ग़बन उपन्यास भाग-17
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नौ दिन गुजर गए। रमा रोज़ प्रातः दफ़्तर जाता और चिराग जले लौटता। वह रोज़ यही आशा लेकर जाता कि आज कोई बडा शिकार फंस जाएगा। पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही नहीं। पहले दिन की तरह फिर कभी भाग्य का सूर्य न चमका। फिर भी उसके लिए कुछ कम श्रेय की बात नहीं थी कि नौ दिनों में ही उसने सौ रुपये जमा कर लिए थे। उसने एक पैसे का पान भी न खाया था। जालपा ने कई बार कहा, चलो कहीं घूम आवें, तो उसे भी उसने बातों में ही टाला। बस, कल का दिन और था। कल आकर रतन कंगन मांगेगी तो उसे वह क्या जवाब देगा। दफ़्तर से आकर वह इसी सोच में बैठा हुआ था। क्या वह एक महीना-भर के लिए और न मान जायगी। इतने दिन वह और न बोलती तो शायद वह उससे उऋण हो जाता। उसे विश्वास था कि मैं उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करके राज़ी कर लूंगा। अगर उसने ज़िद की तो मैं उससे कह दूंगा, सर्राफ रुपये नहीं लौटाता। सावन के दिन थे, अंधेरा हो चला था, रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दो-चार बाज़ियां खेल आऊं, मगर बादलों को देख-देख रूक जाता था। इतने में रतन आ पहुंची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही थी। आज वह लड़ने के लिए घर से तैयार होकर आई है और मुरव्वत और मुलाहजे की कल्पना को भी कोसों दूर रखना चाहती है। जालपा ने कहा, ‘ तुम खूब आई। आज मैं भी ज़रा तुम्हारे साथ घूम आऊंगी। इन्हें काम के बोझ से आजकल सिर उठाने की भी फुर्सत नहीं है।’
रतन ने निष्ठुरता से कहा, ‘मुझे आज तो बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की याद दिलाने आई हूं।’
रमा उसका लटका हुआ मुंह देखकर ही मन में सहम रहा था। किसी तरह उसे प्रसन्न करना चाहता था। बडी तत्परता से बोला, ‘जी हां, खूब याद है, अभी सर्राफ की दुकान से चला आ रहा हूं। रोज़ सुबह-शाम घंटे-भर हाज़िरी देता हूं, मगर इन चीज़ों में समय बहुत लगता है। दाम तो कारीगरी के हैं। मालियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए हैं, पर शायद अभी एक हीने से कम में चीज़ तैयार न हो, पर होगी लाजवाबब जी ख़ुश हो जायगा।’
पर रतन ज़रा भी न पिघली। तिनककर बोली, ‘अच्छा! अभी महीना-भर और लगेगा। ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने में पूरी न हुई! आप उससे कह दीजिएगा मेरे रुपये वापस कर दे। आशा के कंगन देवियां पहनती होंगी, मेरे लिए ज़रूरत नहीं!’
रमानाथ—‘एक महीना न लगेगा, मैं जल्दी ही बनवा दूंगा। एक महीना तो मैंने अंदाजन कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गई है। कई दिन तो नगीने तलाश करने में लग गए।’
रतन—‘मुझे कंगन पहनना ही नहीं है, भाई! आप मेरे रुपये लौटा दीजिए, बस, सुनार मैंने भी बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कंगन मेरे पास होंगे, पर ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी। ’
धांधली के शब्द पर रमा तिलमिला उठा, ‘धांधली नहीं, मेरी हिमाकत कहिए। मुझे क्या ज़रूरत थी कि अपनी जान संकट में डालता। मैंने तो पेशगी रुपये इसलिए दे दिए कि सुनार खुश होकर जल्दी से बना देगा। अब आप रुपये मांग रही हैं, सर्राफ रुपये नहीं लौटा सकता।’
रतन ने तीव्र नजरों से देखकर कहा,क्यों, रुपये क्यों न लौटाएगा? ’
रमानाथ—‘इसलिए कि जो चीज़ आपके लिए बनाई है, उसे वह कहां बेचता गिरेगा। संभव है, साल-छह महीने में बिक सके। सबकी पसंद एक-सी तो नहीं होती।’
रतन ने त्योरियां चढ़ाकर कहा,’मैं कुछ नहीं जानती, उसने देर की है, उसका दंड भोगे। मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रुपये। आपसे यदि सर्राफ से दोस्ती है, आप मुलाहिजे और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए।नहीं आपको शर्म आती हो तो उसका नाम बता दीजिए, मैं पता लगा लूंगी। वाह, अच्छी दिल्लगी! दुकान नीलाम करा दूंगी। जेल भिजवा दूंगी। इन बदमाशों से लडाई के बगैर काम नहीं चलता।’ रमा अप्रतिभ होकर ज़मीन की ओर ताकने लगा। वह कितनी मनहूस घड़ी थी, जब उसने रतन से रुपये लिए! बैठे-बिठाए विपत्ति मोल ली। जालपा ने कहा, ‘सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सर्राफ की दुकान पर ले जाते,चीज़ आंखों से देखकर इन्हें संतोष हो जायगा।’ रतन—‘मैं अब चीज़ लेना ही नहीं चाहती।’
रमा ने कांपते हुए कहा,’अच्छी बात है, आपको रुपये कल मिल जायंगे।’
रतन—‘कल किस वक्त?’
रमानाथ—‘दफ़्तर से लौटते वक्त लेता आऊंगा।’
रतन—‘पूरे रुपये लूंगी। ऐसा न हो कि सौ-दो सौ रुपये देकर टाल दे।’
रमानाथ—‘कल आप अपने सब रुपये ले जाइएगा।’
यह कहता हुआ रमा मरदाने कमरे में आया, और रमेश बाबू के नाम एक रूक्का लिखकर गोपी से बोला,इसे रमेश बाबू के पास ले जाओ। जवाब लिखाते आना। फिर उसने एक दूसरा रूक्का लिखकर विश्वम्भरदास को दिया कि माणिकदास को दिखाकर जवाब लाए। विश्वम्भर ने कहा,’पानी आ रहा है।’
रमानाथ—‘तो क्या सारी दुनिया बह जाएगी! दौड़ते हुए जाओ।’
विश्वम्भर—‘और वह जो घर पर न मिलें?’
रमानाथ—‘मिलेंगे। वह इस वक्त क़हीं नहीं जाते।’
आज जीवन में पहला अवसर था कि रमा ने दोस्तों से रुपये उधार मांगे। आग्रह और विनय के जितने शब्द उसे याद आये, उनका उपयोग किया। उसके लिए यह बिलकुल नया अनुभव था। जैसे पत्र आज उसने लिखे, वैसे ही पत्र उसके पास कितनी ही बार आ चुके थे। उन पत्रों को पढ़कर उसका हृदय कितना द्रवित हो जाता था, पर विवश होकर उसे बहाने करने पड़ते थे। क्या रमेश बाबू भी बहाना कर जायंगे- उनकी आमदनी ज़्यादा है, ख़र्च कम, वह चाहें तो रुपये का इंतजाम कर सकते हैं। क्या मेरे साथ इतना सुलूक भी न करेंगे? अब तक दोनों लङके लौटकर नहीं आए। वह द्वार पर टहलने लगा। रतन की मोटर अभी तक खड़ी थी। इतने में रतन बाहर आई और उसे टहलते देखकर भी कुछ बोली नहीं। मोटर पर बैठी और चल दी। दोनों कहां रह गए अब तक! कहीं खेलने लगे होंगे। शैतान तो हैं ही। जो कहीं रमेश रुपये दे दें, तो चांदी है। मैंने दो सौ नाहक मांगे, शायद इतने रुपये उनके पास न हों। ससुराल वालों की नोच-खसोट से कुछ रहने भी तो नहीं पाता। माणिक चाहे तो हज़ार-पांच सौ दे सकता है, लेकिन देखा चाहिए, आज परीक्षा हो जायगी। आज अगर इन लोगों ने रुपये न दिए, तो फिर बात भी न पूछूंगा। किसी का नौकर नहीं हूं कि जब वह शतरंज खेलने को बुलायें तो दौडाचला जाऊं। रमा किसी की आहट पाता, तो उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगता था। आखिर विश्वम्भर लौटा, माणिक ने लिखा था,आजकल बहुत तंग हूं। मैं तो तुम्हीं से मांगने वाला था। रमा ने पुर्ज़ा फाड़कर फेंक दिया। मतलबी कहीं का! अगर सब-इंस्पेक्टर ने मांगा होता तो पुर्ज़ा देखते ही रुपये लेकर दौड़े जाते। ख़ैर, देखा जायगा। चुंगी के लिए माल तो आयगा ही। इसकी कसर तब निकल जायगी। इतने में गोपी भी लौटा। रमेश ने लिखा था,मैंने अपने जीवन में दोचार नियम बना लिए हैं। और बडी कठोरता से उनका पालन करता हूं। उनमें से एक नियम यह भी है कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूंगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेकिन कुछ दिनों में हो जाएगा कि जहां मित्रों से लेन-देन शुरू हुआ, वहां मनमुटाव होते देर नहीं लगती। तुम मेरे प्यारे दोस्त हो, मैं तुमसे दुश्मनी नहीं करना चाहता। इसलिए मुझे क्षमा करो। रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और कुर्सी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बांधकर देखने लगा। दीपक उसे दिखाई देता था, इसमें संदेह है। इतनी ही एकाग्रता से वह कदाचित आकाश की काली, अभेध मेघ-राशि की ओर ताकता! मन की एक दशा वह भी होती है, जब आँखें खुली होती हैं और कुछ नहीं सूझता, कान खुले रहते हैं और कुछ नहीं सुनाई देता।
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