कर्मभूमि उपन्यास भाग-3 अध्याय-3
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एक महीने से ठाकुरद्वारे में कथा हो रही है। पृं मधुसुदनजी इस कला में प्रवीण हैं। उनकी कथा में श्रव्य और दृश्य, दोनों ही काव्यों का आनंद आता है। जितनी आसानी से वह जनता को हंसा सकते हैं, उतनी ही आसानी से रूला भी सकते हैं। दृष्टांतों के तो मानो वह सफर हैं, और नाटय में इतने कुशल हैं कि जो चरित्र दर्शाते हैं, उनकी तस्वीरें खींच देते हैं। सारा शहर उमड़ पड़ता है। रेणुकादेवी तो सांझ ही से ठाकुरद्वारे में पहुंच जाती हैं। व्यासजी और उनके भजनीक सब उन्हीं के मेहमान हैं। नैना भी मुन्ने को गोद में लेकर पहुंच जाती है। केवल सुखदा को कथा में रुचि नहीं है। वह नैना के बार-बार आग्रह करने पर भी नहीं जाती। उसका विद्रोही मन सारे संसार से प्रतिकार करने के लिए जैसे नंगी तलवार लिए खड़ा रहता है। कभी-कभी उसका मन इतना उद्विग्न हो जाता है कि समाज और धर्म के सारे बंधनो को तोड़कर फेंक दे। ऐसे आदमियों की सज़ा यही है कि उनकी स्त्रियां भी उन्हीं के मार्ग पर चलें। तब उनकी आँखेंं खुलेंगी और उन्हें ज्ञात होगा कि जलना किसे कहते हैं। एक मैं कुल-मर्यादा के नाम को रोया करूं लेकिन यह अत्याचार बहुत दिनों न चलेगा। अब कोई इस भ्रम में न रहे कि पति जो करे, उसकी स्त्री उसके पांव धोधोकर पिएगी, उसे अपना देवता समझेगी, उसके पांव दबाएगी और वह उससे हंसकर बोलेगा, तो अपने भाग्य को धन्य मानेगी। वह दिन लद गए। इस विषय पर उसने पत्रों में कई लेख भी लिखे हैं।
आज नैना बहस कर बैठी-तुम कहती हो, पुरुष के आचार-विचार की परीक्षा कर लेनी चाहिए। क्या परीक्षा कर लेने पर धोखा नहीं होता- आए दिन तलाक क्यों होते रहते हैं-
सुखदा बोली-तो इसमें क्या बुराई है- यह तो नहीं होता कि पुरुष तो गुलछर्रे उड़ावे और स्त्री उसके नाम को रोती रहे-
नैना ने जैसे रटे हुए वाक्य को दुहराया-प्रेम के अभाव में सुख कभी नहीं मिल सकता। बाहरी रोकथाम से कुछ न होगा।
सुखदा ने छेड़ा-मालूम होता है, आजकल यह विद्या सीख रही हो। अगर देख-भालकर विवाह करने में कभी-कभी धोखा हो सकता है, तो बिना देखे-भाले करने में बराबर धोखा होता है। तलाक की प्रथा यहां हो जाने दो, फिर मालूम होगा कि हमारा जीवन कितना सुखी है।
नैना इसका कोई जवाब न दे सकी। कल व्यासजी ने पश्चिमी विवाह-प्रथा की तुलना भारतीय पति से की। वही बातें कुछ उखड़ी-सी उसे याद थीं।
बोली-तुम्हें कथा में चलना है कि नहीं, यह बताओ।
'तुम जाओ, मैं नहीं जाती।'
नैना ठाकुरद्वारे में पहुंची तो कथा आरंभ हो गई थी। आज और दिनों से ज्यादा हुजूम था। नौजवान-सभा और सेवा-पाठशाला के विद्यार्थी और अध्यापक भी आए हुए थे। मधुसूदनजी कह रहे थे-राम-रावण की कथा तो इस जीवन की, इस संसार की कथा है इसको चाहो तो सुनना पड़ेगा, न चाहो तो सुनना पड़ेगा। इससे हम-तुम बच नहीं सकते। हमारे ही अंदर राम भी हैं, रावण भी हैं, सीता भी हैं, आदि...।।
सहसा पिछली सगों में कुछ हलचल मची। ब्रह्यचारीजी कई आदमियों को हाथ पकड़-पकड़कर उठा रहे थे और जोर-जोर से गालियां दे रहे थे। हंगामा हो गया। लोग इधर-उधर से उठकर वहां जमा हो गए। कथा बंद हो गई-
समरकान्त ने पूछा-क्या बात है ब्रह्यचारीजी-
ब्रह्यचारीजी ने ब्रह्यतेज से लाल-लाल आँखेंं निकालकर कहा-बात क्या है, यहां लोग भगवान् की कथा सुनने आते हैं कि अपना धर्म भ्रष्ट करने आते हैं भंगी, चमार जिसे देखो घुसा चला आता है-ठाकुरजी का मंदिर न हुआ सराय हुई ।
समरकान्त ने कड़ककर कहा-निकाल दो सभी को मारकर ।
एक बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा-हम तो यहां दरवाज़े पर बैठे थे सेठजी, जहां जूते रखे हैं। हम क्या ऐसे नादान हैं कि आप लोगों के बीच में जाकर बैठ जाते-
ब्रह्यचारी ने उसे एक जूता जमाते हुए कहा-तू यहां आया क्यों- यहां से वहां तक एक दरी बिछी हुई है। सब-का-सब भरभंड हुआ कि नहीं- प्रसाद है, चरणामृत है, गंगाजल है। सब मिट्टी हुआ कि नहीं- अब जाड़े-पाले में लोगों को नहाना-धोना पड़ेगा कि नहीं- हम कहते हैं तू बूढ़ा हो गया मिठुआ, मरने के दिन आ गए, पर तुझे अकल भी नहीं आई। चला है वहां से बड़ा भगत की पूंछ बनकर ।
समरकान्त ने बिगड़कर कहा-और भी कभी आया था कि आज ही आया है-
मिठुआ बोला-रोज आते हैं महाराज, यहीं दरवाज़े पर बैठकर भगवान् की कथा सुनते हैं।
ब्रह्यचारीजी ने माथा पीट लिया। ये दुष्ट रोज यहां आते थे रोज सबको छूते थे। इनका छुआ हुआ प्रसाद लोग रोज खाते थे इससे बढ़कर अनर्थ क्या हो सकता है- धर्म पर इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है- धार्मात्माओं के क्रोध का पारावार न रहा। कई आदमी जूते ले-लेकर उन ग़रीबों पर पिल पड़े। भगवान् के मंदिर में, भगवान् के भक्तों के हाथों, भगवान् के भक्तों पर पादुका-प्रहार होने लगा।
डॉक्टर शान्तिकुमार और उनके अध्यापक खड़े जरा देर तक यह तमाशा देखते रहे। जब जूते चलने लगे तो स्वामी आत्मानन्द अपना मोटा सोंटा लेकर ब्रह्यचारी की तरफ लपके।
डॉक्टर साहब ने देखा, घोर अनर्थ हुआ चाहता है। झपटकर आत्मानन्द के हाथों से सोटा छीन लिया।
आत्मानन्द ने खून-भरी आंखों से देखकर कहा-आप यह दृश्य देख सकते हैं, मैं नहीं देख सकता।
शान्तिकुमार ने उन्हें शांत किया और ऊंची आवाज़ से बोले-वाह रे ईश्वर-भक्तो वाह क्या कहना है तुम्हारी भक्ति का जो जितने जूते मारेगा, भगवान् उस पर उतने प्रसन्न होंगे। उसे चारों पदार्थ मिल जाएंगे। सीधो स्वर्ग से विमान आ जाएगा। मगर अब चाहे जितना मारो, धर्म तो नष्ट हो गया।
ब्रह्यचारी, लाला समरकान्त, सेठ धानीराम और अन्य धर्म के ठेकेदारों ने चकित होकर शान्तिकुमार की ओर देखा। जूते चलने बंद हो गए।
शान्तिकुमार इस समय कुर्ता और धोती पहने, माथे पर चंदन लगाए, गले में चादर डाले व्यास के छोटे भाई से लग रहे थे। यहां उनका वह व्यसन न था, जिस पर विधर्मी होने का आक्षेप किया जा सकता था।
डॉक्टर साहब ने फिर ललकार कहा-आप लोगों ने हाथ क्यों बंद कर लिए- लगाइए कस-कसकर और जूतों से क्या होता है- बंदूकें मंगाइए और धर्म-द्रोहियों का अंत कर डालिए। सरकार कुछ नहीं कर सकती। और तुम धर्म-द्रोहियो तुम सब-के-सब बैठ जाओ और जितने जूते खा सको, खाओ। तुम्हें इतनी खबर नहीं कि यहां सेठ महाजनों के भगवान् रहते हैं तुम्हारी इतनी मजाल कि इनके भगवान् के मंदिर में क़दम रखो तुम्हारे भगवान् किसी झोंपड़े में या पेड़ तले होंगे। यह भगवान् रत्नों के आभूषण पहनते हैं। मोहनभोग-मलाई खाते हैं। चीथड़े पहनने वालों और चबैना खाने वालों की सूरत वह नहीं देखना चाहते।
ब्रह्यचारीजी परशुराम की भांति विकराल रूप दिखाकर बोले-तुम तो बाबूजी, अंधेर करते हो। सासतर में कहां लिखा है कि अंत्यजों को मंदिर में आने दिया जाए-
शान्तिकुमार ने आवेश से कहा-कहीं नहीं। शास्त्र में यह लिखा है कि घी में चर्बी मिलाकर बेचो, टेनी मारो, रिश्वतें खाओ। आंखों में धूल झोंको और जो तुमसे बलवान् हैं उनके चरण धोधोकर पीयो, चाहे वह शास्त्र को पैरों से ठुकराते हों। तुम्हारे शास्त्र में यह लिखा है, तो यह करो। हमारे शास्त्र में तो यह लिखा है कि भगवान् की दृष्टि में न कोई छोटा है न बड़ा, न कोई शुद्ध और न कोई अशुद्ध। उसकी गोद सबके लिए खुली हुई है।
समरकान्त ने कई आदमियों को अंत्यजों का पक्ष लेने के लिए तैयार देखकर उन्हें शांत करने की चेष्टा करते हुए कहा-डॉक्टर साहब, तुम व्यर्थ इतना क्रोध कर रहे हो। शास्त्र में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है, यह तो पंडित ही जानते हैं। हम तो जैसी प्रथा देखते हैं, वह करते हैं। इन पाजियों को सोचना चाहिए था या नहीं- इन्हें तो यहां का हाल मालूम है, कहीं बाहर से तो नहीं आए हैं-
शान्तिकुमार का ख़ून खौल रहा था-आप लोगों ने जूते क्यों मारे-
ब्रह्यचारी ने उजड्डपन से कहा-और क्या पान-फूल लेकर पूजते-
शान्तिकुमार उत्तोजित होकर बोले-अंधे भक्तों की आंखों में धूल झोंककर यह हलवे बहुत दिन खाने को न मिलेंगे महाराज, समझ गए- अब वह समय आ रहा है, जब भगवान् भी पानी से स्नान करेंगे, दूध से नहीं।
सब लोग हां-हां करते ही रहे पर शान्ति कुमार, आत्मानन्द और सेवा-पाठशाला के छात्र उठकर चल दिए। भजन-मंडली का मुखिया सेवाश्रम का ब्रजनाथ था। वह भी उनके साथ ही चला गया।