इस उपनिषद में 'श्रीसूक्त' के वैभव-सम्पन्न अक्षरों को आधार मानकर देवी मन्त्र और चक्र आदि को प्रकट किया गया है। यहाँ देवसमूह और श्री नारायण के मध्य हुए वार्तालाप को इस उपनिषद का आधार बताया गया है। यह उपनिषद तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में सौभाग्यलक्ष्मी विद्या की जिज्ञासा, ध्यान, चक्र, एकाक्षरी मन्त्र का ऋषि, लक्ष्मी मन्त्र, श्रीसूक्त के ऋषि आदि का निरूपण किया गया है। दूसरे खण्ड में ज्ञानयोग, प्राणायामयोग, नाद के आविर्भाव से पूर्व की तीन ग्रन्थियों का विवेचन, अखण्ड ब्रह्माकार वृत्ति, निर्विकल्प भाव तथा समाधि के लक्षण बताये गये हैं। तीसरे खण्ड में नवचक्रों का विस्तृत वर्णन और उपनिषद की फलश्रुति का उल्लेख किया गया है।
प्रथम खण्ड
एक बार समस्त देवताओं ने भगवान श्री नारायण से सौभाग्य लक्ष्मी विद्या के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। तब श्री नारायण ने श्रीलक्ष्मीदेवी के विषय में उन्हें बताया कि यह देवी स्थूल, सूक्ष्म और कारण-रूप, तीनों अवस्थाओं से परे तुरीयस्वरूपा, तुरीयातीत, सर्वोत्कट-रूपा (कठिनाई से प्राप्त) समस्त मन्त्रों को अपना आसन बनाकर विराजमान है। वह चतुर भुजाओं से सम्पन्न है। उन श्री लक्ष्मी के श्रीसूक्त की पन्द्रह ऋचाओं के अनुसार सदैव स्मरण करने से श्री-सम्पन्नता आने में विलम्ब नहीं लगता है।
श्रीमहालक्ष्मी का दिव्य-रूप
ऋषियों ने श्रीमहालक्ष्मी को कमलदल पर विराजमान चतुर्भुजाधारिणी कहा है। यह मन्त्र दृष्टव्य हैं-
अरुणकमलसंस्था तद्रज: पुञ्जवर्णा करकमलधृतेष्टाऽमितियुग्माम्बुजा च।
मणिकटकविचित्रालंकृताकल्पजालै: सकलभुवनमाता संततं श्री श्रियै न:॥
अर्थात श्री लक्ष्मी अरुण वर्णा (हलके लाल रंग के) निर्मल कमल-दल पर आसीन, कमल-पराग की राशि के सदृश पीतवर्ण, चारों हाथों में क्रमश: वरमुद्रा, अभयमुद्रा तथा दोनों हाथों में कमल पुष्प धारण किये हुए, मणियुक्त कंकणों द्वारा विचित्र शोभा को धारण करने वाली तथा समस्त आभूषणों से सुशोभित एवं सम्पूर्ण लोकों की माता, हमें सदैव श्री-सम्पन्न बनायें। इस देवी की आभा तप्त स्वर्ण के समान है। शुभ्र मेघ-सी आभा वाले दो हाथियों की सूंड़ों में ग्रहण किये कलाशों के फल से जिनका अभिषेक हो रहा है, लाल रंग के माणिम्यादि रत्नों से जिनका मुकुट सिर पर शोभायमान हो रहा है, जिन श्री देवी के परिधान अत्यधिक स्वच्छ हैं, जिनके नेत्र पद्म के समान हैं, ऋतु के अनुकूल जिनके अंग चन्दन आदि सुवासित पदार्थों से युक्त हैं, क्षीरशायी भगवान विष्णु के हृदयस्थल पर जिनका वास हा, हम सभी के लिए वे श्रीलक्ष्मीदेवी ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हों। ईश्वर से यही हमारी प्रार्थना है। कहा भी है—
'निष्कामानामेव श्रीविद्यासिद्धि: । न कदापि सकामानामिति॥12॥'
अर्थात निष्काम (कामनाविहीन) उपासकों को ही श्रीलक्ष्मी और विद्या की सिद्धि प्राप्त होती है। सकाम उपासकों को इसकी सिद्धि किंचित मात्र भी प्राप्त नहीं होती।
दूसरा खण्ड
इस खण्ड में प्राणायाम विधि का विस्तार से वर्णन है तथा षट्चक्रभेदन और समाधि पर प्रकाश डाला गया है। इस समाधि द्वारा मन का विलय आत्मा में उसी सप्रकार हो जाता है, जैसे जल में नमक घुल जाता है। 'प्राणायाम' के अभ्यास से प्राणवायु पूरी तरह से कुम्भक में स्थित हो जाती है तथा मानसिक वृत्तियां पूर्णत: शिथिल पड़ जाती हैं। उस समय तेल की धारा के समान आत्मा के साथ चित्त का एकात्म भाव 'समाधि' कहलाता है। 'जीवात्मा' और 'परमात्मा' का साथ इस समाधि तथा प्राणायाम विधि द्वारा ही सम्भव है। ऐसा होने पर समस्त भवबन्धन और कष्ट नष्ट हो जाते हैं।
तीसरा खण्ड
तीसरे खण्ड में कुण्डलिनी जागरण द्वारा मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर व विशुद्ध आदि नवचक्रों का विवेचन किया गया है। नारायण ने देवताओं को बताया कि मूलाधारचक्र में ही ब्रह्मचक्र का निवास है। वह योनि के आकार के तीन घेरों में स्थित हैं। वहां पर महाशक्ति कुण्डलिनी सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहती है। उसकी उपासना से सभी भोगों को प्राप्त किया जा सकता है। यह कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होने पर स्वाधिष्ठानचक्र, नाभिचक्र, हृदयचक्र, विशुद्धाख्यचक्र, तालुचक्र, भ्रूचक्र (आज्ञाचक्र) से होती हुई निर्वाणचक्र, अर्थात 'ब्रह्मरन्ध्र' में पहुंचती है। ब्रह्मरन्ध्र से ऊपर उठकर नवम 'आकाशचक्र' में पहुँचकर परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करती है। यहाँ पहुंचकर साधक को समस्त कामनाओं की सिद्धि हो जाती है। इन पन्द्रह ऋचाओं का कम-से-कम पन्द्रह दिन तक निष्काम भाव से ध्यान करने पर श्री लक्ष्मी की सिद्धि हो जाती है।
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