कर्मभूमि उपन्यास भाग-4 अध्याय-8
इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" |
साथ के पढ़े, साथ के खेले, दो अभिन्न मित्र, जिनमें धौल-धाप्पा, हंसी-मजाक सब कुछ होता रहता था, परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर दो अलग रास्तों पर जा रहे थे। लक्ष्य दोनों का एक था, उद्देश्य एक दोनों ही देश-भक्त, दोनों ही किसानों के शुभेच्छु पर एक अफसर था, दूसरा कैदी। दोनों सटे हुए बैठे थे, पर जैसे बीच में कोई दीवार खड़ी हो। अमर प्रसन्न था, मानो शहादत के जीने पर चढ़ रहा हो। सलीम दु:खी था जैसे भरी सभा में अपनी जगह से उठा दिया गया हो। विकास के सिध्दांत का खुली सभा में समर्थन करके उसकी आत्मा विजयी होती। निरंकुशता की शरण लेकर वह जैसे कोठरी में छिपा बैठा था।
सहसा सलीम ने मुस्कराने की चेष्टा करके कहा-क्यों अमर, मुझसे खगा हो-
अमर ने प्रसन्न मुख से कहा-बिलकुल नहीं। मैं तुम्हें अपना वही पुराना दोस्त समझ रहा हूं। उसूलों की लड़ाई हमेशा होती रही है और होती रहेगी। दोस्ती में इससे फ़र्क़ नहीं आता।
सलीम ने अपनी सफाई दी-भाई, इंसान-इंसान है, दो मुखालिग गिरोहों में आकर दिल में कीना या मलाल पैदा हो जाय, तो ताज्जुब नहीं। पहले डी. एस. पी. को भेजने की सलाह थी पर मैंने इसे मुनासिब न समझा।
'इसके लिए मैं तुम्हारा बड़ा एहसानमंद हूं। मेरे ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा?'
'हां, तुम्हारी तकरीरों की रिपोर्ट मौजूद है, और शहादतें भी जमा हो गई हैं। तुम्हारा क्या खयाल है, तुम्हारी गिरफ्तारी से यह शोरिश दब जाएगी या नहीं?'
'कुछ कह नहीं सकता। अगर मेरी गिरफ्तारी या सज़ा से दब जाय, तो इसका दब जाना ही अच्छा।'
उसने एक क्षण के बाद फिर कहा-रिआया को मालूम है कि उनके क्या-क्या हक हैं, यह मालूम है कि हकों की हिफाजत के लिए कुरबानियां करनी पड़ती हैं। मेरा फर्ज यहीं तक खत्म हो गया। अब वह जानें और उनका काम जाने। मुमकिन है, सख्तियों से दब जाएं, मुमकिन है, न दबें लेकिन दबें या उठें, उन्हें चोट ज़रूर लगी है। रिआया का दब जाना, किसी सरकार की कामयाबी की दलील नहीं है।
मोटर के जाते ही सत्य मुन्नी के सामने चमक उठा। वह आवेश में चिल्ला उठी-लाला पकड़े गए और उसी आवेश में मोटर के पीछे दौडी। चिल्लाती जाती थी-लाला पकड़े गए।
वर्षाकाल में किसानों को हार में बहुत काम नहीं होता। अधिकतर लोग घरों में होते हैं। मुन्नी की आवाज़ मानो खतरे का बिगुल थी। दम-के-दम में सारे गांव में यह आवाज़ गूंज उठी-भैया पकड़े गए
स्त्रियां घरों में से निकल पड़ीं-भैया पकड़े गए ।
क्षण मात्र में सारा गांव जमा हो गया और सड़क की तरफ दौड़ा। मोटर घूमकर सड़क से जा रही थी। पगडंडियों का एक सीधा रास्ता था। लोगों ने अनुमान किया, अभी इस रास्ते मोटर पकड़ी जा सकती है। सब उसी रास्ते दौड़े।
काशी बोला-मरना तो एक दिन है ही।
मुन्नी ने कहा-पकड़ना है, तो सबको पकड़ें। ले चलें सबको।
पयाग बोला-सरकार का काम है चोर-बदमाशों को पकड़ना या ऐसों को जो दूसरों के लिए जान लड़ा रहे हैं- वह देखो मोटर आ रही है। बस, सब रास्ते में खड़े हो जाओ। कोई न हटना, चिल्लाने दो।
सलीम मोटर रोकता हुआ बोला-अब कहो भाई। निकालूं पिस्तौल-
अमर ने उसका हाथ पकड़कर कहा-नहीं-नहीं, मैं इन्हें समझाए देता हूं।
'मुझे पुलिस के दो-चार आदमियों को साथ ले लेना था।'
'घबराओ मत, पहले मैं मरूंगा, फिर तुम्हारे ऊपर कोई हाथ उठाएगा।'
अमर ने तुरंत मोटर से सिर निकालकर कहा-बहनो और भाइयो, अब मुझे बिदा कीजिए। आप लोगों के सत्संग में मुझे जितना स्नेह और सुख मिला, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता। मैं परदेशी मुसाफिर था। आपने मुझे स्थान दिया, आदर दिया, प्रेम दिया मुझसे भी जो कुछ सेवा हो सकी, वह मैंने की। अगर मुझसे कुछ भूल-चूक हुई हो, तो क्षमा करना। जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे छोड़ना मत, यही मेरी याचना है। सब काम ज्यों-का-त्यों होता रहे, यही सबसे बड़ा उपहार है, जो आप मुझे दे सकते हैं। प्यारे बालको, मैं जा रहा हूं लेकिन मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।
काशी ने कहा-भैया, हम सब तुम्हारे साथ चलने को तैयार हैं।
अमर ने मुस्कराकर उत्तर दिया-नेवता तो मुझे मिला है, तुम लोग कैसे जाओगे-
किसी के पास इसका जवाब न था। भैया बात ही ऐसी करते हैं कि किसी से उसका जवाब नहीं बन पड़ता।
मुन्नी सबसे पीछे खड़ी थी, उसकी आँखें सजल थीं। इस दशा में अमर के सामने कैसे जाए- हृदय में जिस दीपक को जलाए, वह अपने अंधेरे जीवन में प्रकाश का स्वप्न देख रही थी, वह दीपक कोई उसके हृदय से निकाले लिए जाता है। वह सूना अंधकार क्या फिर वह सह सकेगी ।
सहसा उसने उत्तोजित होकर कहा-इतने जने खड़े ताकते क्या हो उतार लो मोटर से जन-समूह में एक हलचल मची। एक ने दूसरे की ओर कैदियों की तरह देखा कोई बोला नहीं।
मुन्नी ने फिर ललकारा-खड़े ताकते क्या हो, तुम लोगों में कुछ दया है या नहीं जब पुलिस और फ़ौज इलाके को ख़ून से रंग दे, तभी-।
अमर ने मोटर से निकलकर कहा-मुन्नी, तुम बुद्धिमती होकर ऐसी बातें कर रही हो मेरे मुंह पर कालिख मत लगाओ।
मुन्नी उन्मुक्तों की भांति बोली-मैं बुद्धिमान् नहीं, मैं तो मूरख हूं, गंवारिन हूं। आदमी एक-एक पत्ती के लिए सिर कटा देता है, एक-एक बात पर जान देता है। क्या हम लोग खड़े ताकते रहें और तुम्हें कोई पकड़ ले जाए- तुमने कोई चोरी की है डाका मारा है-
कई आदमी उत्तोजित होकर मोटर की ओर बढ़े पर अमरकान्त की डांट सुनकर ठिठक गए-क्या करते हो पीछे हट जाओ। अगर मेरे इतने दिनों की सेवा और शिक्षा का यही फल है, तो मैं कहूंगा कि मेरा सारा परिश्रम धूल में मिल गया।