बोता खुद ही आदमी, सुख या दु:ख के बीज ।
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज ।।
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में ।
स्वर्ग,नरक निर्माण, स्वयं कर लेता घर में ।
'ठकुरेला' कविराय, न सब कुछ यूँ ही होता ।
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता ।।
तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़ ।
अगर मिले नेतृत्व तो, ताक़त बनती भीड़ ।।
ताक़त बनती भीड़, नए इतिहास रचाती ।
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती ।
'ठकुरेला' कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका ।
रचते नया विधान, मिले सोना या तिनका ।।
जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल ।
किन्तु प्रबुद्धों ने सदा, कुछ हल लिये निकाल ।।
कुछ हल लिये निकाल, असर कुछ कम हो जाता ।
नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता ।
'ठकुरेला' कविराय, ताप कम होते मन के ।
खुल जाते हैं द्वार, जगत् में नव जीवन के ।।
ताक़त ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात ।
हाथी को मिलती रही, चींटी से भी मात ।।
चींटी से भी मात, धुरंधर धूल चाटते ।
कभी कभी कुछ तुच्छ, बड़ों के कान काटते।
'ठकुरेला' कविराय, हुआ इतना ही अवगत ।
समय बड़ा बलवान, नहीं धन, पद या ताक़त ।।
जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान ।
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान ।।
लगती है आसान, नहीं दु:ख से घबराता ।
ढूँढे मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता ।
'ठकुरेला' कविराय, नहीं होता विचलित मन।
सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन ।।