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13:18, 26 जनवरी 2017 के समय का अवतरण

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कविते तेरी अलकानगरी में
रमा यहाँ ऐसा कवि जीवन
ज्यों अरविंदों के प्रान्तर में
रमा भवँर का हो अंतरमन

कभी उतरी तू कवि के मानस में
बन शीतल मंद गंध पव कम्पन
तू कभी कल्पना बनकर मधुरम
कभी फुट पड़ी बन गीत विहंगम

गाते देखा सुरसरि लहरों में
इठलाती हो नभ में भूतल में
सभ्य-सभ्यता औ संस्कृति में
तुम न्याय नीति औ परिवर्तन में

कभी खीच गयी तू रेख क्रांति की
कभी बनी मूक जन की तू वाणी
रो पड़ी कभी लखकर पीड़ा को
हे अखिल कंठ से तू कल्याणी

वो कवी तपोवन की हे देवी
मै खोज रहा हूँ वो अतीत
जहाँ उगे प्रेम का कल्प वृछ
मनुजत्व सभ्यता का प्रतीत

जगा जगा उस तृष्णा मरुथल में
जहाँ आडंम्बर की उठती ज्वालायें
जहाँ धन पिशाच की भेट चढ़ रहीं
तृण पर्ण कुटी की बालायें

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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