ग़बन उपन्यास भाग-32
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षोडशी के बाद से जालपा ने रतन के घर आना-जाना कम कर दिया था। केवल एक बार घंटे-दो घंटे के लिए चली जाया करती थी। इधर कई दिनों से मुंशी दयानाथ को ज्वर आने लगा था। उन्हें ज्वर में छोड़कर कैसे जाती। मुंशीजी को ज़रा भी ज्वर आता, तो वह बक-झक करने लगते थे। कभी गाते, कभी रोते, कभी यमदूतों को अपने सामने नाचते देखते। उनका जी चाहता कि सारा घर मेरे पास बैठा रहे, संबंधियों को भी बुला लिया जाय, जिसमें वह सबसे अंतिम भेंट कर लें। क्योंकि इस बीमारी से बचने की उन्हें आशा न थी। यमराज स्वयं उनके सामने विमान लिये खड़े थे। जागेयेश्वरी और सब कुछ कर सकती थी, उनकी बक-झक न सुन सकती थी। ज्योंही वह रोने लगते, वह कमरे से निकल जाती। उसे भूत-बाधा का भ्रम होता था। मुंशीजी के कमरे में कई समाचार-पत्रों के गाइल थे। यही उन्हें एक व्यसन था। जालपा का जी वहां बैठे-बैठे घबडाने लगता, तो इन गाइलों को उलटपलटकर देखने लगती। एक दिन उसने एक पुराने पत्र में शतरंज का एक नक्शा देखा, जिसे हल कर देने के लिए किसी सज्जन ने पुरस्कार भी रक्खा था। उसे
ख़याल आया कि जिस ताक पर रमानाथ की बिसात और मुहरे रक्खे हुए हैं उस पर एक किताब में कई नक्शे भी दिए हुए हैं। वह तुरंत दौड़ी हुई ऊपर गई और वह कापी उठा लाईब यह नक्शा उस कापी में मौजूद था, और नक्शा ही न था, उसका हल भी दिया हुआ था। जालपा के मन में सहसा यह विचार चमक पडा, इस नक्शे को किसी पत्र में छपा दूं तो कैसा हो! शायद उनकी
निगाह पड़ जाय। यह नक्शा इतना सरल तो नहीं है कि आसानी से हल हो जाय। इस नगर में जब कोई उनका सानी नहीं है, तो ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं हो सकती, जो यह नक्शा हल कर सकेंब कुछ भी हो, जब उन्होंने यह नक्शा हल किया है, तो इसे देखते ही फिर हल कर लेंगे। जो लोग पहली बार देखेंगे, उन्हें दो-एक दिन सोचने में लग जायंगे। मैं लिख दूंगी कि जो सबसे पहले हल कर ले, उसी को पुरस्कार दिया जाय। जुआ तो है ही। उन्हें रुपये न भी मिलें, तो भी इतना तो संभव है ही कि हल करने वालों में उनका नाम भी हो कुछ पता लग जायगा। कुछ भी न हो, तो रुपये ही तो जायंगे। दस रुपये का पुरस्कार रख दूं। पुरस्कार कम होगा, तो कोई बडा खिलाड़ी इधर ध्यान न देगा। यह बात भी रमा के हित की ही होगी। इसी उधेड़-बुन में वह आज रतन से न मिल सकी। रतन दिनभर तो उसकी राह देखती रही। जब वह शाम को भी न गई, तो उससे न रहा गया।
आज वह पति-शोक के बाद पहली बार घर से निकली। कहीं रौनक न थी, कहीं जीवन न था, मानो सारा नगर शोक मना रहा है। उसे तेज़ मोटर चलाने की धुन थी, पर आज वह तांगे से भी कम जा रही थी। एक वृद्धा को सडक के किनारे बैठे देखकर उसने मोटर रोक दिया और उसे चार आने दे दिए। कुछ आगे और बढ़ी, तो दो कांस्टेबल एक कैदी को लिये जा रहे थे। उसने मोटर रोककर एक कांस्टेबल को बुलाया और उसे एक रुपया देकर कहा,इस कैदी को मिठाई खिला देना। कांस्टेबल ने सलाम करके रुपया ले लिया। दिल में ख़ुश हुआ, आज किसी भाग्यवान का मुंह देखकर उठा था।
जालपा ने उसे देखते ही कहा, ‘क्षमा करना बहन, आज मैं न आ सकी। दादाजी को कई दिन से ज्वर आ रहा है।’
रतन ने तुरंत मुंशीजी के कमरे की ओर क़दम उठाया और पूछा, ‘यहीं हैं न? तुमने मुझसे न कहा।’
मुंशीजी का ज्वर इस समय कुछ उतरा हुआ था। रतन को देखते ही बोले, ‘बडा दुःख हुआ देवीजी, मगर यह तो संसार है। आज एक की बारी है, कल दूसरे की बारी है। यही चल-चलाव लगा हुआ है। अब मैं भी चला। नहीं बच सकता बडी प्यास है, जैसे छाती में कोई भटठी जल रही हो फुंका जाता हूं। कोई अपना नहीं होता। बाईजी, संसार के नाते सब स्वार्थ के नाते हैं। आदमी अकेला हाथ पसारे एक दिन चला जाता है। हाय-हाय! लड़का था वह भी हाथ से निकल गया! न जाने कहां गया। आज होता, तो एक पानी देने वाला तो होता। यह दो लौंडे हैं, इन्हें कोई फ़िक्र ही नहीं, मैं मर जाऊं या जी जाऊं। इन्हें तीन वक्त खाने को चाहिए, तीन दट्ठ पानी पीने को, बस और किसी काम के नहीं। यहां बैठते दोनों का दम घुटता है। क्या करूं। अबकी न बचूंगा।’
रतन ने तस्कीन दी, ‘यह मलेरिया है, दो-चार दिन में आप अच्छे हो जायंगे। घबडाने की कोई बात नहीं।’
मुंशीजी ने दीन नजरों से देखकर कहा, ‘बैठ जाइए बहूजी, आप कहती हैं, आपका आशीर्वाद है, तो शायद बच जाऊं, लेकिन मुझे तो आशा नहीं है। मैं भी ताल ठोके यमराज से लड़ने को तैयार बैठा हूं। अब उनके घर मेहमानी खाऊंगा। अब कहां जाते हैं बचकर बचा! ऐसा-ऐसा रगेदूं, कि वह भी याद करें। लोग कहते हैं, वहां भी आत्माएं इसी तरह रहती हैं। इसी तरह वहां भी कचहरियां हैं, हाकिम हैं, राजा हैं, रंक हैं। व्याख्यान होते हैं, समाचार-पत्र छपते हैं। फिर क्या चिंता है। वहां भी अहलमद हो जाऊंगा। मज़े से अख़बार पढ़ा करूंगा।’
रतन को ऐसी हंसी छूटी कि वहां खड़ी न रह सकी। मुंशीजी विनोद के भाव से वे बातें नहीं कर रहे थे। उनके चेहरे पर गंभीर विचार की रेखा थी। आज डेढ़-दो महीने के बाद रतन हंसी, और इस असामयिक हंसी को छिपाने के लिए कमरे से निकल आई। उसके साथ ही जालपा भी बाहर आ गई। रतन ने अपराधी नजरों से उसकी ओर देखकर कहा, ‘दादाजी ने मन में क्या समझा होगा। सोचते होंगे, मैं तो जान से मर रहा हूं और इसे हंसी सूझती है। अब वहां न जाऊंगी, नहीं ऐसी ही कोई बात फिर कहेंगे, तो मैं बिना हंसे न रह सकूंगी। देखो तो आज कितनी बे-मौक़ा हंसी आई है। वह अपने मन को इस उच्छृंखलता के लिए धिक्कारने लगी। जालपा ने
उसके मन का भाव ताड़कर कहा,मुझे भी अक्सर इनकी बातों पर हंसी आ जाती है, बहन! इस वक्त तो इनका ज्वर कुछ हल्का है। जब ज़ोर का ज्वर होता है तब तो यह और भी ऊल-जलूल बकने लगते हैं। उस वक्त हंसी रोकनी मुश्किल हो जाती है। आज सबेरे कहने लगे,मेरा पेट भक हो गया,मेरा पेट भक हो गया। इसकी रट लगा दी। इसका आशय क्या था, न मैं समझ सकी,
न अम्मां समझ सकीं, पर वह बराबर यही रटे जाते थे,पेट भक हो गया! पेट भक हो गया! आओ कमरे में चलें।‘
रतन—‘मेरे साथ न चलोगी?’
जालपा—‘आज तो न चल सयंगी, बहन।‘
‘कल आओगी?’
‘कह नहीं सकती। दादा का जी कुछ हल्का रहा, तो आऊंगी।’
‘नहीं भाई, ज़रूर आना। तुमसे एक सलाह करनी है।’
‘क्या सलाह है?’
‘मन्नी कहते हैं, यहां अब रहकर क्या करना है, घर चलो। बंगले को बेच देने को कहते हैं।’
जालपा ने एकाएक ठिठककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘यह तो तुमने बुरी ख़बर सुनाई, बहन! मुझे इस दशा में तुम छोड़कर चली जाओगी? मैं न जाने दूंगी! मन्नी से कह दो, बंगला बेच दें, मगर जब तक उनका कुछ पता न चल जायगा। मैं तुम्हें न छोड़ूंगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं, मुझे एक-एक पल पहाड़ हो गया। मैं न जानती थी कि मुझे तुमसे इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायद मैं मर ही जाऊं। नहीं बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, अभी जाने
का नाम न लेना।‘
रतन की भी आँखेंं भर आई। बोली, ‘मुझसे भी वहां न रहा जायगा, सच कहती हूं। मैं तो कह दूंगी, मुझे नहीं जाना है।‘ जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई और उसके गले में हाथ डालकर बोली, ‘कसम खाओ कि मुझे छोड़कर न जाओगी।‘
रतन ने उसे अंकवार में लेकर कहा, ‘लो, कसम खाती हूं, न जाऊंगी। चाहे इधर की दुनिया उधार हो जाय। मेरे लिए वहां क्या रक्खा है। बंगला भी क्यों बेचूं, दो-ढाई सौ मकानों का किराया है। हम दोनों के गुज़र के लिए काफ़ी है। मैं आज ही मन्नी से कह दूंगी,मैं न जाऊंगी।‘
सहसा फर्श पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा,यह शतरंज किसके साथ खेल रही थीं?
जालपा ने शतरंज के नक्शे पर अपने भाग्य का पांसा फेंकने की जो बात सोची थी, वह सब उससे कह सुनाई,मन में डर रही थी कि यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यर्थ न समझे, पागलपन न ख़याल करे, लेकिन रतन सुनते ही बाग़-बाग़ हो गई। बोली,दस रुपये तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रुपये कर दो। रुपये मैं देती हूं।
जालपा ने शंका की, ‘लेकिन इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे शतरंजबाज़ों ने मैदान में क़दम रक्खा तो?’
रतन ने दृढ़ता से कहा,कोई हरज नहीं। बाबूजी की निगाह पड़ गई, तो वह इसे ज़रूर हल कर लेंगे और मुझे आशा है कि सबसे पहले उन्हीं का नाम आवेगा। कुछ न होगा, तो पता तो लग ही जायगा। अख़बार के दफ़्तर में तो उनका पता आ ही जायगा। तुमने बहुत अच्छा उपाय सोच निकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा फल होगा, मैं अब मन की प्रेरणा की कायल हो गई हूं। जब मैं इन्हें लेकर कलकत्ता चली थी, उस वक्त मेरा मन कह रहा था, यहां
जाना अच्छा न होगा।‘
जालपा—‘तो तुम्हें आशा है?‘
‘पूरी! मैं कल सबेरे रुपये लेकर आऊंगी।’
‘तो मैं आज ख़त लिख रक्खूंगी। किसके पास भेजूं? वहां का कोई प्रसिद्ध पत्र होना चाहिए।’
‘वहां तो ‘प्रजा-मित्र’ की बडी चर्चा थी। पुस्तकालयों में अक्सर लोग उसी को पढ़ते नज़र आते थे। ‘
‘तो ‘प्रजा-मित्र’ ही को लिखूंगी, लेकिन रुपये हड़प कर जाय और नक्शा न छापे तो क्या हो?’
‘होगा क्या, पचास रुपये ही तो ले जाएगा। दमड़ी की हंडिया खोकर कुत्तों की जात तो पहचान ली जायगी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता जो लोग देशहित के लिए जेल जाते हैं, तरह-तरह की धौंस सहते हैं, वे इतने नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ आधा घंटे के लिए चलो तो तुम्हें इसी वक्त रुपये दे दूं।’
जालपा ने नीमराजी होकर कहा, ‘इस वक्त क़हां चलूं। कल ही आऊंगी।’
उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे, ‘बहू! बहू!’
जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतन बाहर जा रही थी कि जागेश्वरी पंखा लिये अपने को झलती हुई दिखाई पड़ गई। रतन ने पूछा, ‘तुम्हें गर्मी लग रही है अम्मांजी? मैं तो ठंड के मारे कांप रही हूं। अरे! तुम्हारे पांवों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है? क्या आटा पीस रही थीं?’
जागेश्वरी ने लज्जित होकर कहा, ‘हां, वैद्य जी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है। बाज़ार में हाथ का आटा कहां मयस्सर- मुहल्ले में कोई पिसनहारी नहीं मिलती। मजूरिनें तक चक्की से आटा पिसवा लेती हैं। मैं तो एक आना सेर देने को राज़ी हूं, पर कोई मिलती ही नहीं।’
रतन ने अचंभे से कहा, ‘तुमसे चक्की चल जाती है?’
जागेश्वरी ने झेंप से मुस्कराकर कहा,’कौन बहुत था। पाव-भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी, बहू पीसने जा रही थी, लेकिन फिर मुझे उनके पास बैठना पड़ता। मुझे रात-भर चक्की पीसना गौं है, उनके पास घड़ी-भर बैठना गौं नहीं।
रतन जाकर जांत के पास एक मिनट खड़ी रही, फिर मुस्कराकर माची पर बैठ गई और बोली, ‘तुमसे तो अब जांत न चलता होगा, मांजी! लाओ थोडासा गेहूं मुझे दो, देखूं तो।’
जागेश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा, ‘अरे नहीं बहू, तुम क्या पीसोगी!चलो यहां से।’
रतन ने प्रमाण दिया, ‘मैंने बहुत दिनों तक पीसा है, मांजीब जब मैं अपने घर थी, तो रोज़ पीसती थी। मेरी अम्मां, लाओ थोडा-सा गेहूं।’
‘हाथ दुखने लगेगा। छाले पड़ जाएंगे।’
‘कुछ नहीं होगा मांजी, आप गेहूं तो लाइए।’
जागेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा, ‘गेहूं घर में नहीं हैं। अब इस वक्त बाज़ार से कौन लावे।’
‘अच्छा चलिए, मैं भंडारे में देखूं। गेहूं होगा कैसे नहीं।’
रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतन अंदर चली गई और हांडियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हांडी में गेहूं निकल आए। बडी खुश हुई। बोली,देखो मांजी, निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर रही थीं। उसने एक टोकरी में थोडा-सा गेहूं निकाल लिया और ख़ुश-ख़ुश चक्की पर जाकर पीसने लगी। जागेश्वरी ने जाकर जालपा से कहा, ‘बहू, वह जांत पर बैठी गेहूं पीस रही हैं। उठाती हूं, उठतीं ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे।
जालपा ने मुंशीजी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा, ‘यह तुमने क्या ग़ज़ब किया, अम्मांजी! सचमुच, कोई देख ले तो नाक ही कट जाय! चलिए, ज़रा देखूं।’
जागेश्वरी ने विवशता से कहा, ‘क्या करूं, मैं तो समझा के हार गई, मानतीं ही नहीं।’
जालपा ने जाकर देखा, तो रतन गेहूं पीसने में मग्न थी। विनोद के स्वाभाविक आनंद से उसका चेहरा खिला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं। उसके बलिष्ठ हाथों में जांत लट्टू के समान नाच रहा था।
जालपा ने हंसकर कहा, ‘ओ री, आटा महीन हो, नहीं पैसे न मिलेंगे।’
रतन को सुनाई न दिया। बहरों की भांति अनिश्चित भाव से मुस्कराई।
जालपा ने और ज़ोर से कहा, ‘आटा खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाएगी।’ रतन ने भी हंसकर कहा, जितना महीन कहिए उतना महीन पीस दूं, बहूजी। पिसाई अच्छी मिलनी चाहिए।
जालपा—‘मोले सेर।’
रतन—‘मोले सेर सही।’
जालपा—‘मुंह धो आओ। धोले सेर मिलेंगे।’
रतन—‘मैं यह सब पीसकर उठूंगी। तुम यहां क्यों खड़ी हो?’
जालपा—‘आ जाऊं, मैं भी खिंचा दूं।‘
रतन—‘जी चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊं!’
जालपा—‘अकेले कैसे गाओगी! (जागेश्वरी से) अम्मां आप ज़रा दादाजी के पास बैठ जायं, मैं अभी आती हूं।’
जालपा भी जांत पर जा बैठी और दोनों जांत का यह गीत गाने लगीं।
‘मोहि जोगिन बनाके कहां गए रे जोगिया।’
दोनों के स्वर मधुर थे। जांत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साथ साज़ का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जातीं, तो जांत का स्वर माना कंठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के हृदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनंद से पूर्ण थे? न शोक का भार था, न वियोग का दुःख। जैसे दो चिडियां प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।
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