अनगिनत दुःशासन
चीरहरण करते
वसुधा का,
आँचल
रोज
सिमटता जाता,
मधुसूदन, तुम कब आओगे ?
कालियदह
हर घाट बन गया
भारत की
सारी नदियों का,
पग-पग पर
विषधर-समूह
जीवन-सरिता में
जहर मिलाता,
मधुसूदन, तुम कब आओगे ?
वंशज कई
पूतना के
सक्रिय हो गए,
पय की
बूँद-बूँद में
मौत घोलते
हाय, विधाता !
मधुसूदन, तुम कब आओगे ?
खण्ड खण्ड
पर्वत-मालाएं
हे गिरिधर !
दिन-रात हो रहीं,
वायुमण्डल
घुटन भरा
मन को अकुलाता,
मधुसूदन, तुम कब आओगे ?