ग़बन उपन्यास भाग-18
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संध्या हो गई थी, म्युनिसिपैलिटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कर्मचारी एक-एक करके जा रहे थे। मेहतर कमरों में झाड़ू लगा रहा था। चपरासियों ने भी जूते पहनना शुरू कर दिया था। खोंचेवाले दिनभर की बिक्री के पैसे गिन रहे थे। पर रमानाथ अपनी कुर्सी पर बैठा रजिस्टर लिख रहा था। आज भी वह प्रातःकाल आया था, पर आज भी कोई बडा शिकार न फंसा, वही दस रुपये मिलकर रह गए। अब अपनी आबरू बचाने का उसके पास और क्या उपाय था! रमा ने रतन को झांसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था कि रतन की यह अधीरता केवल इसलिए है कि शायद उसके रुपये मैंने ख़र्च कर दिए। अगर उसे मालूम हो जाए कि उसके रुपये तत्काल मिल सकते हैं, तो वह शांत हो जाएगी। रमा उसे रुपये से भरी हुई थैली दिखाकर उसका संदेह मिटा देना चाहता था। वह खजांची साहब के चले जाने की राह देख रहा था। उसने आज जान-बूझकर देर की थी। आज की आमदनी के आठ सौ रुपये उसके पास थे। इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था। खजांची ठीक चार बजे उठा। उसे क्या ग़रज़ थी कि रमा से आज की आमदनी मांगता। रुपये गिनने से ही छुट्टी मिली। दिनभर वही लिखते-लिखते और रुपये गिनते-गिनते बेचारे की कमर दु:ख रही थी। रमा को जब मालूम हो गया कि खजांची साहब दूर निकल गए होंगे, तो उसने रजिस्टर बंद कर दिया और चपरासी से बोला, ‘थैली उठाओ। चलकर जमा कर आएं।’
चपरासी ने कहा, ‘खजांची बाबू तो चले गए!’
रमा ने आँखें गाड़कर कहा, ‘खजांची बाबू चले गए! तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं- अभी कितनी दूर गए होंगे?’
चपरासी—‘सड़क के नुक्कड़ तक पहुंचे होंगे।’
रमानाथ—‘यह आमदनी कैसे जमा होगी?’
चपरासी—‘हुकुम हो तो बुला लाऊं?’
रमानाथ—‘अजी, जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें आधे रास्ते से बुलाने जाओगे। हो तुम भी निरे बछिया के ताऊब आज ज़्यादा छान गए थे क्या? ख़ैर, रुपये इसी दराज़ में रखे रहेंगे। तुम्हारी ज़िम्मेदारी रहेगी।’
चपरासी—‘नहीं बाबू साहब, मैं यहां रुपया नहीं रखने दूंगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती। कहीं रुपये उठ जायं, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊं। सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहां।’
रमानाथ—‘तो फिर ये रुपये कहां रक्खूं?’
चपरासी—‘हुज़ूर, अपने साथ लेते जाएं।’
रमा तो यह चाहता ही था। एक इक्का मंगवाया, उस पर रुपयों की थैली रक्खी और घर चला। सोचता जाता था कि अगर रतन भभकी में आ गई, तो क्या पूछना! कह दूंगा, दो-ही-चार दिन की कसर है। रुपये सामने देखकर उसे तसल्ली हो जाएगी।
जालपा ने थैली देखकर पूछा,क्या कंगन न मिला?’
रमानाथ—‘अभी तैयार नहीं था, मैंने समझा रुपये लेता चलूं जिसमें उन्हें तस्कीन हो जाय।
जालपा—‘क्या कहा सर्राफ ने?’
रमानाथ—‘कहा क्या, आज-कल करता है। अभी रतन देवी आइ नहीं?’
जालपा—‘आती ही होगी, उसे चैन कहां?’
जब चिराग जले तक रतन न आई, तो रमा ने समझा अब न आएगी। रुपये आल्मारी में रख दिए और घूमने चल दिया। अभी उसे गए दस मिनट भी न हुए होंगे कि रतन आ पहुंची और आते-ही-आते बोली,कंगन तो आ गए होंगे?’
जालपा—‘हां आ गए हैं, पहन लो! बेचारे कई दफा सर्राफ के पास गए। अभागा देता ही नहीं, हीले-हवाले करता है।’
रतन—‘कैसा सर्राफ है कि इतने दिन से हीले-हवाले कर रहा है। मैं जानती कि रुपये झमेले में पड़ जाएंगे, तो देती ही क्यों। न रुपये मिलते हैं, न कंगन मिलता है!’
रतन ने यह बात कुछ ऐसे अविश्वास के भाव से कही कि जालपा जल उठी। गर्व से बोली,आपके रुपये रखे हुए हैं, जब चाहिए ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं। आखिर जब सर्राफ देगा, तभी तो लाएंगे?’
रतन—‘कुछ वादा करता है, कब तक देगा?’
जालपा—‘उसके वादों का क्या ठीक, सैकड़ों वादे तो कर चुका है।’
रतन—‘तो इसके मानी यह हैं कि अब वह चीज़ न बनाएगा?’
जालपा—‘जो चाहे समझ लो!’
रतन—‘तो मेरे रुपये ही दे दो, बाज आई ऐसे कंगन से।’
जालपा झमककर उठी, आल्मारी से थैली निकाली और रतन के सामने पटककर बोली, ‘ये आपके रुपये रखे हैं, ले जाइए।’
वास्तव में रतन की अधीरता का कारण वही था, जो रमा ने समझा था। उसे भ्रम हो रहा था कि इन लोगों ने मेरे रुपये ख़र्च कर डाले। इसीलिए वह बार-बार कंगन का तकाजा करती थी। रुपये देखकर उसका भ्रम शांत हो गया। कुछ लज्जित होकर बोली, ‘अगर दो-चार दिन में देने का वादा करता हो तो रुपये रहने दो।’
जालपा—‘मुझे तो आशा नहीं है कि इतनी जल्द दे दे। जब चीज़ तैयार हो जायगी तो रुपये मांग लिए जाएंगे।’
रतन—‘क्या जाने उस वक्त मेरे पास रुपये रहें या न रहें। रुपये आते तो दिखाई देते हैं, जाते नहीं दिखाई देते। न जाने किस तरह उड़ जाते हैं। अपने ही पास रख लो तो क्या बुरा?’ जालपा—‘तो यहां भी तो वही हाल है। फिर पराई रकम घर में रखना जोखिम की बात भी तो है। कोई गोलमाल हो जाए, तो व्यर्थ का दंड देना पड़े। मेरे ब्याह के चौथे ही दिन मेरे सारे गहने चोरी चले गए। हम लोग जागते ही रहे, पर न जाने कब आंख लग गई, और चोरों ने अपना काम कर लिया। दस हज़ार की चपत पड़ गई। कहीं वही दुर्घटना फिर हो जाय तो कहीं के न रहें।’
रतन—‘अच्छी बात है, मैं रुपये लिये जाती हूं; मगर देखना निश्चिन्त न हो जाना। बाबूजी से कह देना सर्राफ का पिंड न छोड़ें।’
रतन चली गई। जालपा खुश थी कि सिर से बोझ टला। बहुधा हमारे जीवन पर उन्हीं के हाथों कठोरतम आघात होता है, जो हमारे सच्चे हितैषी होते हैं। रमा कोई नौ बजे घूमकर लौटा, जालपा रसोई बना रही थी। उसे देखते ही बोली, ‘रतन आई थी, मैंने उसके सब रुपये दे दिए।’
रमा के पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक गई। आँखेंं फैलकर माथे पर जा पहुंचीं। घबराकर बोला, ‘क्या कहा, रतन को रुपये दे दिए? तुमसे किसने कहा था कि उसे रुपये दे देना?’
जालपा—‘उसी के रुपये तो तुमने लाकर रक्खे थे। तुम ख़ुद उसका इंतज़ार करते रहे। तुम्हारे जाते ही वह आई और कंगन मांगने लगी। मैंने झल्लाकर उसके रुपये फेंक दिए।
रमा ने सावधन होकर कहा, ‘उसने रुपये मांगे तो न थे?’
जालपा—‘मांगे क्यों नहीं। हां, जब मैंने दे दिए तो अलबत्ता कहने लगी, इसे क्यों लौटाती हो, अपने पास ही पडारहने दो। मैंने कह दिया, ऐसे शक्की मिज़ाज वालों का रुपया मैं नहीं रखती।’
रमानाथ—‘ईश्वर के लिए तुम मुझसे बिना पूछे ऐसे काम मत किया करो।’
जालपा—‘तो अभी क्या हुआ, उसके पास जाकर रुपये मांग लाओ, मगर अभी से रुपये घर में लाकर अपने जी का जंजाल क्यों मोल लोगे।’
रमा इतना निस्तेज हो गया कि जालपा पर बिगड़ने की भी शक्ति उसमें न रही। रूआंसा होकर नीचे चला गया और स्थिति पर विचार करने लगा। जालपा पर बिगड़ना अन्याय था। जब रमा ने साफ़ कह दिया कि ये रुपये रतन के हैं, और इसका संकेत तक न किया कि मुझसे पूछे बगैर रतन को रुपये मत देना, तो जालपा का कोई अपराध नहीं। उसने सोचा,इस समय झल्लाने और बिगड़ने से समस्या हल न होगी। शांत चित्त होकर विचार करने की आवश्यकता थी। रतन से रुपये वापस लेना अनिवार्य था। जिस समय वह यहां आई है, अगर मैं खुद मौजूद होता तो कितनी ख़ूबसूरती से सारी मुश्किल आसान हो जाती। मुझको क्या शामत सवार थी कि घूमने निकला! एक दिन न घूमने जाता, तो कौन मरा जाता था! कोई गुप्त शक्ति मेरा अनिष्ट करने पर उताई हो गई है। दस मिनट की अनुपस्थिति ने सारा खेल बिगाड़ दिया। वह कह रही थी कि रुपये रख लीजिए। जालपा ने ज़रा समझ से काम लिया होता तो यह नौबत काहे को आती। लेकिन फिर मैं बीती हुई बातें सोचने लगा। समस्या है, रतन से रुपये वापस कैसे लिए जाएं ।क्यों न चलकर कहूं, रुपये लौटाने से आप नाराज़ हो गई हैं। असल में मैं आपके लिए रुपये न लाया था। सर्राफ से इसलिए मांग लाया था, जिसमें वह चीज़ बनाकर दे दे। संभव है, वह खुद ही लज्जित होकर क्षमा मांगे और रुपये दे दे। बस इस वक्त वहां जाना चाहिए।
यह निश्चय करके उसने घड़ी पर नज़र डाली। साढ़े आठ बजे थे। अंधकार छाया हुआ था। ऐसे समय रतन घर से बाहर नहीं जा सकती। रमा ने साइकिल उठाई और रतन से मिलने चला।
रतन के बंगले पर आज बडी बहार थी। यहां नित्य ही कोई-न-कोई उत्सव, दावत, पार्टी होती रहती थी। रतन का एकांत नीरस जीवन इन विषयों की ओर उसी भांति लपकता था, जैसे प्यासा पानी की ओर लपकता है। इस वक्त वहां बच्चों का जमघट था। एक आम के वृक्ष में झूला पडा था, बिजली की बत्तियां जल रही थीं, बच्चे झूला झूल रहे थे और रतन खड़ी झुला रही थी। हू-हा मचा हुआ था। वकील साहब इस मौसम में भी ऊनी ओवरकोट पहने बरामदे में बैठे सिगार पी रहे थे। रमा की इच्छा हुई, कि झूले के पास जाकर रतन से बातें करे, पर वकील साहब को खड़े देखकर वह संकोच के मारे उधर न जा सका। वकील साहब ने उसे देखते ही हाथ बढ़ा दिया और बोले, ‘आओ रमा बाबू, कहो, तुम्हारे म्युनिसिपल बोर्ड की क्या खबरें हैं?’
रमा ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ‘कोई नई बात तो नहीं हुई।‘
वकील,--‘आपके बोर्ड में लड़कियों की अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव कब पास होगा? और कई बोडोऊ ने तो पास कर दिया। जब तक स्त्रियों की शिक्षा का काफ़ी प्रचार न होगा, हमारा कभी उद्धार न होगा। आप तो योरप न गए होंगे? ओह! क्या आज़ादी है, क्या दौलत है, क्या जीवन है, क्या उत्साह है! बस मालूम होता है, यही स्वर्ग है। और स्त्रियां भी सचमुच देवियां हैं। इतनी
हंसमुख, इतनी स्वच्छंद, यह सब स्त्री-शिक्षा का प्रसाद है! ‘
रमा ने समाचार-पत्रों में इन देशों का जो थोडा-बहुत हाल पढ़ा था, उसके आधार पर बोला,वहां स्त्रियों का आचरण तो बहुत अच्छा नहीं है।‘
वकील--‘नान्सेसं ! अपने-अपने देश की प्रथा है। आप एक युवती को किसी युवक के साथ एकांत में विचरते देखकर दांतों तले उंगली दबाते हैं। आपका अंप्तःकरण इतना मलिन हो गया है कि स्त्री-पुरुष को एक जगह देखकर आप संदेह किए बिना रह ही नहीं सकते, पर जहां लङके और लड़कियां एक साथ शिक्षा पाते हैं, वहां यह जाति-भेद बहुत महत्व की वस्तु नहीं रह जाती,आपस में स्नेह और सहानुभूति की इतनी बातें पैदा हो जाती हैं कि कामुकता का अंश बहुत थोडारह जाता है। यह समझ लीजिए कि जिस देश में स्त्रियों की जितनी अधिक स्वाधीनता है, वह देश उतना ही सभ्य है। स्त्रियों को कैद में, परदे में, या पुरुषों से कोसों दूर रखने का तात्पर्य यही निकलता है कि आपके यहां जनता इतनी आचार-भ्रष्ट है कि स्त्रियों का अपमान करने में ज़रा भी संकोच नहीं करती। युवकों के लिए राजनीति, धर्म, ललित-कला, साहित्य, दर्शन, इतिहास, विज्ञान और हज़ारों ही ऐसे विषय हैं, जिनके आधार पर वे युवतियों से गहरी दोस्ती पैदा कर सकते हैं। कामलिप्सा उन देशों के लिए आकर्षण का प्रधान विषय है, जहां लोगों की मनोवृत्तियां संकुचित रहती हैं। मैं सालभर योरप और अमरीका में रह चुका हूं। कितनी ही सुंदरियों के साथ मेरी दोस्ती थी। उनके साथ खेला हूं, नाचा भी हूं, पर कभी मुंह से ऐसा शब्द न निकलता था, जिसे सुनकर किसी युवती को लज्जा से सिर झुकाना पड़े, और फिर अच्छे और बुरे कहां नहीं हैं?’ रमा को इस समय इन बातों में कोई आनंद न आया, वह तो इस समय दूसरी ही चिंता में मग्न था। वकील साहब ने फिर कहा,जब तक हम स्त्री-पुरुषों को अबाध रूप से अपना-अपना मानसिक विकास न करने देंगे, हम अवनति की ओर खिसकते चले जाएंगे। बंधनों से समाज का पैर न बांधिए, उसके गले में कैदी की जंजीर न डालिए। विधवा-विवाह का प्रचार कीजिए, ख़ूब ज़ोरों से कीजिए, लेकिन यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि जब कोई अधेड़ आदमी किसी युवती
से ब्याह कर लेता है तो क्यों अख़बारों में इतना कुहराम मच जाता है। योरप में अस्सी बरस के बूढ़े युवतियों से ब्याह करते हैं, सत्तर वर्ष की वृद्धाएं युवकों से विवाह करती हैं, कोई कुछ नहीं कहता। किसी को कानोंकान ख़बर भी नहीं होती। हम बूढ़ों को मरने के पहले ही मार डालना चाहते हैं। हालांकि मनुष्य को कभी किसी सहगामिनी की ज़रूरत होती है तो वह बुढ़ापे में, जब उसे हरदम किसी अवलंब की इच्छा होती है, जब वह परमुखापेक्षी हो जाता है। रमा का ध्यान झूले की ओर था। किसी तरह रतन से दो-दो बातें करने का अवसर मिले। इस समय उसकी सबसे बडी यही कामना थी। उसका वहां जाना शिष्टाचार के विरुद्ध था। आख़िर उसने एक क्षण के बाद झूले की ओर देखकर कहा, ‘ये इतने लङके किधर से आ गए?’
वकील—‘रतन बाई को बाल-समाज से बडा स्नेह है। न जाने कहां?कहां से इतने लङके जमा हो जाते हैं। अगर आपको बच्चों से प्यार हो, तो जाइए! रमा तो यह चाहता ही था, चट झूले के पास जा पहुंचा। रतन उसे देखकर मुस्कराई और बोली, ‘इन शैतानों ने मेरी नाक में दम कर रक्खा है। झूले से इन सबों का पेट ही नहीं भरता। आइए, ज़रा आप भी बेगार कीजिए, मैं तो थक गई। यह कहकर वह पक्के चबूतरे पर बैठ गई। रमा झोंके देने लगा। बच्चों ने नया आदमी देखा, तो सब-के-सब अपनी बारी के लिए उतावले होने लगे। रतन के हाथों दो बारियां आ चुकी थीं? पर यह कैसे हो सकता था कि कुछ लङके तो तीसरी बार झूलें, और बाकी बैठे मुंह ताकें! दो उतरते तो चार झूले पर बैठ जाते। रमा को बच्चों से नाममात्र को भी प्रेम न था पर इस वक्त फंस गया था, क्या करता! आख़िर आधा घंटे की बेगार के बाद उसका जी ऊब गया। घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे। मतलब की बात कैसे छेड़े। रतन तो झूले में इतनी मग्न थी, मानो उसे रुपयों की सुध ही नहीं है। सहसा रतन ने झूले के पास जाकर कहा, ‘बाबूजी, मैं बैठती हूं, मुझे झुलाइए, मगर नीचे से नहीं, झूले पर खड़े होकर पेंग मारिए।’
रमा बचपन ही से झूले पर बैठते डरता था। एक बार मित्रों ने जबरदस्ती झूले पर बैठा दिया, तो उसे चक्कर आने लगा, पर इस अनुरोध ने उसे झूले पर आने के लिए मजबूर कर दिया। अपनी अयोग्यता कैसे प्रकट करे। रतन दो बच्चों को लेकर बैठ गई, और यह गीत गाने लगी,
कदम की डरिया झूला पड़ गयो री, राधा रानी झूलन आई।
रमा झूले पर खडा होकर पेंग मारने लगा, लेकिन उसके पांव कांप रहे थे, और दिल बैठा जाता था। जब झूला ऊपर से फिरता था, तो उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई तरल वस्तु उसके वक्ष में चुभती चली जा रही है,और रतन लड़कियों के साथ गा रही थी,
कदम की डरिया झूला पड़ गयो री, राधा रानी झूलन आई।
एक क्षण के बाद रतन ने कहा, ‘ज़रा और बढ़ाइए साहब, आपसे तो झूला बढ़ता ही नहीं।’
रमा ने लज्जित होकर और ज़ोर लगाया पर झूला न बढ़ा, रमा के सिर में चक्कर आने लगा।
रतन—‘आपको पेंग मारना नहीं आता, कभी झूला नहीं झूले?’
रमा ने झिझकते हुए कहा, ‘हां, इधर तो वर्षो से नहीं बैठा।’
रतन—‘तो आप इन बच्चों को संभालकर बैठिए, मैं आपको झुलाऊंगी।’
अगर उस डाल से न छू ले तो कहिएगा! रमा के प्राण सूख गए। बोला,आजतो बहुत देर हो गई है, फिर कभी आऊंगा। ’
रतन—‘अजी अभी क्या देर हो गई है, दस भी नहीं बजे, घबडाइए नहीं, अभी बहुत रात पड़ी है। खूब झूलकर जाइएगा। कल जालपा को लाइएगा, हम दोनों झूलेंगे।’
रमा झूले पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब गिरा, अब गिरा> वह लड़खडाता हुआ साइकिल की ओर चला और उस पर बैठकर तुरंत घर भागा। कुछ दूर तक उसे कुछ होश न रहा। पांव आप ही आप पैडल घुमाते जाते थे, आधी दूर जाने के बाद उसे होश आया। उसने साइकिल घुमा दी, कुछ दूर चला, फिर उतरकर सोचने लगा,आज संकोच में पड़कर कैसी बाज़ी हाथ से खोई, वहां से चुपचाप अपना-सा मुंह लिये लौट आया। क्यों उसके मुंह से आवाज़ नहीं निकली। रतन कुछ हौवा तो थी नहीं, जो उसे खा जाती। सहसा उसे याद आया, थैली में आठ सौ रुपये थे, जालपा ने झुंझलाकर थैली की थैली उसके हवाले कर दी। शायद, उसने भी गिना नहीं, नहीं ज़रूर कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली किसी को दे दे, या और रुपयों में मिला दे, तो गजब ही हो जाए। कहीं का न रहूं। क्यों न इसी वक्त चलकर बेशी रुपये मांग लाऊं, लेकिन देर बहुत हो गई है, सबेरे फिर आना पड़ेगा। मगर यह दो सौ रुपये मिल भी गए, तब भी तो पांच सौ रुपयों की कमी रहेगी। उसका क्या प्रबंध होगा? ईश्वर ही बेडा पार लगाएं तो लग सकता है।
सबेरे कुछ प्रबंध न हुआ, तो क्या होगा! यह सोचकर वह कांप उठा। जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब निराशा में भी हमें आशा होती है। रमा ने सोचा, एक बार फिर गंगू के पास चलूं, शायद दुकान पर मिल जाय, उसके हाथ-पांव जोडूं। संभव है, कुछ दया आ जाय। वह सर्राफे जा पहुंचा मगर गंगू की दुकान बंद थी। वह लौटा ही था कि चरनदास आता हुआ दिखाई दिया।
रमा को देखते ही बोला,बाबूजी, आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ दिया। कहिए रुपये कब तक मिलेंगे?’
रमा ने विनम्र भाव से कहा, ‘अब बहुत जल्द मिलेंगे भाई, देर नहीं है। देखो गंगू के रुपये चुकाए हैं, अब की तुम्हारी बारी है।’
चरनदास, ‘वह सब क़िस्सा मालूम है, गंगू ने होशियारी से अपने रुपये न ले लिये होते, तो हमारी तरह टापा करते। साल-भर हो रहा है। रुपये सैकड़े का सूद भी रखिए तो चौरासी रुपये होते हैं। कल आकर हिसाब कर जाइए, सब नहीं तो आधा-तिहाई कुछ दे दीजिए।लेते-देते रहने से मालिक को ढाढ़स रहता है। कान में तेल डालकर बैठे रहने से तो उसे शंका होने लगती है कि इनकी नीयत ख़राब है। तो कल कब आइएगा?’
रमानाथ—‘भई, कल मैं रुपये लेकर तो न आ सकूंगा, यों जब कहो तब चला आऊं। क्यों, इस वक्त अपने सेठजी से चार-पांच सौ रुपयों का बंदोबस्त न करा दोगे?’तुम्हारी मुट्ठी भी गर्म कर दूंगा। ’
चरनदास—‘कहां की बात लिये फिरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो देंगे नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक किया कि नालिश नहीं कर दी। आपके पीछे मुझे बातें सुननी पड़ती हैं। क्या बडे मुंशीजी से कहना पड़ेगा?’
रमा ने झल्लाकर कहा, ‘तुम्हारा देनदार मैं हूं, बडे मुंशी नहीं हैं। मैं मर नहीं गया हूं, घर छोड़कर भागा नहीं जाता हूं। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो? ’
चरनदास—‘साल-भर हुआ, एक कौड़ी नहीं मिली, अधीर न हों तो क्या हों। कल कम-से-कम दो सौ की गिकर कर रखिएगा।’
रमानाथ—‘मैंने कह दिया, मेरे पास अभी रुपये नहीं हैं।’
चरनदास—‘रोज़ गठरी काट-काटकर रखते हो, उस पर कहते हो, रुपये नहीं हैं। कल रुपये जुटा रखना। कल आदमी जाएगा ज़रूर।’
रमा ने उसका कोई जवाब न दिया, आगे बढ़ा। इधर आया था कि कुछ काम निकलेगा, उल्टे तकाज़ा सहना पड़ा। कहीं दुष्ट सचमुच बाबूजी के पास तकाज़ा न भेज दे। आग ही हो जायंगे। जालपा भी समझेगी, कैसा लबाडिया आदमी है। इस समय रमा की आंखों से आंसू तो न निकलते थे, पर उसका एक- एक रोआं रो रहा था। जालपा से अपनी असली हालत छिपाकर उसने कितनी भारी भूल की! वह समझदार औरत है, अगर उसे मालूम हो जाता कि मेरे घर में भूंजी भांग भी नहीं है, तो वह मुझे कभी उधार गहने न लेने देती। उसने तो कभी अपने मुंह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शान जमाने के लिए मरा जा रहा था। इतना बडा बोझ सिर पर लेकर भी मैंने क्यों किफायत से काम नहीं लिया? मुझे एक-एक पैसा दांतों से पकड़ना चाहिए था। साल-भर में मेरी आमदनी सब मिलाकर एक हज़ार से कम न हुई होगी। अगर किफायत से चलता, तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रुपये ज़रूर अदा हो जाते, मगर यहां तो सिर पर शामत सवार थी। इसकी क्या ज़रूरत थी कि जालपा मुहल्ले भर की औरतों को जमा करके रोज सैर करने जाती- सैकड़ों रुपये तो तांगे वाला ले गया होगा, मगर यहां तो उस पर रोब जमाने की पड़ी हुई थी। सारा बाज़ार जान जाय कि लाला निरे लफंगे हैं, पर अपनी स्त्री न जानने पाए! वाह री बुद्धि, दरवाज़े के लिए परदों की क्या ज़रूरत थी! दो लैंप क्यों लाया, नई निवाड़ लेकर चारपाइयां क्यों बिनवाई, उसने रास्ते ही में उन ख़र्चो का हिसाब तैयार कर लिया, जिन्हें उसकी हैसियत के आदमी को टालना चाहिए था। आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी चिंता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना खाता है, कब खाता है, लेकिन जब कोई विकार उत्पन्न हो जाता है, तो उसे याद आती है कि कल मैंने पकौडियां खाई थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, पराजय अन्तर्मुखी। जालपा ने पूछा, ‘कहां चले गए थे, बडी देर लगा दी।’
रमानाथ—‘तुम्हारे कारण रतन के बंगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रुपये उठाकर दे दिए, उसमें दो सौ रुपये मेरे भी थे। ’
जालपा—‘तो मुझे क्या मालूम था, तुमने कहा भी तो न था, मगर उनके पास से रुपये कहीं जा नहीं सकते, वह आप ही भेज देंगी।’
रमानाथ—‘माना, पर सरकारी रकम तो कल दाख़िल करनी पड़ेगी।’
जालपा—‘कल मुझसे दो सौ रुपये ले लेना, मेरे पास हैं।’
रमा को विश्वास न आया। बोला—‘कहीं हों न तुम्हारे पास! इतने रुपये कहां से आए? ’
जालपा—‘तुम्हें इससे क्या मतलब, मैं तो दो सौ रुपये देने को कहती हूं।’
रमा का चेहरा खिल उठा। कुछ-कुछ आशा बंधी। दो-सौ रुपये यह देदे, दो सौ रुपये रतन से ले लूं, सौ रुपये मेरे पास हैं ही, तो कुल तीन सौ की कमी रह जाएगी, मगर यही तीन सौ रुपये कहां से आएंगे? ऐसा कोई नज़र न आता था, जिससे इतने रुपये मिलने की आशा की जा सके। हां, अगर रतन सब रुपये दे दे तो बिगड़ी बात बन जाय। आशा का यही एक आधार रह गया था।
जब वह खाना खाकर लेटा, तो जालपा ने कहा, ‘आज किस सोच में पड़े हो?’
रमानाथ—‘सोच किस बात का- क्या मैं उदास हूं?’
जालपा—‘हां, किसी चिंता में पड़े हुए हो, मगर मुझसे बताते नहीं हो!’
रमानाथ—‘ऐसी कोई बात होती तो तुमसे छिपाता?’
जालपा—‘वाह, तुम अपने दिल की बात मुझसे क्यों कहोगे? ऋषियों की आज्ञा नहीं है।’
रमानाथ—‘मैं उन ऋषियों के भक्तों में नहीं हूं।’
जालपा—‘वह तो तब मालूम होता, जब मैं तुम्हारे हृदय में पैठकर देखती।’
रमानाथ—‘वहां तुम अपनी ही प्रतिमा देखतीं।’
रात को जालपा ने एक भयंकर स्वप्न देखा, वह चिल्ला पड़ी। रमा ने चौंककर पूछा,‘क्या है? जालपा, क्या स्वप्न देख रही हो? ’
जालपा ने इधर-उधर घबडाई हुई आंखों से देखकर कहा,‘बडे संकट में जान पड़ी थी। न जाने कैसा सपना देख रही थी! ’
रमानाथ—‘क्या देखा?’
जालपा—‘क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता। देखती थी कि तुम्हें कई सिपाही पकड़े लिये जा रहे हैं। कितना भंयकर रूप था उनका!’
रमा का ख़ून सूख गया। दो-चार दिन पहले, इस स्वप्न को उसने हंसी में उडा दिया होता, इस समय वह अपने को सशंकित होने से न रोक सका, पर बाहर से हंसकर बोला, ‘तुमने सिपाहियों से पूछा नहीं, इन्हें क्यों पकड़े लिये जाते हो?’
जालपा—‘तुम्हें हंसी सूझ रही है, और मेरा हृदय कांप रहा है।’
थोड़ी देर के बाद रमा ने नींद में बकना शुरू किया, ‘अम्मां, कहे देता हूं, फिर मेरा मुंह न देखोगी, मैं डूब मरूंगा।’
जालपा को अभी तक नींद न आई थी, भयभीत होकर उसने रमा को ज़ोर से हिलाया और बोली, ‘मुझे तो हंसते थे और ख़ुद बकने लगे। सुनकर रोएं खड़े हो गए। स्वप्न देखते थे क्या? ’
रमा ने लज्जित होकर कहा, -- हां जी, न जाने क्या देख रहा था कुछ याद नहीं।’
जालपा ने पूछा, ‘अम्मांजी को क्यों धमका रहे थे। सच बताओ, क्या देखते थे? ’
रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा, ‘कुछ याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूंगा।’
जालपा—‘अच्छा तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।’
रमा करवट पौढ़ गया, पर ऐसा जान पड़ता था, मानो चिंता और शंका दोनों आंखों में बैठी हुई निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं। जगते हुए दो बज गए। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही से पानी उंड़ेलती हुई बोली, ‘बडी प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग ही रहे हो? ’
रमा—‘हां जी, नींद उचट गई है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रुपये कहां से आ गए? मुझे इसका आश्चर्य है।’
जालपा—‘ये रुपये मैं मायके से लाई थी, कुछ बिदाई में मिले थे, कुछ पहले से रक्खे थे। ’
रमानाथ—‘तब तो तुम रुपये जमा करने में बडी कुशल हो यहां क्यों नहीं कुछ जमा किया?’
जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘तुम्हें पाकर अब रुपये की परवाह नहीं रही।’
रमानाथ—‘अपने भाग्य को कोसती होगी!’
जालपा—‘भाग्य को क्यों कोसूं, भाग्य को वह औरतें रोएं, जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरुष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी।’
रमा ने विनोद भाव से कहा, ‘तो मैं तुम्हारे मन का हूं! ’
जालपा ने प्रेम-पूर्ण गर्व से कहा, ‘मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियां हैं। एक का भी पति ऐसा नहीं। एक एम.ए. है पर सदा रोगी। दूसरा विद्वान् भी है और धनी भी, पर वेश्यागामीब तीसरा घरघुस्सू है और बिलकुल निखट्टू…’
रमा का हृदय गदगद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी के साथ उसने कितना बडा विश्वासघात किया। इतना दुराव रखने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है, तो मैं अगर उससे निष्कपट होकर रहता, तो मेरा जीवन कितना आनंदमय होता!
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