कर्मभूमि उपन्यास भाग-5 अध्याय-3
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पुलिस ने उस पहाड़ी इलाके का घेरा डाल रखा था। सिपाही और सवार चौबीसों घंटे घूमते रहते थे। पांच आदमियों से ज्यादा एक जगह जमा न हो सकते थे। शाम को आठ बजे के बाद कोई घर से निकल न सकता था। पुलिस को इत्तिला दिए बगैर घर में मेहमान को ठहराने की भी मनाही थी। फ़ौजी क़ानून जारी कर दिया गया था। कितने ही घर जला दिए गए थे और उनके रहने वाले हबूड़ों की भांति वृक्षों के नीचे बाल-बच्चों को लिए पड़े थे। पाठशाला में आग लगा दी गई थी और उसकी आधी-आधी काली दीवारें मानो केश खोले मातम कर रही थीं। स्वामी आत्मानन्द बांस की छतरी लगाए अब भी वहां डटे हुए थे। जरा-सा मौक़ा पाते ही इधर-उधर से दस-बीस आदमी आकर जमा हो जाते पर सवारों को आते देखा और गायब।
सहसा लाला समरकान्त एक गट्ठर पीठ पर लादे मदरसे के सामने आकर खड़े हो गए। स्वामी ने दौड़कर उनका बिस्तर ले लिया और खाट की फ़िक्र में दौड़े। गांव-भर में बिजली की तरह खबर दौड़ गई-भैया के बाप आए हैं। हैं तो वृध्द मगर अभी टनमन हैं। सेठ-साहूकार से लगते हैं। एक क्षण में बहुत से आदमियों ने आकर घेर लिया। किसी के सिर में पट्टी बंधी थी, किसी के हाथ में। कई लंगड़ा रहे थे। शाम हो गई और आज कोई विशेष खटका न देखकर और सारे इलाके में डंडे के बल से शांति स्थापित करके पुलिस विश्राम कर रही थी। बेचारे रात-दिन दौड़ते-दौड़ते अधमरे हो गए थे।
गूदड़ ने लाठी टेकते हुए आकर समरकान्त के चरण छुए और बोले-अमर भैया का समाचार तो आपको मिला होगा। आजकल तो पुलिस का धावा है। हाकिम कहता है-बारह आने लेंगे, हम कहते हैं हमारे पास है ही नहीं, दें कहां से- बहुत-से लोग तो गांव छोड़कर भाग गए। जो हैं, उनकी दसा आप देख ही रहे हैं। मुन्नी बहू को पकड़कर जेल में डाल दिया। आप ऐसे समय में आए कि आपकी कुछ खातिर भी नहीं कर सकते।
समरकान्त मदरसे के चबूतरे पर बैठ गए और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे-इन ग़रीबों की क्या सहायता करें- क्रोध की एक ज्वाला-सी उठकर रोम-रोम में व्याप्त हो गई, पूछा-यहां कोई अफसर भी तो होगा-
गूदड़ ने कहा-हां, अफसर तो एक नहीं, पच्चीस हैं जी। सबसे बड़ा अफसर तो वही मियांजी हैं, जो अमर भैया के दोस्त हैं।
'तुम लोगों ने उस लगंगे से पूछा नहीं-मारपीट क्यों करते हो, क्या यह भी क़ानून है?'
गूदड़ ने सलोनी की मड़ैया की ओर देखकर कहा-भैया, कहते तो सब कुछ हैं, जब कोई सुने सलीम साहब ने खुद अपने हाथों से हंटर मारे। उनकी बेदर्दी देखकर पुलिस वाले भी दांतों तले उंगली दबाते थे। सलोनी मेरी भावज लगती है। उसने उनके मुंह पर थूक दिया था। यह उसे न करना चाहिए था। पागलपन था और क्या- मियां साहब आग हो गए और बुढ़िया को इतने हंटर जमाए कि भगवान् ही बचाए तो बचे। मुर्दा वह भी है अपनी धुन की पक्की, हरेक हंटर पर गाली देती थी। जब बेदम होकर गिर पड़ी, तब जाकर उसका मुंह बंद हुआ। भैया उसे काकी-काकी करते रहते थे। कहीं से आवें, सबसे पहले काकी के पास जाते थे। उठने लायक़ होती तो ज़रूर-से-ज़रूर आती।
आत्मानन्द ने चिढ़कर कहा-अरे तो अब रहने भी दे, क्या सब आज ही कह डालोगे- पानी मंगवाओ, आप हाथ-मुंह धोएं, जरा आराम करने दो, थके-मांदे आ रहे हैं-वह देखो, सलोनी को भी खबर मिल गई, लाठी टेकती चली आ रही है ।
सलोनी ने पास आकर कहा-कहां हो देवरजी, सावन में आते तो तुम्हारे साथ झूला झूलती, चले हो कातिक में जिसका ऐसा सरदार और ऐसा बेटा, उसे किसका डर और किसकी चिंता तुम्हें देखकर सारा दु:ख भूल गई, देवरजी ।
समरकान्त ने देखा-सलोनी की सारी देह सूज उठी है और साड़ी पर लहू के दाग़ सूखकर कत्थई हो गए हैं। मुंह सूजा हुआ है। इस मुरदे पर इतना क्रोध उस पर विद्वान् बनता है उनकी आंखों में ख़ून उतर आया। हिंसा-भावना मन में प्रचंड हो उठी। निर्बल क्रोध और चाहे कुछ न कर सके, भगवान् की खबर ज़रूर लेता है। तुम अंतर्यामी हो, सर्वशक्तिमान हो, दीनों के रक्षक हो और तुम्हारी आंखों के सामने यह अंधेर इस जगत् का नियंता कोई नहीं है। कोई दयामय भगवान् सृष्टि का कर्ता होता, तो यह अत्याचार न होता अच्छे सर्वशक्तिमान हो। क्यों नरपिशाचों के हृदय में नहीं पैठ जाते, या वहां तुम्हारी पहुंच नहीं है- कहते हैं, यह सब भगवान् की लीला है। अच्छी लीला है अगर तुम्हें इस व्यापार की खबर नहीं है, तो फिर सर्वव्यापी क्यों कहलाते हो-
समरकान्त धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी थे। धर्म-ग्रंथों का अधययन किया था। भगवद्गीता का नित्य पाठ किया करते थे, पर इस समय वह सारा धर्मज्ञान उन्हें पाखंड-सा प्रतीत हुआ।
वह उसी तरह उठ खड़े हुए और पूछा-सलीम तो सदर में होगा-
आत्मानन्द ने कहा-आजकल तो यहीं पड़ाव है। डाक बंगले में ठहरे हुए हैं।
'मैं जरा उनसे मिलूंगा।'
'अभी वह क्रोध में हैं, आप मिलकर क्या कीजिएगा। आपको भी अपशब्द कह बैठेंगे।'
'यही देखने तो जाता हूं कि मनुष्य की पशुता किस सीमा तक जा सकती है।'
'तो चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूं।'
गूदड़ बोल उठे-नहीं-नहीं, तुम न जइयो, स्वामीजी भैया, यह हैं तो संन्यासी और दया के अवतार, मुर्दा क्रोध में भी दुर्वासा मुनि से कम नहीं हैं। जब हाकिम साहब सलोनी को मार रहे थे, तब चार आदमी इन्हें पकड़े हुए थे, नहीं तो उस बखत मियां का ख़ून चूस लेते, चाहे पीछे से फाँसी हो जाती। गांव भर की मरहम-पट्टी इन्हीं के सुपुर्द है।
सलोनी ने समरकान्त का हाथ पकड़कर कहा-मैं चलूंगी तुम्हारे साथ देवरजी। उसे दिखा दूंगी कि बुढ़िया तेरी छाती पर मूंग दलने को बैठी हुई है तू मारनहार है, तो कोई तुझसे बड़ा राखनहार भी है। जब तक उसका हुकम न होगा, तू क्या मार सकेगा ।
भगवान् में उसकी यह अपार निष्ठा देखकर समरकान्त की आँखें सजल हो गईं, सोचा -मुझसे तो ये मूर्ख ही अच्छे जो इतनी पीड़ा और दु:ख सहकर भी तुम्हारा ही नाम रटते हैं। बोले-नहीं भाभी, मुझे अकेले जाने दो। मैं अभी उनसे दो-दो बातें करके लौट आता हूं।
सलोनी लाठी संभाल रही थी कि समरकान्त चल पड़े। तेजा और दुरजन आगे-आगे डाक बंगले का रास्ता दिखाते हुए चले।
तेजा ने पूछा-दादा, जब अमर भैया छोटे-से थे, तो बड़े शैतान थे न-
समरकान्त ने इस प्रश्न का आशय न समझकर कहा-नहीं तो, वह तो लड़कपन ही से बड़ा सुशील था।
दुरजन ताली बजाकर बोला-अब कहो तेजू, हारे कि नहीं- दादा, हमारा-इनका यह झगड़ा है कि यह कहते हैं, जो लड़के बचपन में बड़े शैतान होते हैं, वही बड़े होकर सुशील हो जाते हैं, और मैं कहता हूं, जो लड़कपन में सुशील होते हैं, वही बड़े होकर भी सुशील रहते हैं। जो बात आदमी में है नहीं वह बीच में कहां से आ जाएगी-
तेजा ने शंका की-लड़के में तो अकल भी नहीं होती, जवान होने पर कहां से आ जाती है- अखुवे में तो ख़ाली दो दल होते हैं, फिर उनमें डाल-पात कहां से आ जाते हैं- यह कोई बात नहीं। मैं ऐसे कितने ही नामी आदमियों के उदाहरण दे सकता हूं, जो बचपन में बड़े पाजी थे, पर आगे चलकर महात्मा हो गए।
समरकान्त को बालकों के इस तर्क में बड़ा आनंद आया। मधयस्थ बनकर दोनों ओर कुछ सहारा देते जाते थे। रास्ते में एक जगह कीचड़ भरा हुआ था। समरकान्त के जूते कीचड़ में फंसकर पांव से निकल गए। इस पर बड़ी हंसी हुई।
सामने से पांच सवार आते दिखाई दिए। तेजा ने एक पत्थर उठाकर एक सवार पर निशाना मारा। उसकी पगड़ी ज़मीन पर गिर पड़ी। वह तो घोड़े से उतरकर पगड़ी उठाने लगा, बाकी चारों घोड़े दौड़ाते हुए समरकान्त के पास आ पहुंचे।
तेजा दौड़कर एक पेड़ पर चढ़ गया। दो सवार उसके पीछे दौड़े और नीचे से गालियां देने लगे। बाकी तीन सवारों ने समरकान्त को घेर लिया और एक ने हंटर निकालकर ऊपर उठाया ही था कि एकाएक चौंक पड़ा और बोला-अरे आप हैं सेठजी आप यहां कहां-
सेठजी ने सलीम को पहचानकर कहा-हां-हां, चला दो हंटर, रूक क्यों गए- अपनी कारगुजारी दिखाने का ऐसा मौक़ा फिर कहां मिलेगा- हाकिम होकर ग़रीबों पर हंटर न चलाया, तो हाकिमी किस काम की-
सलीम लज्जित हो गया-आप इन लौंडों की शरारत देख रहे हैं, फिर भी मुझी को कसूरवार ठहराते हैं। उसने ऐसा पत्थर मारा कि इन दारोगाजी की पगड़ी गिर गई। खैरियत हुई कि आंख में न लगा।
समरकान्त आवेश में औचित्य को भूलकर बोले-ठीक तो है, जब उस लौंडे ने पत्थर चलाया, जो अभी नादान है, तो फिर हमारे हाकिम साहब जो विद्या के सफर हैं, क्या हंटर भी न चलाएं - कह दो दोनों सवार पेड़ पर चढ़ जाएं, लौंडे को ढकेल दें, नीचे गिर पड़े। मर जाएगा, तो क्या हुआ, हाकिम से बेअदबी करने की सज़ा तो पा जाएगा।
सलीम ने सफाई दी-आप तो अभी आए हैं, आपको क्या खबर यहां के लोग कितने मुफसिद हैं- एक बुढ़िया ने मेरे मुंह पर थूक दिया, मैंने जब्त किया, वरना सारा गांव जेल में होता।
समरकान्त यह बमगोला खाकर भी परास्त न हुए-तुम्हारे जब्त की बानगी देखे आ रहा हूं बेटा, अब मुंह न खुलवाओ। वह अगर जाहिल बेसमझ औरत थी, तो तुम्हीं ने आलिम-गाजिल होकर कोन-सी शराफत की- उसकी सारी देह लहू-लुहान हो रही है। शायद बचेगी भी नहीं। कुछ याद है कितने आदमियों के अंग-भंग हुए- सब तुम्हारे नाम की दुआएं दे रहे हैं। अगर उनसे रुपये न वसूल होते थे, तो बेदख़ल कर सकते थे, उनकी फसल कुर्क कर सकते थे। मार-पीट का क़ानून कहां से निकला-
'बेदख़ली से क्या नतीजा, ज़मीन का यहां कौन ख़रीददार है- आखिर सरकारी रकम कैसे वसूल की जाए?'
'तो मार डालो सारे गांव को, देखो कितने रुपये वसूल होते हैं। तुमसे मुझे ऐसी आशा न थी, मगर शायद हुकूमत में कुछ नशा होता है।'
'आपने अभी इन लोगों की बदमाशी नहीं देखी। मेरे साथ आइए, तो मैं सारी दास्तान सुनाऊं आप इस वक्त आ कहां से रहे हैं?'
समरकान्त ने अपने लखनऊ आने और सुखदा से मिलने का हाल कहा। फिर मतलब की बात छेड़ी-अमर तो यहीं होगा- सुना, तीसरे दरजे में रखा गया है।
अंधेरा ज्यादा हो गया था। कुछ ठंड भी पड़ने लगी थी। चार सवार तो गांव की तरफ चले गए, सलीम घोड़े की रास थामे हुए पांव-पांव समरकान्त के साथ डाक बंगले चला।
कुछ दूर चलने के बाद समरकान्त बोले-तुमने दोस्त के साथ खूब दोस्ती निभाई। जेल भेज दिया, अच्छा किया, मगर कम-से-कम उसे कोई अच्छा दरजा तो दिला देते। मगर हाकिम ठहरे, अपने दोस्त की सिफारिश कैसे करते-
सलीम ने व्यथित कंठ से कहा-आप तो लालाजी, मुझी पर सारा गुस्सा उतार रहे हैं। मैंने तो दूसरा दरजा दिला दिया था मगर अमर खुद मामूली कैदियों के साथ रहने पर ज़िद करने लगे, तो मैं क्या करता- मेरी बदनसीबी है कि यहां आते ही मुझे वह सब कुछ करना पड़ा, जिससे मुझे नफरत थी।
डाक बंगले पहुंचकर सेठजी एक आरामकुरसी पर लेट गए और बोले-तो मेरा यहां आना व्यर्थ हुआ। जब वह अपनी खुशी से तीसरे दरजे में है, तो लाचारी है। मुलाकात हो जाएगी-
सलीम ने उत्तर दिया-मैं आपके साथ चलूंगा। मुलाकात की तारीख तो अभी नहीं आई है, मगर जेल वाले शायद मान जाएं। हां, अंदेशा अमर की तरफ से है। वह किसी किस्म की रिआयत नहीं चाहते।
उसने जरा मुस्कराकर कहा-अब तो आप भी इन कामों में शरीक होने लगे-
सेठजी ने नम्रता से कहा-अब मैं इस उम्र में क्या काम करूंगा। बूढ़े दिल में जवानी का जोश कहां से आए- बहू जेल में है, लड़का जेल में है, शायद लड़की भी जेल की तैयारी कर रही है और मैं चैन से खाता-पीता हूं। आराम से सोता हूं। मेरी औलाद मेरे पापों का प्रायश्चित कर रही है, मैंने ग़रीबों का कितना ख़ून चूसा है, कितने घर तबाह किए हैं। उसकी याद करके खुद शर्मिंदा हो जाता हूं। अगर जवानी में समझ आ गई होती, तो कुछ अपना सुधार करता। अब क्या करूंगा- बाप संतान का गुरु होता है। उसी के पीछे लड़के चलते हैं। मुझे अपने लड़कों के पीछे चलना पड़ा। मैं धर्म की असलियत को न समझकर धर्म के स्वांग को धर्म समझे हुए था। यही मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल थी। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि दुनिया का कैंडा ही बिगड़ा हुआ है। जब तक हमें जायदाद पैदा करने की धुन रहेगी, हम धर्म से कोसों दूर रहेंगे। ईश्वर ने संसार को क्यों इस ढंग पर लगाया, यह मेरी समझ में नहीं आता। दुनिया को जायदाद के मोह-बंधन से छुड़ाना पड़ेगा, तभी आदमी आदमी होगा, तभी दुनिया से पाप का नाश होगा।
सलीम ऐसी ऊंची बातों में न पड़ना चाहता था। उसने सोचा-जब मैं भी इनकी तरह ज़िंदगी के सुख भोग लूंगा तो मरते-समय फिलासफर बन जाऊंगा। दोनों कई मिनट तक चुपचाप बैठे रहे। फिर लालाजी स्नेह से भरे स्वर में बोले-नौकर हो जाने पर आदमी को मालिक का हुक्म मानना ही पड़ता है। इसकी मैं बुराई नहीं करता। हां, एक बात कहूंगा। जिन पर तुमने जुल्म किया है, चलकर उनके आंसू पोंछ दो। यह ग़रीब आदमी थोड़ी-सी भलमनसी से काबू में आ जाते हैं। सरकार की नीति तो तुम नहीं बदल सकते, लेकिन इतना तो कर सकते हो कि किसी पर बेजा सख्ती न करो।
सलीम ने शरमाते हुए कहा-लोगों की गुस्ताखी पर गुस्सा आ जाता है, वरना मैं तो खुद नहीं चाहता कि किसी पर सख्ती करूं। फिर सिर पर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है। लगान न वसूल हुआ, तो मैं कितना नालायक़ समझा जाऊंगा-
समरकान्त ने तेज होकर कहा-तो बेटा, लगान तो न वसूल होगा, हां आदमियों के ख़ून से हाथ रंग सकते हो।
'यही तो देखना है।'
'देख लेना। मैंने भी इसी दुनिया में बाल सफेद किए हैं। हमारे किसान अफसरों की सूरत से कांपते थे, लेकिन जमाना बदल रहा है। अब उन्हें भी मान-अपमान का खयाल होता है। तुम मुर्ति में बदनामी उठा रहे हो।'
'अपना फर्ज अदा करना बदनामी है, तो मुझे उसकी परवाह नहीं।'
समरकान्त ने अफसरी के इस अभिमान पर हंसकर कहा-फर्ज में थोड़ी-सी मिठास मिला देने से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, हां, बन बहुत कुछ जाता है, यह बेचारे किसान ऐसे ग़रीब हैं कि थोड़ी-सी हमदर्दी करके उन्हें अपना ग़ुलाम बना सकते हो। हुकूमत वह बहुत झेल चुके। अब भलमनसी का बरताब चाहते हैं। जिस औरत को तुमने हंटरों से मारा, उसे एक बार माता कहकर उसकी गरदन काट सकते थे। यह मत समझो कि तुम उन पर हुकूमत करने आए हो। यह समझो कि उनकी सेवा करने आए हो मान लिया, तुम्हें तलब सरकार से मिलती है, लेकिन आती तो है इन्हीं की गांठ से। कोई मूर्ख हो तो उसे समझाऊं। तुम भगवान् की कृपा से आप ही विद्वान् हो। तुम्हें क्या समझाऊं- तुम पुलिस वालों की बातों में आ गए। यही बात है न-
सलीम भला यह कैसे स्वीकार करता-
लेकिन समरकान्त अड़े रहे-मैं इसे नहीं मान सकता। तुम तो किसी से नजर नहीं लेना चाहते, लेकिन जिन लोगों की रोटियां नोच-खसोट पर चलती हैं उन्होंने ज़रूर तुम्हें भरा होगा। तुम्हारा चेहरा कहे देता है कि तुम्हें ग़रीबों पर जुल्म करने का अफ़सोस है। मैं यह तो नहीं चाहता कि आठ आने से एक पाई भी ज्यादा वसूल करो, लेकिन दिलजोई के साथ तुम बेशी भी वसूल कर सकते हो। जो भूखों मरते हैं चिथड़े पहनकर और पुआल में सोकर दिन काटते हैं उनसे एक पैसा भी दबाकर लेना अन्याय है। जब हम और तुम दो-चार घंटे आराम से काम करके आराम से रहना चाहते हैं, जायदादें बनाना चाहते हैं, शौक़ की चीज़ें जमा करते हैं, तो क्या यह अन्याय नहीं है कि जो लोग स्त्री-बच्चों समेत अठारह घंटे रोज काम करें, वह रोटी-कपड़े को तरसें- बेचारे ग़रीब हैं, बेजबान हैं, अपने को संगठित नहीं कर सकते, इसलिए सभी छोटे-बड़े उन पर रोब जमाते हैं। मगर तुम जैसे सहृदय और विद्वान् लोग भी वही करने लगें, जो मामूली अमले करते हैं, तो अफ़सोस होता है। अपने साथ किसी को मत लो, मेरे साथ चलो। मैं जिम्मा लेता हूं कि कोई तुमसे गुस्ताखी न करेगा। उनके जख्म पर मरहम रख दो, मैं इतना ही चाहता हूं। जब तक जिएंगे, बेचारे तुम्हें याद करेंगे। सद्भाव में सम्मोहन का-सा असर होता है।
सलीम का हृदय अभी इतना काला न हुआ था कि उस पर कोई रंग ही न चढ़ता। सकुचाता हुआ बोला-मेरी तरफ से आप ही को कहना पड़ेगा।
'हां-हां, यह सब मैं कह दूंगा, लेकिन ऐसा न हो, मैं उधर चलूं, इधर तुम हंटरबाजी शुरू करो।'
'अब ज्यादा शर्मिंदा न कीजिए।'
'तुम यह तजवीज क्यों नहीं करते कि असामियों की हालत की जांच की जाय। आँखें बंद करके हुक्म मानना तुम्हारा काम नहीं। पहले अपना इत्मीनान तो कर लो कि तुम बेइंसाफी तो नहीं कर रहे हो- तुम खुद ऐसी रिपोर्ट क्यों नहीं लिखते- मुमकिन है हुक्कम इसे पसंद न करें, लेकिन हक के लिए कुछ नुकसान उठाना पड़े, तो क्या चिंता?'
सलीम को यह बातें न्याय-संगत जान पड़ीं। खूंटे की पतली नोक ज़मीन के अंदर पहुंच चुकी थी। बोला-इस बुजुर्गाना सलाह के लिए आपका एहसानमंद हूं और उस पर अमल करने की कोशिश करूंगा।
भोजन का समय आ गया था। सलीम ने पूछा-आपके लिए क्या खाना बनवाऊं-
'जो चाहे बनवाओ, पर इतना याद रखो कि मैं हिन्दू हूं और पुराने जमाने का आदमी हूं। अभी तक छूत-छात को मानता हूं।'
'आप छूत-छात को अच्छा समझते हैं?'
'अच्छा तो नहीं समझता पर मानता हूं।'
'तब मानते ही क्यों हैं?'
'इसलिए कि संस्कारों को मिटाना मुश्किल है। अगर ज़रूरत पड़े, तो मैं तुम्हारा मल उठाकर फेंक दूंगा लेकिन तुम्हारी थाली में मुझसे न खाया जाएगा।'
'मैं तो आज आपको अपने साथ बैठाकर खिलाऊंगा।'
'तुम प्याज, मांस, अंडे खाते हो। मुझसे तो उन बरतनों में खाया ही न जाएगा।'
'आप यह सब कुछ न खाइएगा मगर मेरे साथ बैठना पड़ेगा। मैं रोज साबुन लगाकर नहाता हूं।'
'बरतनों को खूब साफ़ करा लेना।'
'आपका खाना हिन्दू बनाएगा, साहब बस, एक मेज पर बैठकर खा लेना।'
'अच्छा खा लूंगा, भाई मैं दूध और घी खूब खाता हूं।'
सेठजी तो संध्योपासन करने बैठे, फिर पाठ करने लगे। इधर सलीम के साथ के एक हिन्दू कांस्टेबल ने पूरी, कचौरी, हलवा, खीर पकाई। दही पहले ही से रखा हुआ था। सलीम खुद आज यही भोजन करेगा। सेठजी संध्या करके लौटे, तो देखा दो कंबल बिछे हुए हैं और थालियां रखी हुई हैं।
सेठजी ने खुश होकर कहा-यह तुमने बहुत अच्छा इन्तज़ाम किया।
सलीम ने हंसकर कहा-मैंने सोचा, आपका धर्म क्यों लूं, नहीं एक ही कंबल रखता।
'अगर यह खयाल है, तो तुम मेरे कंबल पर आ जाओ। नहीं, मैं ही आता हूं।'
वह थाली उठाकर सलीम के कंबल पर आ बैठे। अपने विचार में आज उन्होंने अपने जीवन का सबसे महान् त्याग किया। सारी संपत्ति दान देकर भी उनका हृदय इतना गौरवान्वित न होता।
सलीम ने चुटकी ली-अब तो आप मुसलमान हो गए।
सेठजी बोले-मैं मुसलमान नहीं हुआ। तुम हिन्दू हो गए।