कर्मभूमि उपन्यास भाग-4 अध्याय-5
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अमर गूदड़ चौधरी के साथ महन्त आशाराम गिरि के पास पहुंचा। संध्या का समय था। महन्तजी एक सोने की कुर्सी पर बैठे हुए थे, जिस पर मखमली गद्दा था। उनके इर्द-गिर्द भक्तों की भीड़ लगी हुई थी, जिसमें महिलाओं की संख्या ही अधिक थी। सभी धुले हुए संगमरमर के फर्श पर बैठी हुई थी। पुरुष दूसरी ओर बैठे थे। महन्तजी पूरे छ: फीट के विशालकाय सौम्य पुरुष थे। अवस्था कोई पैंतीस वर्ष की थी। गोरा रंग, दुहरी देह, तेजस्वी मूर्ति, काषाय वस्त्र तो थे, किन्तु रेशमी। वह पांव लटकाए बैठे हुए थे। भक्त लोग जाकर उनके चरणों को आंखों से लगाते थे, अमर अंदर गया, पर वहां उसे कौन पूछता- आखिर जब खड़े-खड़े आठ बज गए, तो उसने महन्तजी के समीप जाकर कहा-महाराज, मुझे आपसे कुछ निवेदन करना है।
महन्तजी ने इस तरह उसकी ओर देखा, मानो उन्हें आँखेंं फेरने में भी कष्ट है।
उनके समीप एक दूसरा साधु खड़ा था। उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखकर पूछा-कहां से आते हो-
अमर ने गांव का नाम बताया।
हुक्म हुआ, आरती के बाद आओ।
आरती में तीन घंटे की देर थी। अमर यहां कभी न आया था। सोचा, यहां की सैर ही कर लें। इधर-उधर घूमने लगा। यहां से पश्चिम तरफ तो विशाल मंदिर था। सामने पूरब की ओर सिंहद्वार, दाहिने-बाएं दो दरवाज़े और भी थे। अमर दाहिने दरवाज़े से अंदर घुसा, तो देखा चारों तरफ चौड़े बरामदे हैं और भंडारा हो रहा है। कहीं बड़ी-बड़ी कढ़ाइयों में पूड़ियां-कचौड़ियां बन रही हैं। कहीं भांति-भांति की शाक-भाजी चढ़ी हुई है कहीं दूध उबल रहा है कहीं मलाई निकाली जा रही है। बरामदे के पीछे, कमरे में खा? सामग्री भरी हुई थी। ऐसा मालूम होता था, अनाज, शाक-भाजी, मेवे, फल, मिठाई की मंडियां हैं। एक पूरा कमरा तो केवल परवलों से भरा हुआ था। उस मौसम में परवल कितने महंगे होते हैं पर यहां वह भूसे की तरह भरा हुआ था। अच्छे-अच्छे घरों की महिलाएं भक्ति-भाव से व्यंजन पकाने में लगी हुई थीं। ठाकुरजी के ब्यालू की तैयारी थी। अमर यह भंडार देखकर दंग रह गया। इस मौसम में यहां बीसों झाबे अंगूर भरे थे।
अमर यहां से उत्तर तरफ के द्वार में घुसा, तो यहां बाज़ार-सा लगा देखा। एक लंबी कतार दर्जियों की थी, जो ठाकुरजी के वस्त्र सी रहे थे। कहीं जरी के काम हो रहे थे, कहीं कारचोबी की मसनदें और फावतकिए बनाए जा रहे थे। एक कतार सोनारों की थी, जो ठाकुरजी के आभूषण बना रहे थे, कहीं जड़ाई का काम हो रहा था, कहीं पालिश किया जाता था, कहीं पटवे गहने गूंथ रहे थे। एक कमरे में दस-बारह मुस्टंडे जवान बैठे चंदन रगड़ रहे थे। सबों के मुंह पर ढाटे बंधो हुए थे। एक पूरा कमरा इत्र, तेल और अगरबत्तियों से भरा हुआ था। ठाकुरजी के नाम पर कितना अपव्यय हो रहा है, यही सोचता हुआ अमर यहां से फिर बीच वाले प्रांगण में आया और सदर द्वार से बाहर निकला।
गूदड़ ने पूछा-बड़ी देर लगाई। कुछ बातचीत हुई-
अमर ने हंसकर कहा-अभी तो केवल दर्शन हुए हैं, आरती के बाद भेंट होगी। यह कहकर उसने जो देखा था, वह विस्तारपूर्वक बयान किया।
गूदड़ ने गर्दन हिलाते हुए कहा-भगवान् का दरबार है। जो संसार को पालता है, उसे किस बात की कमी- सुना तो हमने भी है लेकिन कभी भीतर नहीं गए कि कोई कुछ पूछने-पाछने लगें, तो निकाले जायं। हां, घुड़साल और गऊशाला देखी है, मन चाहे तो तुम भी देख लो।
अभी समय बहुत बाकी था। अमर गऊशाला देखने चला। मंदिर के दक्खिन में पशुशालाएं थीं। सबसे पहले पीलखाने में घुसे। कोई पच्चीस-तीस हाथी आंगन में जंजीरों से बंधो खड़े थे। कोई इतना बड़ा कि पूरा पहाड़, कोई इतना मोटा, जैसे भैंस। कोई झूम रहा था, कोई सूंड घुमा रहा था, कोई बरगद के डाल-पात चबा रहा था। उनके हौदे, झूले, अंबारियां, गहने सब अलग गोदाम में रखे हुए थे। हरेक हाथी का अपना नाम, अपना सेवक, अपना मकान अलग था। किसी को मन-भर रातिब मिलता था, किसी को चार पसेरी। ठाकुरजी की सवारी में जो हाथी था, वही सबसे बड़ा था। भगत लोग उसकी पूजा करने आते थे। इस वक्त भी मालाओं का ढेर उसके सिर पर पड़ा हुआ था। बहुत-से फूल उसके पैरों के नीचे थे।
यहां से घुड़साल में पहुंचे। घोड़ों की कतारें बांधी हुई थीं, मानो सवारों की फ़ौज का पड़ाव हो। पांच सौ घोड़ों से कम न थे, हरेक जाति के, हरेक देश के। कोई सवारी का कोई शिकार का, कोई बग्घी का, कोई पोलो का। हरेक घोड़े पर दो-दो आदमी नौकर थे। उन्हें रोज बादाम और मलाई दी जाती थी।
गऊशाला में भी चार-पांच सौ गाएं-भैंसें थीं बड़े-बड़े मटके ताजे दूध से भरे रखे थे। ठाकुरजी आरती के पहले स्नान करेंगे। पांच-पांच मन दूध उनके स्नान को तीन बार रोज चाहिए, भंडार के लिए अलग।
अभी यह लोग इधर-उधर घूम ही रहे थे कि आरती शुरू हो गई। चारों तरफ से लोग आरती करने को दौड़ पड़े।
गूदड़ ने कहा-तुमसे कोई पूछता-कौन भाई हो, तो क्या बताते-
अमर ने मुस्कराकर कहा-वैश्य बताता।
'तुम्हारी तो चल जाती क्योंकि यहां तुम्हें लोग कम जानते हैं, मुझे तो लोग रोज ही हाथ में चरसें बेचते देखते हैं, पहचान लें, तो जीता न छोड़ें। अब देखो भगवान् की आरती हो रही है और हम भीतर नहीं जा सकते, यहां के पंडे-पुजारियों के चरित्र सुनो, तो दांतों तले उंगली दबा लो। पर वे यहां के मालिक हैं, और हम भीतर क़दम नहीं रख सकते। तुम चाहे जाकर आरती ले लो। तुम सूरत से भी तो ब्राह्यण जंचते हो। मेरी तो सूरत ही चमार-चमार पुकार रही है।'
अमर की इच्छा तो हुई कि अंदर जाकर तमाशा देखे पर गूदड़ को छोड़कर न जा सका। कोई आधा घंटे में आरती समाप्त हुई और उपासक लौटकर अपने-अपने घर गए, तो अमर महन्तजी से मिलने चला। मालूम हुआ, कोई रानी साहब दर्शन कर रही हैं। वहीं आंगन में टहलता रहा।
आधा घंटे के बाद उसने फिर साधु-द्वारपाल से कहा, तो पता चला, इस वक्त नहीं दर्शन हो सकते। प्रात:काल आओ।
अमर को क्रोध तो ऐसा आया कि इसी वक्त महन्तजी को फटकारे पर जब्त करना पड़ा। अपना-सा मुंह लेकर बाहर चला आया।
गूदड़ ने यह समाचार सुनकर कहा-दरबार में भला हमारी कौन सुनेगा-
'महन्तजी के दर्शन तुमने कभी किए हैं?'
'मैंने भला मैं कैसे करता- मैं कभी नहीं आया।'
नौ बज रहे थे, इस वक्त घर लौटना मुश्किल था। पहाड़ी रास्ते, जंगली जानवरों का खटका, नदी-नालों का उतार। वहीं रात काटने की सलाह हुई। दोनों एक धर्मशाला में पहुंचे और कुछ खा-पीकर वहीं पड़ रहने का विचार किया। इतने में दो साधु भगवान् का ब्यालू बेचते हुए नजर आए। धर्मशाला के सभी यात्री लेने दौड़े। अमर ने भी चार आने की एक पत्तल ली। पूरियां, हलवे, तरह-तरह की भांजियां, अचार-चटनी, मुरब्बे, मलाई, दही इतना सामान था कि अच्छे दो खाने वाले त्प्त हो जाते। यहां चूल्हा बहुत कम घरों में जलता था। लोग यही पत्तल ले लिया करते थे। दोनों ने खूब पेट-भर खाया और पानी पीकर सोने की तैयारी कर रहे थे कि एक साधु दूध बेचने आया-शयन का दूध ले लो। अमर की इच्छा तो न थी पर कौतूहल से उसने दो आने का दूध ले लिया। पूरा एक सेर था, गाढ़ा, मलाईदार उसमें से केसर और कस्तूरी की सुगंध उड़ रही थी। ऐसा दूध उसने अपने जीवन में कभी न पिया था।
बेचारे बिस्तर तो लाए न थे, आधी-आधी धोतियां बिछाकर लेटे ।
अमर ने विस्मय से कहा-इस खर्च का कुछ ठिकाना है ।
गूदड़ भक्ति-भाव से बोला-भगवान् देते हैं और क्या उन्हीं की महिमा है। हजार-दो हज़ार यात्री नित्य आते हैं। एक-एक सेठिया दस-दस, बीस-बीस हज़ार की थैली चढ़ाता है। इतना खरचा करने पर भी करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं।
'देखें कल क्या बातें होती हैं?'
'मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि कल भी दर्सन न होंगे।'
दोनों आदमियों ने कुछ रात रहे ही उठकर स्नान किया और दिन निकलने के पहले डयोढ़ी पर जा पहुंचे। मालूम हुआ, महन्तजी पूजा पर हैं।
एक घंटा बाद फिर गए, तो सूचना मिली, महन्तजी कलेऊ पर हैं।
जब वह तीसरी बार नौ बजे गया, तो मालूम हुआ, महन्तजी घोड़ों का मुआइना कर रहे हैं। अमर ने झुंझलाकर द्वारपाल से कहा-तो आखिर हमें कब दर्शन होंगे-
द्वारपाल ने पूछा-तुम कौन हो-
'मैं उनके इलाके के विषय में कुछ कहने आया हूं।'
'तो कारकुन के पास जाओ। इलाके का काम वही देखते हैं।'
अमर पूछता हुआ कारकुन के दफ़्तर में पहुंचा, तो बीसों मुनीम लंबी-लंबी बही खोले लिख रहे थे। कारकुन महोदय मसनद लगाए हुक़्क़ा पी रहे थे।
अमर ने सलाम किया।
कारकुन साहब ने दाढ़ी पर हाथ फेरकर पूछा-अर्जी कहां है-
अमर ने बगलें झांककर कहा-अर्जी तो मैं नहीं लाया।
'तो फिर यहां क्या करने आए?'
'मैं तो श्रीमान् महन्तजी से कुछ अर्ज करने आया था।'
'अर्जी लिखकर लाओ।'
'मैं तो महन्तजी से मिलना चाहता हूं।'
'नजराना लाए हो?'
'मैं ग़रीब आदमी हूं, नजराना कहां से लाऊं?'
'इसलिए कहता हूं, अर्जी लिखकर लाओ। उस पर विचार होगा। जो कुछ हुक्म होगा, सुना दिया जाएगा।'
'तो कब हुक्म सुनाया जाएगा?'
'जब महन्तजी की इच्छा हो।'
'महन्तजी को कितना नजराना चाहिए?'
'जैसी श्रध्दा हो। कम-से-कम एक अशर्फी।'
'कोई तारीख बता दीजिए, तो मैं हुक्म सुनने आऊं। यहां रोज कौन दौड़ेगा?'
'तुम दौड़ोगे और कौन दौड़ेगा- तारीख नहीं बताई जा सकती।'
अमर ने बस्ती में जाकर विस्तार के साथ अर्जी लिखी और उसे कारकुन की सेवा में पेश कर दिया। फिर दोनों घर चले गए।
इनके आने की खबर पाते ही गांव के सैकड़ों आदमी जमा हो गए। अमर बड़े संकट में पड़ा। अगर उनसे सारा वृत्तांत कहता है, तो लोग उसी को उल्लू बनाएंगे-इसलिए बात बनानी पड़ी-अर्जी पेश कर आया हूं। उस पर विचार हो रहा है।
काशी ने अविश्वास के भाव से कहा-वहां महीनों में विचार होगा, तब तक यहां कारिंदे हमें नोच डालेंगे।
अमर ने खिसियाकर कहा-महीनों में क्यों विचार होगा- दो-चार दिन बहुत हैं।
पयाग बोला-यह सब टालने की बातें हैं। खुशी से कौन अपने रुपये छोड़ सकता है।
अमर रोज सबेरे जाता और घड़ी रात गए लौट आता। पर अर्जी पर विचार न होता था। कारकुन, उनके मुहर्रिरों, यहां तक की चपरासियों की मिन्नत-समाजत करता पर कोई न सुनता था। रात को वह निराश होकर लौटता, तो गांव के लोग यहां उसका परिहास करते।
पयाग कहता-हमने तो सुना था कि रुपये में आठ आने की छूट हो गई।
काशी कहता-तुम झूठे हो। मैंने तो सुना था, महन्तजी ने इस साल पूरी लगान माफ कर दी।
उधर आत्मानन्द हलके में बराबर जनता को भड़का रहे थे। रोज बड़ी-बड़ी किसान-सभाओं की खबरें आती थीं। जगह-जगह किसान-सभाएं बन रही थीं। अमर की पाठशाला भी बंद पड़ी थी। उसे फुरसत ही न मिलती थी, पढ़ाता कौन- रात को केवल मुन्नी अपनी कोमल सहानुभूति से उसके आंसू पोंछती थी।
आखिर सातवें दिन उसकी अर्जी पर हुक्म हुआ कि सामने पेश किया जाय। अमर महन्त के सामने लाया गया। दोपहर का समय था। महन्तजी खसखाने में एक तख्त पर मसनद लगाए लेटे हुए थे। चारों तरफ खस की टट्टियां थीं, जिन पर गुलाब का छिड़काव हो रहा था। बिजली के पंखे चल रहे थे। अंदर इस जेठ के महीने में इतनी ठंडक थी कि अमर को सर्दी लगने लगी।
महन्तजी के मुखमंडल पर दया झलक रही थी। हुक्के का एक कश खींचकर मधुर स्वर में बोले-तुम इलाके ही में रहते हो न- मुझे यह सुनकर बड़ा दु:ख हुआ कि मेरे असामियों की इस समय कष्ट है। क्या सचमुच उनकी दशा यही है, जो तुमने अर्जी में लिखी है-
अमर ने प्रोत्साहित होकर कहा-महाराज, उनकी दशा इससे कहीं ख़राब है कितने ही घरों में चूल्हा नहीं जलता।
महन्तजी ने आँखेंं बंद करके कहा-भगवान् यह तुम्हारी क्या लीला है-तो तुमने मुझे पहले ही क्यों न खबर दी- मैं इस फसल की वसूली रोक देता। भगवान् के भंडार में किस चीज़ की कमी है। मैं इस विषय में बहुत जल्द सरकार से पत्र व्यवहार करूंगा और वहां से जो कुछ जवाब आएगा, वह असामियों को भिजवा दूंगा। तुम उनसे कहो, धैर्य रखें। भगवान् यह तुम्हारी क्या लीला है ।
महन्तजी ने आंखों पर ऐनक लगा ली और दूसरी अर्जियां देखने लगे, तो अमरकान्त भी उठ खड़ा हुआ। चलते-चलते उसने पूछा-अगर श्रीमान् कारिंदों को हुक्म दे दें कि इस वक्त असामियों को दिक न करें, तो बड़ी दया हो। किसी के पास कुछ नहीं है, पर मार-गाली के भय से बेचारे घर की चीज़ें बेच-बेचकर लगान चुकाते हैं। कितने ही तो इलाका छोड़-छोड़कर भागे जा रहे हैं।
महन्तजी की मुद्रा कठोर हो गई-ऐसा नहीं होने पाएगा। मैंने कारिंदों को कड़ी ताकीद कर दी है कि किसी असामी पर सख्ती न की जाय। मैं उन सबों से जवाब तलब करूंगा। मैं असामियों का सताया जाना बिलकुल पसंद नहीं करता।
अमर ने झुककर महन्तजी को दंडवत किया और वहां से बाहर निकला, तो उसकी बांछें खिली जाती थीं। वह जल्द-से जल्द इलाके में पहुंचकर यह खबर सुना देना चाहता था। ऐसा तेज जा रहा था, मानो दौड़ रहा है। बीच-बीच में दौड़ भी लगा लेता था, पर सचेत होकर रूक जाता था। लू तो न थी पर धूप बड़ी तेज थी, देह फुंकी जाती थी, फिर भी वह भागा चला जाता था। अब वह स्वामी आत्मानन्द से पूछेगा, कहिए, अब तो आपको विश्वास आया न कि संसार में सभी स्वार्थी नहीं- कुछ धार्मात्मा भी हैं, जो दूसरों का दु:ख-दर्द समझते हैं- अब उनके साथ के बेफिक्रों की खबर भी लेगा। अगर उसके पर होते तो उड़ जाता।
संध्या समय वह गांव में पहुंचा तो कितने ही उत्सुक किंतु अविश्वास से भरे नेत्रों ने उसका स्वागत किया।
काशी बोला-आज तो बड़े प्रसन्न हो भैया, पाला मार आए क्या-
अमर ने खाट पर बैठते हुए अकड़कर कहा-जो दिल से काम करेगा, वह पाला मारेगा ही।
बहुत से लोग पूछने लगे-भैया, क्या हुकुम हुआ-
अमर ने डॉक्टर की तरह मरीजों को तसल्ली दी-महन्तजी को तुम लोग व्यर्थ बदनाम कर रहे थे। ऐसी सज्जनता से मिले कि मैं क्या कहूं- कहा-हमें तो कुछ मालूम ही नहीं, पहले ही क्यों न सूचना दी, नहीं तो हमने वसूली बंद कर दी होती। अब उन्होंने सरकार को लिखा है। यहां कारिंदों को भी वसूली की मनाही हो जाएगी।
काशी ने खिसियाकर कहा-देखो, कुछ हो जाय तो जानें।
अमर ने गर्व से कहा-अगर धैर्य से काम लोगे, तो सब कुछ हो जाएगा। हुल्लड़ मचाओगे, तो कुछ न होगा, उल्टे और डंडे पड़ेंगे।
सलोनी ने कहा-जब मोटे स्वामी मानें।
गूदड़ ने चौधरीपन की ली-मानेंगे कैसे नहीं, उनको मानना पड़ेगा।
एक काले युवक ने, जो स्वामीजी के उग्र भक्तों में था, लज्जित होकर कहा-भैया, जिस लगन से तुम काम करते हो, कोई क्या करेगा।
दूसरे दिन उसी कड़ाई से प्यादों ने डांट-फटकार की लेकिन तीसरे दिन से वह कुछ नर्म हो गए। सारे इलाके में खबर फैल गई कि महन्तजी ने आधी छूट के लिए सरकार को लिखा है। स्वामीजी जिस गांव में जाते थे, वहां लोग उन पर आवाजें कसते। स्वामीजी अपनी रट अब भी लगाए जाते थे। यह सब धोखा है, कुछ होना-हवाना नहीं है, उन्हें अपनी बात की आ पड़ी थी-असामियों की उन्हें इतनी फ़िक्र न थी, जितनी अपने पक्ष की। अगर आधी छूट का हुकुम आ जाता, तो शायद वह यहां से भाग जाते। इस वक्त तो वह इस वादे को धोखा साबित करने की चेष्टा करते थे, और यद्यपि जनता उनके हाथ में न थी, पर कुछ-न-कुछ आदमी उनकी बातें सुन ही लेते थे। हां, इस कान सुनकर उस कान उड़ा देते।
दिन गुजरने लगे, मगर कोई हुक्म नहीं आया। फिर लोगों में संदेह पैदा होने लगा। जब दो सप्ताह निकल गए, तो अमर सदर गया और वहां सलीम के साथ हाकिम ज़िला मि. गजनवी से मिला। मि. गजनवी लंबे, दुबले, गोरे शौकीन आदमी थे। उनकी नाक इतनी लंबी और चिबुक इतना गोल था कि हास्य-मूर्ति लगते थे। और थे भी बड़े विनोदी। काम उतना ही करते थे जितना ज़रूरी होता था और जिसके न करने से जवाब तलब हो सकता था। लेकिन दिल के साफ, उदार, परोपकारी आदमी थे। जब अमर ने गांवों की हालत उनसे बयान की, तो हंसकर बोले-आपके महन्तजी ने फरमाया है, सरकार जितनी मालगुजारी छोड़ दे, मैं उतनी ही लगान छोड़ दूंगा। हैं मुंसिफ मिज़ाज।
अमर ने शंका की-तो इसमें बेइंसाफी क्या है-
'बेइंसाफी यही है कि उनके करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं, सरकार पर अरबों कर्ज़ है।'
'तो आपने उनकी तजवीज पर कोई हुक्म दिया?'
'इतनी जल्द भला छ: महीने तो गुजरने दीजिए। अभी हम काश्तकारों की हालत की जांच करेंगे, उसकी रिपोर्ट भेजी जाएगी, फिर रिपोर्ट पर गौर किया जाएगा, तब कहीं कोई हुक्म निकलेगा।'
'तब तक तो असामियों के बारे-न्यारे हो जाएंगे। अजब नहीं कि फसाद शुरू हो जाए।'
'तो क्या आप चाहते हैं, सरकार अपनी बजा छोड़ दे- यह दफ़्तरी हुकूमत है जनाब वहां सभी काम जाब्ते के साथ होते हैं। आप हमें गालियां दें, हम आपका कुछ नहीं कर सकते। पुलिस में रिपोर्ट होगी। पुलिस आपका चालान करेगी। होगा वही, जो मैं चाहूंगा मगर जाब्ते के साथ। खैर, यह तो मजाक था। आपके दोस्त मि. सलीम बहुत जल्द उस इलाके की तहकीकात करेंगे, मगर देखिए, झूठी शहादतें न पेश कीजिएगा कि यहां से निकाले जाएं। मि. सलीम आपकी बड़ी तारीफ करते हैं, मगर भाई, मैं तुम लोगों से डरता हूं। ख़ासकर तुम्हारे स्वामी से। बड़ा ही मुफसिद आदमी है। उसे फंसा क्यों नहीं देते- मैंने सुना है, वह तुम्हें बदनाम करता फिरता है।'
इतना बड़ा अफसर अमर से इतनी बेतकल्लुफी से बातें कर रहा था, फिर उसे क्यों न नशा हो जाता- सचमुच आत्मानन्द आग लगा रहा है। अगर वह गिरफ्तार हो जाए, तो इलाके में शांति हो जाए। स्वामी साहसी है, यथार्थ वक्ता है, देश का सच्चा सेवक है लेकिन इस वक्त उसका गिरफ्तार हो जाना ही अच्छा है।
उसने कुछ इस भाव से जवाब दिया कि उसके मनोभाव प्रकट न हों पर स्वामी पर वार चल जाय-मुझे तो उनसे कोई शिकायत नहीं है, उन्हें अख्तियार है, मुझे जितना चाहें बदनाम करें।
गजनवी ने सलीम से कहा-तुम नोट कर लो मि. सलीम। कल इस हलके के थानेदार को लिख दो, इस स्वामी की खबर ले। बस, अब सरकारी काम खत्म। मैंने सुना है मि. अमर कि आप औरतों को वश में करने का कोई मंत्र जानते हैं।
अमर ने सलीम की गरदन पकड़कर कहा-तुमने मुझे बदनाम किया होगा।
सलीम बोला-तुम्हें तुम्हारी हरकतें बदनाम कर रही हैं, मैं क्यों करने लगा-
गजनवी ने बांकपन के साथ कहा-तुम्हारी बीबी गजब की दिलेर औरत है, भई आजकल म्युनिसिपैलिटी से उनकी जोर-आजमाई है और मुझे यकीन है, बोर्ड को झुकना पड़ेगा। अगर भाई, मेरी बीबी ऐसी होती, तो मैं फ़कीर हो जाता। वल्लाह ।
अमर ने हंसकर कहा-क्यों आपको तो और खुश होना चाहिए था।
गजनवी-जी हां वह तो जनाब का दिल ही जानता होगा।
सलीम-उन्हीं के खौफ से तो यह भागे हुए हैं।
गजनवी-यहां कोई जलसा करके उन्हें बुलाना चाहिए।
सलीम-क्यों बैठे-बिठाए जहमत मोल लीजिएगा। वह आईं और शहर में आग लगी, हमें बंगलों से निकलना पड़ा ।
गजनवी-अजी, यह तो एक दिन होना ही है। वह अमीरों की हुकूमत अब थोड़े दिनों की मेहमान है। इस मुल्क में अंग्रेजों का राज है, इसलिए हममें जो अमीर हैं और जो कुदरती तौर पर अमीरों की तरफ खड़े होते हैं, वह भी ग़रीबों की तरफ खड़े होने में खुश हैं क्योंकि ग़रीबों के साथ उन्हें कम-से-कम इज्जत तो मिलेगी, उधर तो यह डौल भी नहीं है। मैं अपने को इसी जहमत में समझता हूं।
तीनों मित्रों में बड़ी रात तक बेतकल्लुफी से बातें होती रहीं। सलीम ने अमर की पहले ही खूब तारीफ कर दी थी। इसलिए उसकी गंवाई सूरत होने पर भी गजनवी बराबरी के भाव से मिला। सलीम के लिए हुकूमत नई चीज़ थी। अपने नए जूते की तरह उसे कीचड़ और पानी से बचाता था। गजनवी हुकूमत का आदी हो चुका था और जानता था कि पांव नए जूते से कहीं ज्यादा कीमती चीज़ है। रमणी-चर्चा उसके कौतूहल, आनंद और मनोरंजन का मुख्य विषय थी। क्वांरों की रसिकता बहुत धीरे-धीरे सूखने वाली वस्तु है। उनकी अत्प्त लालसा प्राय: रसिकता के रूप में प्रकट होती है।
अमर ने गजनवी से पूछा-आपने शादी क्यों नहीं की- मेरे एक मित्र प्रोफेसर डॉक्टर शान्तिकुमार हैं, वह भी शादी नहीं करते। आप लोग औरतों से डरते होंगे।
गजनवी ने कुछ याद करके कहा-शान्तिकुमार वही तो हैं, ख़ूबसूरत से, गोरे-चिट्टे, गठे हुए बदन के आदमी। अजी, वह तो मेरे साथ पढ़ता था यार। हम दोनों ऑक्सफोर्ड में थे। मैंने लिटरेचर लिया था, उसने पोलिटिकल फिलॉसोफी ली थी। मैं उसे खूब बनाया करता था, यूनिवर्सिटी में है न- अक्सर उसकी याद आती थी।
सलीम ने उसके इस्तीफे, ट्रस्ट और नगर-कार्य का ज़िक्र किया।
गजनवी ने गरदन हिलाई, मानो कोई रहस्य पा गया है-तो यह कहिए, आप लोग उनके शागिर्द हैं। हम दोनों में अक्सर शादी के मसले पर बातें होती थीं। मुझे तो डॉक्टरों ने मना किया था क्योंकि उस वक्त मुझमें टी. वी. की कुछ अलामतें नजर आ रही थी। जवान बेवा छोड़ जाने के खयाल से मेरी देह कांपती थी। तब से मेरी गुजरान तीर-तुक्के पर ही है। शान्तिकुमार को तो कौमी खिदमत और जाने क्या-क्या खब्त था मगर ताज्जुब यह है कि अभी तक उस खब्त ने उसका गला नहीं छोड़ा। मैं समझता हूं, अब उसकी हिम्मत न पड़ती होगी। मेरे ही हमसिन तो थे। जरा उनका पता तो बताना- मैं उन्हें यहां आने की दावत दूंगा।
सलीम ने सिर हिलाया-उन्हें फुरसत कहां- मैंने बुलाया था, नहीं आए।
गजनवी मुस्कराए-तुमने निज के तोर पर बुलाया होगा। किसी इंस्टिटयूशन की तरफ से बुलाओ और कुछ चंदा करा देने का वादा कर लो, फिर देखो, चारों-हाथ पांव से दौड़े आते हैं या नहीं। इन कौमी खादिमों की जान चंदा है, ईमान चंदा है और शायद खुदा भी चंदा है। जिसे देखो, चंदे की हाय-हाय। मैंने कई बार इस खादिमों को चरका दिया, उस वक्त इन खादिमों की सूरतें देखने ही से ताल्लुक रखती हैं। गालियां देते हैं, पैंतरे बदलते हैं, जबान से तोप के गोले छोड़ते हैं, और आप उनके बौखलपन का मजा उठा रहे हैं। मैंने तो एक बार एक लीडर साहब को पागलखाने में बंद कर दिया था। कहते हैं अपने को कौम का खादिम और लीडर समझते हैं।
सवेरे मि. गजनवी ने अमर को अपनी मोटर पर गांव में पहुंचा दिया। अमर के गर्व और आनंद का पारावार न था। अफसरों की सोहबत ने कुछ अफसरी की शान पैदा कर दी थी-हाकिम परगना तुम्हारी हालत जांच करने आ रहे हैं। खबरदार, कोई उनके सामने झूठा बयान न दे। जो कुछ वह पूछें, उसका ठीक-ठीक जवाब दो। न अपनी दशा को छिपाओ, न बढ़ाकर बताओ। तहकीकात सच्ची होनी चाहिए। मि. सलीम बड़े नेक और ग़रीब-दोस्त आदमी हैं। तहकीकात में देर ज़रूर लगेगी, लेकिन राज्य-व्यवस्था में देर लगती ही है। इतना बड़ा इलाका है, महीनों घूमने में लग जाएंगे। तब तक तुम लोग खरीफ का काम शुरू कर दो। रुपये-आठ आने छूट का मैं जिम्मा लेता हूं। सब्र का फल मीठा होता है, समझ लो।
स्वामी आत्मानन्द को भी अब विश्वास आ गया। उन्होंने देखा, अकेला ही सारा यश लिए जाता है और मेरे पल्ले अपयश के सिवा और कुछ नहीं पड़ता, तो उन्होंने पहलू बदला। एक जलसे में दोनों एक ही मंच से बोले। स्वामीजी झुके, अमर ने कुछ हाथ बढ़ाया। फिर दोनों में सहयोग हो गया।
इधर असाढ़ की वर्षा शुरू हुई उधर सलीम तहकीकात करने आ पहुंचा। दो-चार गांवों में असामियों के बयान लिखे भी लेकिन एक ही सप्ताह में ऊब गया। पहाड़ी डाक-बंगले में भूत की तरह अकेले पड़े रहना उसके लिए कठिन तपस्या थी। एक दिन बीमारी का बहाना करके भाग खड़ा हुआ और एक महीने तक टाल-मटोल करता रहा। आखिर जब ऊपर से डांट पड़ी और गजनवी ने सख्त ताकीद की तो फिर चला। उस वक्त सावन की झड़ी लग गई थी, नदी, नाले-भर गए थे, और कुछ ठंडक आ गई थी। पहाड़ियों पर हरियाली छा गई थी। मोर बोलने लगे थे। प्राकृतिक शोभा ने देहातों को चमका दिया था।
कई दिन के बाद आज बादल खुले थे। महन्तजी ने सरकारी फैसले के आने तक रुपये में चार आने की छूट की घोषणा दी थी और कारिंदे बकाया वसूल करने की फिर चेष्टा करने लगे थे। दो-चार असामियों के साथ उन्होंने सख्ती भी की थी। इस नई समस्या पर विचार करने के लिए आज गंगा-तट पर एक विराट् सभा हो रही थी। भोला चौधरी सभापति बनाए गए और स्वामी आत्मानन्द का भाषण हो रहा था-सज्जनो, तुम लोगों में ऐसे बहुत कम हैं, जिन्होंने आधा लगान न दे दिया हो। अभी तक तो आधो की चिंता थी। अब केवल आधो-के-आधो की ्रूचता है। तुम लोग खुशी से दो-दो आने और दे दो, सरकार महन्तजी की मलागुजारी में कुछ-न-कुछ छूट अवश्य करेगी। अब की छ: आने छूट पर संतुष्ट हो जाना चाहिए। आगे की फसल में अगर अनाज का भाव यही रहा, तो हमें आशा है कि आठ आने की छूट मिल जाएगी। यह मेरा प्रस्ताव है, आप लोग इस पर विचार करें। मेरे मित्र अमरकान्त की भी यही राय है। अगर आप लोग कोई और प्रस्ताव करना चाहते हैं तो हम उस पर विचार करने को भी तैयार हैं।
इसी वक्त डाकिये ने सभा में आकर अमरकान्त के हाथ में एक लिफाफा रख दिया। पते की लिखावट ने बता दिया कि नैना का पत्र है। पढ़ते ही जैसे उस पर नशा छा गया। मुख पर ऐसा तेज आ गया, जैसे अग्नि में आहुति पड़ गई हो। गर्व भरी आंखों से इधर-उधर देखा। मन के भाव जैसे छलांगें मारने लगे। सुखदा की गिरफ्तारी और जेल-यात्रा का वृत्तांत था। आह वह जेल गई और वह यहां पड़ा हुआ है उसे बाहर रहने का क्या अधिकार है वह कोमलांगी जेल में है, जो कड़ी दृष्टि भी न सह सकती थी, जिसे रेशमी वस्त्र भी चुभते थे, मखमली गद्वे भी गड़ते थे, वह आज जेल की यातना सह रही है। वह आदर्श नारी, वह देश की लाज रखने वाली, वह कुल लक्ष्मी, आज जेल में है। अमर के हृदय का सारा रक्त सुखदा के चरणों पर गिरकर बह जाने के लिए मचल उठा। सुखदा सुखदा चारों ओर वही मूर्ति थी। संध्या की लालिमा से रंजित गंगा की लहरों पर बैठी हुई कौन चली जा रही है- सुखदा ऊपर असीम आकाश में केसरिया साड़ी पहने कौन उठी जा रही है- सुखदा सामने की श्याम पर्वतमाला में गोधुलि का हार गले में डाले कौन खड़ी है- सुखदा अमर विक्षिप्तों की भांति कई क़दम आगे दौड़ा, मानो उसकी पद-रज मस्तक पर लगा लेना चाहता हो।
सभा में कौन क्या बोला, इसकी उसे खबर नहीं। वह खुद क्या बोला, इसकी भी उसे खबर नहीं। जब लोग अपने-अपने गांवों को लौटे तो चन्द्रमा का प्रकाश फैल गया था। अमरकान्त का अंत:करण कृतज्ञता से परिपूर्ण था। जैसे अपने ऊपर किसी की रक्षा का साया उसी ज्योत्स्ना की भांति फैला हुआ जान पड़ा। उसे प्रतीत हुआ, जैसे उसके जीवन में कोई विधन है, कोई आदेश है, कोई आशीर्वाद है, कोई सत्य है, और वह पग-पग पर उसे संभालता है, बचाता है। एक महान् इच्छा, एक महान् चेतना के संसर्ग का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ।
सहसा मुन्नी ने पुकारा-लाला, आज तो तुमने आग ही लगा दी।
अमर ने चौंककर कहा-मैंने ।
तब उसे अपने भाषण का एक-एक शब्द याद आ गया। उसने मुन्नी का हाथ पकड़ कर कहा-हां मुन्नी, अब हमें वही करना पड़ेगा, जो मैंने कहा। जब तक हम लगान देना बंद न करेंगे। सरकार यों ही टालती रहेगी।
मुन्नी संशक होकर बोली-आग में कूद रहे हो, और क्या-
अमर ने ठट्ठा मारकर कहा-आग में कूदने से स्वर्ग मिलेगा। दूसरा मार्ग नहीं है।
मुन्नी चकित होकर उसका मुंह देखने लगी। इस कथन में हंसने का क्याप्रयोजन वह समझ न सकी।