वाराणसी में अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होंने 1803 ई. से 1814 ई. तक कम्पनी में नौकरी की। राजा राममोहन राय ने एकेश्वरवाद में विश्वास व्यक्त करते हुए मूर्तिपूजा एवं अवतारवाद का विरोध किया। इन्होंने कर्म के सिद्धान्त तथा पुनर्जन्म पर कोई निश्चित मत नहीं व्यक्त किया। राजा राममोहन राय ने धर्म ग्रंथों को मानवीय अन्तरात्मा तथा तर्क के ऊपर नहीं माना। राजा राममोहन राय के उपदेशों का सार ‘सर्वधर्म समभाव’ था। कालान्तर में देवेन्द्रनाथ टैगोर (1818-1905 ई.) ने ब्रह्मसमाज को आगे बढ़ाया और उन्होंने तीर्थयात्रा, मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड आदि की आलोचना की। इनके द्वारा ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया गया। केशवचन्द्र सेन (1834-1884 ई.) ने अपनी वाक्पटुता एवं उदारवादी दृष्टिकोण से इस आंदोलन को बल प्रदान किया। इनके ही प्रयासों के फलस्वरूप ब्रह्मसमाज की शाखाएँ उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं मद्रास में खोली गयी। केशवचन्द्र सेन का अत्यधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही कालान्तर में ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना। 1865 ई. में देवेन्द्रनाथ ने केशवचन्द्र को ब्रह्मसमाज से बाहर निकाल दिया।

राजा राममोहन का योगदान

राजा राममोहन राय ने कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाएँ भी की हैं, उनकी कुछ रचनाएँ इस प्रकार हैं- 'तुहफतुल-मुवाहिद्दीन', 'गिफ़्ट द मोनाथेइस्ट्स' (1809 ई. में पारसी में प्रकाशित), 'पीसेप्टस ऑफ़ जीसस' आदि। इन्होंने 'संवाद कौमुदी' का भी सम्पादन किया। राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में हिन्दू धर्म के एकेश्वरवादी मत के प्रचार हेतु आत्मीय सभा का गठन किया, जिसमें द्वारकानाथ टैगोर शामिल थे। 1815 ई. में इन्होंने वेदांत कॉलेज की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने अपने समय में भारतीय समाज में व्याप्त तमाम बुराइयों में सर्वाधिक प्रखर आन्दोलन सती प्रथा के विरुद्ध चलाया। 1829 ई. में भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक द्वारा सती प्रथा को प्रतिबंधित करने के लिए लगाए गए क़ानून को लागू करवाने में राजा राममोहन राय ने सरकार की मदद की। राजा राममोहन राय ने पाश्चात्य शिक्षा के प्रति अपना समर्थन जताते हुए कहा कि, 'यह हमारे सम्पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है।' 1817 ई. में डेविड हेयर की सहायता से कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की गई।

राजा राममोहन राय को भारत में पत्रकारिता का अग्रदूत माना जाता है। इन्होंने समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता का समर्थन किया था। भारत की स्वतंत्रता के बारे में उनका मत था कि, भारत को तुरन्त स्वतंत्रता न लेकर प्रशासन में हिस्सेदारी लेना चाहिए। अतः राजा राममोहन राय ब्रिटिश शासन के समर्थक थे। इन्होंने भारत में पूंजीवाद का समर्थन किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय के विषय में कहा कि, ‘राजा राममोहन राय अपने समय में सम्पूर्ण मानव समाज में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आधुनिक युग के महत्व को पूरी तरह समझा।’ राजा राममोहन राय ने भारतीय स्वतन्त्रता एवं राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन दिया। 1821 ई. में स्पेनिश अमेरिका में क्रांति के सफल होने पर राजा जी ने एक सार्वजनिक भोज का आयोजन कर अपनी खुशी को व्यक्त किया। इन्हीं सब कारणों से राजा राममोहन राय के व्यक्तित्व को एक 'अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व' माना जाता है।

तत्वबोधिनी सभा

1850 ई. में मुग़ल बादशाह अकबर द्वितीय ने राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि के साथ अपने दूत के रूप में तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में भेजा। इन्हें ब्रिटिश सम्राट से मुग़ल बादशाह को मिलने वाली पेंशन की राशि को बढ़ाने की बात करनी थी। यहीं पर ब्रिस्टल में 27 सितम्बर, 1833 ई. को राजा राममोहन राय की मृत्यु हो गयी। सुभाषचन्द्र बोस ने राजा राममोहन राय को ‘युगदूत’ की उपाधि से सम्मानित किया था। राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद ब्रह्मसमाज की गतिविधियों का संचालन द्वारिकानाथ टैगोर तथा पंडित रामचन्द्र विद्यागीश ने किया। इनके बाद द्वारिकानाथ के पुत्र देवेन्द्रनाथ टैगोर ने (1818-1905 ई.) ब्रह्मसमाज की गतिविधयों को जारी रखा। ब्रह्मसमाज में शामिल होने से पहले देवेन्द्रनाथ ने कलकत्ता के जोरासांकी में 'तत्वरंजिनी सभा' की स्थापना की। बाद में 'तत्वरंजिनी' ही 'तत्वबोधिनी सभा' के रूप में परिवर्तित हो गयी। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने तत्वबोधिनी सभा से जुड़ी पत्रिका ‘तत्वबोधिनी’ का प्रारम्भ किया। इसके सम्पादक 'अक्षय कुमार दत्त' थे। 1840 ई. में तत्वबोधिनी स्कूल की स्थापना हुई, अक्षय कुमार इसके अध्यापक पद पर नियुक्त हुये। इस स्कूल के अन्य सदस्यों में राजेन्द्र लाल मित्र, पं. ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, ताराचन्द्र चक्रवर्ती तथा प्यारेचन्द्र मित्र आदि थे।

संगत सभा की स्थापना

21 दिसम्बर, 1843 ई. को देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्मसमाज की सदस्यता ग्रहण की तथा उत्साह के साथ राजा राममोहन राय के विचारों को प्रचारित किया। देवेन्द्रनाथ ने अलेक्ज़ेंडर डफ़ द्वारा भारतीय संस्कृति पर किए जा रहे ईसाई धर्म के प्रचार के प्रहार के विरुद्ध संघर्ष किया। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 'ब्रह्म धर्म' नामक धार्मिक पुस्तिका का संकलन किया तथा उपासना के ब्रह्म स्वरूप ब्रह्मेपासना की शुरुआत की। 1857 ई. में आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज की सदस्यता ग्रहण की। इनके उदारवादी विचारों ने ब्रह्म की लोकप्रियता को बढ़ाया। केशवचन्द्र सेन ने देवेन्द्रनाथ के साथ मिलकर तत्कालीन आध्यात्मिक तथा सामाजिक समस्याओं के विचार के उद्देश्य से 'संगत सभा' (मैत्री संघ) की स्थापना की।

आदि ब्रह्मसमाज का गठन

1861 ई. में केशवचन्द्र सेन ने 'इण्डियन मिरर' नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्र (मिरर) ने शीघ्र ही अपनी पहचान बना ली और अंग्रेज़ी का पहला दैनिक समाचार होने का गौरव प्राप्त किया। बाद में इण्डियन मिरर ब्रह्मसमाज का मुख पत्र बन गया। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज को एक अखिल भारतीय रूप देने के उद्देश्य से पूरे भारत का दौरा किया, जिसके परिणामस्वरूप मद्रास में 'वेद समाज' तथा महाराष्ट्र में 'प्रार्थना समाज' की स्थापना हुई। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने महिलाओं के उद्धार, नारी शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह आदि के समर्थन में प्रचार किया तथा बाल विवाह का विरोध किया। इन अमूलकारी परिवर्तनवादी विचारों के कारण ही 1865 ई. में ब्रह्मसमाज में पहली फूट पड़ी। देवेन्द्रनाथ टैगोर के अनुयायियों ने आदि ब्रह्मसमाज का गठन किया। आदि ब्रह्मसमाज का नारा था 'ब्रह्मवाद ही हिन्दूवाद है।'

  • लन्दन की यात्रा से लौटने के बाद 1872 ई. में केशवचन्द्र सेन ने सरकार को 'ब्रह्मविवाह अधिनियम' को क़ानूनी दर्जा देने के लिए तैयार कर लिया। आचार्य केशव चन्द्र सेन ने पश्चिमी शिक्षा के प्रसार, स्त्रियों के उद्धार तथा स्त्री शिक्षा आदि के उद्देश्य से 'इण्डियन रिफ़ार्म एसोसिएशन' की स्थापना की। ब्रह्मसमाज में दूसरा विभाजन 1878 ई. में हुआ, जब आचार्य केशवचन्द्र सेन ने 'ब्रह्मविवाह अधिनियम' 1872 ई. का उल्लंघन करते हुये अपनी अल्पायु पुत्री का विवाह कूचबिहार के महाराजा से किया।

साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना

केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों ने उनसे अलग होकर 'साधारण ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। साधारण ब्रह्मसमाज के अनुयायी मूर्तिपूजा और जाति प्रथा के विरोधी तथा नारी मुक्ति के समर्थक थे। साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना आनन्द मोहन बोस द्वारा तैयार की गई रूपरेखा पर हुआ था। आनन्द मोहन बोस इसके प्रथम अध्यक्ष थे। इस संगठन के सक्रिय कार्यकर्ताओं में शिवनाथ शास्त्री, विपिनचन्द्र पाल द्वारिकानाथ गांगुली तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी प्रमुख थे।


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