आशापुरा माता मन्दिर | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- आशापुरा माता मन्दिर (बहुविकल्पी) |
आशापुरा माता मन्दिर राजस्थान के डूंगरपुर में स्थित है। शक्तिपीठ के रूप में शुमार वागड़ के निठाउवा में स्थापित मां आशापुरा पूरे वागड़ की नहीं मेवाड़, मारवाड़ और गुजरात के साथ मध्य प्रदेश के हजारोंं-हजार भक्तों की आराध्य देवी है। यहाँ की मूर्ति कई मायनों में चमत्कारिक है। चौहान वंश की कुलदेवी मां आशापुरा डूंगरपुर जिले के साबला पंचायत समिति से 16 कि.मी. की दूरी पर गामडी निठाउवा में स्थित है।
स्थापना
सम्राट पृथ्वीराज चौहान की आराध्य कुलदेवी जगदंबा आशापुरा की मूर्ति विक्रम संवत 1380 में शासक मोद पाल ने नाडोल (मारवाड) से यहां लाकर स्थापित कराई थी। इसकी सर्वप्रथम प्रतिष्ठा आमेर के चौहान राजा अणोराज ने तारागढ़ में विक्रम संवत 1180 से 1208 के मध्य काल में करवाई थी। विक्रम संवत 1236 में सम्राट पृथ्वीराज तृतीय दिल्ली के राजा बने। तब इस मूर्ति को दिल्ली ले जाकर निगम बोध घाट पर पुरोहित गुरुराम से इसकी प्रतिष्ठा करवाई। संवत 1249 में पृथ्वीराज के निधन हो जाने एवं दिल्ली में इस्लामी शासक हो जाने पर पृथ्वीराज के भाई हरराज, जो कुंवर गोविंदराम के संरक्षक थे, वे संवत् 1277 में इस प्रतिमा को रणथम्भौर ले गए व प्राण प्रतिष्ठा करवाई।
राजा हमीर के बाद रणथम्भौर में भी इस्लामी शासक हो गया। तब उनके वंशज सांचौर (मारवाड़) ले गए एवं नाडोल में प्राण प्रतिष्ठा करवाई। कालांतर में इसी वंश में मोद पाल नाडोल के शासक बने। चौदहवीं शताब्दी में मुस्लिम हमलवारों ने नाडोल पर आक्रमण कर दिया। नाडोल की सुरक्षा खतरे में पड़ गई। मोद पाल के 32 पुत्र थे। इनमें 28 पुत्र लड़ाई में काम आए। काकाजी गंगदेव व मोद पाल ने मिलकर वीरता दिखाई। मोद पाल के शरीर पर 84 घाव लगे।
आशापुरा माता को दु:खहरण माता भी कहा जाने लगा। विक्रम संवत 1352 ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी को आशापुरा माता ने मोद पाल को सपना दिया कि मेरी प्रतिमा को रथ में रखकर मालवा की ओर चल दो, जहां पर रथ रुक जाए वहां पर शासन जमा लेना। मोद पाल अपने चार बेटों व काका जैतसिंह के साथ सेना लेकर रथ के साथ रवाना हुए। मंदसौर (मध्य प्रदेश) में रथ का धरा टूट गया वहां शासन जमाया व माताजी जीरण में विराजमान हुई। आज भी वहां धरे की पूजा होती है। दुश्मनों ने वहां पर भी हमला बोल दिया। नया रथ बनाकर मोद पाल आगे बढ़े तो सांडलपोर के पास जंगलों के बीच गुजरते समय रथ का पहिया टूट गया। वहां पर किला बनाया व कुछ समय तक शासन किया। सांडलपोर में आज भी वहां पर किला मौजूद है।
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