ग़बन उपन्यास भाग-41
रतन पत्रों में जालपा को तो ढाढ़स देती रहती थी पर अपने विषय में कुछ न लिखती थी। जो आप ही व्यथित हो रही हो, उसे अपनी व्यथाओं की कथा क्या सुनाती! वही रतन जिसने रुपयों की कभी कोई हैसियत न समझी, इस एक ही महीने में रोटियों को भी मुहताज हो गई थी। उसका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी न हो, पर उसे किसी बात का अभाव न था। मरियल घोड़े पर सवार होकर भी यात्रा पूरी हो सकती है अगर सड़क अच्छी हो, नौकर-चाकर, रुपय-पैसे और भोजन आदि की सामग्री साथ हो घोडाभी तेज़ हो, तो पूछना ही क्या! रतन की दशा उसी सवार की-सी थी। उसी सवार की भांति वह मंदगति से अपनी जीवन-यात्रा कर रही थी। कभी-कभी वह घोड़े पर झुंझलाती होगी, दूसरे सवारों को उड़े जाते देखकर उसकी भी इच्छा होती होगी कि मैं भी इसी तरह उड़ती, लेकिन वह दुखी न थी, अपने नसीबों को रोती न थी। वह उस गाय की तरह थी, जो एक पतली-सी पगहिया के बंधन में पड़कर, अपनी नाद के भूसे-खली में मगन रहती है। सामने हरे-हरे मैदान हैं, उसमें सुगंधमय घासें लहरा रही हैं, पर वह पगहिया तुडाकर कभी उधार नहीं जाती। उसके लिए उस पगहिया और लोहे की जंजीर में कोई अंतर नहीं। यौवन को प्रेम की इतनी क्षुधा नहीं होती, जितनी आत्म-प्रदर्शन की। प्रेम की क्षुधा पीछे आती है। रतन को आत्मप्रदर्शन के सभी उपाय मिले हुए थे। उसकी युवती आत्मा अपने ऋंगार और प्रदर्शन में मग्न थी। हंसी-विनोद, सैर-सपाटा, खाना-पीना, यही उसका जीवन था, जैसा प्रायद्य सभी मनुष्यों का होता है। इससे गहरे जल में जाने की न उसे इच्छा थी, न प्रयोजनब संपन्नता बहुत कुछ मानसिक व्यथाओं को शांत करती है। उसके पास अपने दुद्यखों को भुलाने के कितने ही ढंग हैं, सिनेमा है, थिएटर है, देश-भ्रमण है, ताश है, पालतू जानवर हैं, संगीत है, लेकिन विपन्नता को भुलाने का मनुष्य के पास कोई उपाय नहीं, इसके सिवा कि वह रोए, अपने भाग्य को कोसे या संसार से विरक्त होकर आत्म-हत्या कर ले। रतन की तकदीर ने पलटा खाया था। सुख का स्वप्न भंग हो गया था और विपन्नता का कंकाल अब उसे खडा घूर रहा था। और यह सब हुआ अपने ही हाथों!
पंडितजी उन प्राणियों में थे, जिन्हें मौत की फ़िक्र नहीं होती। उन्हें किसी तरह यह भ्रम हो गया था कि दुर्बल स्वास्थ्य के मनुष्य अगर पथ्य और विचार से रहें, तो बहुत दिनों तक जी सकते हैं। वह पथ्य और विचार की सीमा के बाहर कभी न जाते। फिर मौत को उनसे क्या दुश्मनी थी, जो ख्वामख्वाह उनके पीछे पड़ती। अपनी वसीयत लिख डालने का ख़याल उन्हें उस वक्त आया, जब वह मरणासन्न हुए, लेकिन रतन वसीयत का नाम सुनते ही इतनी शोकातुर, इतनी भयभीत हुई कि पंडितजी ने उस वक्त टाल जाना ही उचित समझाब तब से फिर उन्हें इतना होश न आया कि वसीयत लिखवाते। पंडितजी के देहावसान के बाद रतन का मन इतना विरक्त हो गया कि उसे किसी बात की भी सुध-बुध न रही। यह वह अवसर था, जब उसे विशेष रूप से सावधन रहना चाहिए था। इस भांति सतर्क रहना चाहिए था, मानो दुश्मनों ने उसे घेर रक्खा हो, पर उसने सब कुछ मणिभूषण पर छोड़ दिया और उसी मणिभूषण ने धीरे-धीरे उसकी सारी संपत्ति अपहरण कर ली। ऐसे-ऐसे षडयंत्र रचे कि सरला रतन को उसके कपट-व्यवहार का आभास तक न हुआ। फंदा जब ख़ूब कस गया, तो उसने एक दिन आकर कहा, ‘आज बंगला ख़ाली करना
होगा। मैंने इसे बेच दिया है। ‘
रतन ने ज़रा तेज़ होकर कहा, ‘मैंने तो तुमसे कहा था कि मैं अभी बंगला न बेचूंगी। ‘
मणिभूषण ने विनय का आवरण उतार फेंका और त्योरी चढ़ाकर बोला, ‘आपमें बातें भूल जाने की बुरी आदत है। इसी कमरे में मैंने आपसे यह ज़िक्र किया था और आपने हामी भरी थी। जब मैंने बेच दिया, तो आप यह स्वांग खडा करती हैं! बंगला आज ख़ाली करना होगा और आपको मेरे साथ चलना होगा। ‘
‘मैं अभी यहीं रहना चाहती हूं।’
‘मैं आपको यहां न रहने दूंगा। ‘
‘मैं तुम्हारी लौंडी नहीं हूं।’
‘आपकी रक्षा का भार मेरे ऊपर है। अपने कुल की मर्यादा-रक्षा के लिए मैं आपको अपने साथ ले जाऊंगा। ‘
रतन ने होंठ चबाकर कहा, ‘मैं अपनी मर्यादा की रक्षा आप कर सकती हूं। तुम्हारी मदद की ज़रूरत नहीं। मेरी मर्ज़ी के बगैर तुम यहां कोई चीज़ नहीं बेच सकते। ‘
मणिभूषण ने वज्र-सा मारा, ‘आपका इस घर पर और चाचाजी की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं। वह मेरी संपत्ति है। आप मुझसे केवल गुज़ारे का सवाल कर सकती हैं। ‘
रतन ने विस्मित होकर कहा, ‘तुम कुछ भंग तो नहीं खा गए हो? ‘
मणिभूषण ने कठोर स्वर में कहा, ‘मैं इतनी भंग नहीं खाता कि बेसिरपैर की बातें करने लगूंब आप तो पढ़ी-लिखी हैं, एक बडे वकील की धर्मपत्नी थीं। क़ानून की बहुत-सी बातें जानती होंगी। सम्मिलित परिवार में विधवा का अपने पुरुष की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। चाचाजी और मेरे पिताजी में कभी अलगौझा नहीं हुआ। चाचाजी यहां थे, हम लोग इंदौर में थे, पर इससे
यह नहीं सिद्ध होता कि हममें अलगौझा था। अगर चाचा अपनी संपत्ति आपको देना चाहते, तो कोई वसीयत अवश्य लिख जाते और यद्यपिवह वसीयत क़ानून के अनुसार कोई चीज़ न होती, पर हम उसका सम्मान करते। उनका कोई वसीयत न करना साबित कर रहा है कि वह क़ानून के साधरण व्यवहार में कोई बाधा न डालना चाहते थे। आज आपको बंगला ख़ाली करना होगा। मोटर और अन्य वस्तुएं भी नीलाम कर दी जाएंगी। आपकी इच्छा हो, मेरे साथ चलें या रहें।
यहां रहने के लिए आपको दस-ग्यारह रुपये का मकान काफ़ी होगा। गुज़ारे के लिए पचास रुपये महीने का प्रबंध मैंने कर दिया है। लेना-देना चुका लेने के बाद इससे ज़्यादा की गुंजाइश ही नहीं। ‘
रतन ने कोई जवाब न दिया। कुछ देर वह हतबुद्धि-सी बैठी रही, फिर मोटर मंगवाई और सारे दिन वकीलों के पास दौड़ती फिरी। पंडितजी के कितने ही वकील मित्र थे। सभी ने उसका वृत्तांत सुनकर खेद प्रकट किया और वकील साहब के वसीयत न लिख जाने पर हैरत करते रहे। अब उसके लिए एक ही उपाय था। वह यह सिद्ध करने की चेष्टा करे कि वकील साहब और उनके भाई में अलहदगी हो गई थी। अगर यह सिद्ध हो गया और सिद्ध हो जाना बिलकुल आसान था, तो रतन उस संपत्ति की स्वामिनी हो जाएगी। अगर वह यह सिद्ध न कर सकी, तो उसके लिए कोई चारा न था। अभागिनी रतन लौट आई। उसने निश्चय किया, जो कुछ मेरा नहीं है, उसे लेने के लिए मैं झूठ का आश्रय न लूंगी। किसी तरह नहीं। मगर ऐसा क़ानून बनाया किसने? क्या स्त्री इतनी नीच, इतनी तुच्छ, इतनी नगण्य है? क्यों? दिन-भर रतन चिंता में डूबी, मौन बैठी रही। इतने दिनों वह अपने को इस घर की स्वामिनी समझती रही। कितनी बडी भूल थी। पति के जीवन में जो लोग उसका मुंह ताकते थे, वे आज उसके भाग्य के विधाता हो गए! यह घोर अपमान रतन-जैसी मानिनी स्त्री के लिए असह्य था। माना, कमाई पंडितजी की थी, पर यह गांव तो उसी ने ख़रीदा था, इनमें से कई मकान तो उसके सामने ही बने, उसने यह एक क्षण के लिए भी न ख़याल किया था कि एक दिन यह जायदाद मेरी जीविका का आधार होगी। इतनी भविष्य-चिंता वह कर ही न सकती थी। उसे इस जायदाद के ख़रीदने में, उसके संवारने और सजाने में वही आनंद आता था, जो माता अपनी संतान को फलते-फलते देखकर पाती है। उसमें स्वार्थ का भाव न था, केवल अपनेपन का गर्व था, वही ममता थी, पर पति की आँखें बंद होते ही उसके पाले और गोद के खेलाए बालक भी उसकी गोद से छीन लिए गए। उसका उन पर कोई अधिकार नहीं! अगर वह जानती कि एक दिन यह कठिन समस्या उसके सामने आएगी, तो वह चाहे रुपये को लुटा देती या दान कर देती, पर संपत्ति की कील अपनी छाती पर न गाड़ती। पंडितजी की ऐसी कौन बहुत बडी आमदनी थी। क्या गर्मियों में वह शिमले न जा सकती थी? क्या दो-चार और नौकर न रक्खे जा सकते थे? अगर वह गहने ही बनवाती, तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी, पर उसने इन बातों को कभी उचित सीमा से आगे न बढ़ने दिया। केवल यही स्वप्न देखने के लिए! यही स्वप्न! इसके सिवा और था ही क्या! जो कल उसका था उसकी ओर आज आँखें उठाकर वह देख भी नहीं सकती! कितना महंगा था वह स्वप्न! हां, वह अब अनाथिनी थी। कल तक दूसरों को भीख देती थी, आज उसे ख़ुद भीख मांगनी पड़ेगी। और कोई आश्रय नहीं! पहले भी वह अनाथिनी थी, केवल भ्रम-वश अपने को स्वामिनी समझ रही थी। अब उस भ्रम का सहारा भी नहीं रहा!
सहसा विचारों ने पलटा खाया। मैं क्यों अपने को अनाथिनी समझ रही हूं? क्यों दूसरों के द्वार पर भीख मांगूं? संसार में लाखों ही स्त्रियां मेहनत-मज़दूरी करके जीवन का निर्वाह करती हैं। क्या मैं कोई काम नहीं कर सकती? मैं कपडा क्या नहीं सी सकती? किसी चीज़ की छोटी-मोटी दूकान नहीं रख सकती? लङके भी पढ़ा सकती हूं। यही न होगा, लोग हंसेंगे, मगर मुझे उस हंसी की क्या परवा! वह मेरी हंसी नहीं है, अपने समाज की हंसी है।
शाम को द्वार पर कई ठेले वाले आ गए। मणिभूषण ने आकर कहा, ‘चाचीजी, आप जो-जो चीज़ें कहें लदवाकर भिजवा दूं। मैंने एक मकान ठीक कर लिया है।’
रतन ने कहा, ‘मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं। न तुम मेरे लिए मकान लो। जिस चीज़ पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मैं हाथ से भी नहीं छू सकती। मैं अपने घर से कुछ लेकर नहीं आई थी। उसी तरह लौट जाऊंगी।’
मणिभूषण ने लज्जित होकर कहा,’आपका सब कुछ है, यह आप कैसे कहती हैं कि आपका कोई अधिकार नहीं। आप वह मकान देख लें। पंद्रह रुपया किराया है। मैं तो समझता हूं आपको कोई कष्ट न होगा। जो-जो चीज़ें आप कहें, मैं वहां पहुंचा दूं।’
रतन ने व्यंग्यमय आंखों से देखकर कहा, ‘तुमने पंद्रह रुपये का मकान मेरे लिए व्यर्थ लिया! इतना बडा मकान लेकर मैं क्या करूंगी! मेरे लिए एक कोठरी काफ़ी है, जो दो रुपये में मिल जायगी। सोने के लिए ज़मीन है ही। दया का बोझ सिर पर जितना कम हो, उतना ही अच्छा!
मणिभूषण ने बडे विनम्र भाव से कहा, ‘आख़िर आप चाहती क्या हैं?उसे कहिए तो!’
रतन उत्तेजित होकर बोली, ‘मैं कुछ नहीं चाहती। मैं इस घर का एक तिनका भी अपने साथ न ले जाऊंगी। जिस चीज़ पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मेरे लिए वैसी ही है जैसी किसी गैर आदमी की चीज़ब मैं दया की भिखारिणी न बनूंगी। तुम इन चीज़ों के अधिकारी हो, ले जाओ। मैं ज़रा भी बुरा नहीं मानती! दया की चीज़ न जबरदस्ती ली जा सकती है, न जबरदस्ती दी जा सकती है। संसार में हज़ारों विधवाएं हैं, जो मेहनत-मजूरी करके अपना निर्वाह कर रही हैं। मैं भी वैसे ही हूं। मैं भी उसी तरह मजूरी करूंगी और अगर न कर सकूंगी, तो किसी गडढे में डूब मईंगी। जो अपना पेट भी न पाल सके, उसे जीते रहने का, दूसरों का बोझ बनने का कोई हक नहीं है।‘ यह कहती हुई रतन घर से निकली और द्वार की ओर चली। मणिभूषण ने उसका रास्ता रोककर कहा, ‘अगर आपकी इच्छा न हो, तो मैं बंगला अभी न बेचूं।‘
रतन ने जलती हुई आंखों से उसकी ओर देखा। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। आंसुओं के उमड़ते हुए वेग को रोककर बोली, ‘ मैंने कह दिया, इस घर की किसी चीज़ से मेरा नाता नहीं है। मैं किराए की लौंडी थी। लौडी का घर से क्या संबंध है! न जाने किस पापी ने यह क़ानून बनाया था। अगर ईश्वर कहीं है और उसके यहां कोई न्याय होता है, तो एक दिन उसी के सामने उस पापी से पूछूंगी, क्या तेरे घर में मां-बहनें न थीं? तुझे उनका अपमान करते लज्जा न आई? अगर मेरी ज़बान में इतनी ताकत होती कि सारे देश में उसकी आवाज़ पहुंचती, तो मैं सब स्त्रियों से कहती,बहनो, किसी सम्मिलित परिवार में विवाह मत करना और अगर करना तो जब तक अपना घर अलग न बना लो, चैन की नींद मत सोना। यह मत समझो कि तुम्हारे पति के पीछे उस घर में तुम्हारा मान के साथ पालन होगा। अगर तुम्हारे पुरुष ने कोई लङका नहीं छोडा, तो तुम अकेली रहो चाहे परिवार में, एक ही बात है। तुम अपमान और मजूरी से नहीं बच सकतीं। अगर तुम्हारे पुरुष ने कुछ छोडा है तो अकेली रहकर तुम उसे भोग सकती हो, परिवार में रहकर तुम्हें उससे हाथ धोना पड़ेगा। परिवार तुम्हारे लिए फूलों की सेज नहीं, कांटों की शय्या है, तुम्हारा पार लगाने वाली नौका नहीं, तुम्हें निगल जाने वाला जंतु।‘
संध्या हो गई थी। गर्द से भरी हुई फागुन की वायु चलने वालों की आंखों में धूल झोंक रही थी। रतन चादर संभालती सड़क पर चली जा रही थी। रास्ते में कई परिचित स्त्रियों ने उसे टोका, कई ने अपनी मोटर रोक ली और उसे बैठने को कहा, पर रतन को उनकी सहृदयता इस समय बाण-सी लग रही थी। वह तेज़ी से क़दम उठाती हुई जालपा के घर चली जा रही थी। आज उसका वास्तविक जीवन आरंभ हुआ था।
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