कबीर ने गुरु को जाने क्या क्या उपनाम दिए हैं,
उन्हें ज्ञान जल बताया,
अमृत की खान कहा,
पारस को गुरु से नीचे कर दिया
गुरु को ईश्वर से ऊपर बता दिया
वे ही मूल ध्यान, वे ही पूजा हैं
सात द्वीपों, नौ खंडों, तीनों लोक और
इक्कीस ब्रह्मांड में ---
नहीं गुरु सम कोई दूजा है...
किन्तु उन्हें लोभ भी बताया,
धोबी भी माना,
कुम्हार भी कहा ...
बाकी क्या रहा !
पर जो कहो,
उनका कुम्हार रूप है बड़ा मोहक ...
मुझे सम्मोहित करता है,
गुरु !...कुंभकार !... महान कलाकार !
चलाता है चाक, गढ़ता है सकल संसार !
चाक पर रखे मिट्टी के लोंदे से
रचता है कुंभ,
काढ़ता है खोट,
अंदर से देकर सहारा
बाहर देता है चोट ...
और जबतक आश्वस्त न हो जाए -
कि इसमें जल शीतल होगा,
कठोर धरातल हो या रेत का आसन,
जहां रखा जाए, वहां स्थिर रहेगा,
आए गए आघातों को झेल जाएगा,
किसी रोम छिद्र से रिसकर
पानी बाहर नहीं आएगा .....
पात्र को सूखने और पकने के लिए
चाक से नीचे नहीं उतारता ...
सही है !
शिष्य में कोई खोट न हो ...
यही होती है ना !
सच्चे गुरु की पहचान !
नहीं...! यह सही नहीं है...।
मैं भी गुरु हूं
और गुरु होकर कह रही हूं
इस कुम्हार की पात्रता की सिद्धि
इस बात में है
कि वह अपने गढ़े पात्र में
कुछ खोट छोड़ दे
और उससे कहे -
मैंने तुम्हें बनाया, संवारा है,
पुख्ता करके संसार में उतारा है
पर कुछ कमी रहने दी है ...
कारण जान लो,
तुम्हें स्वयं पर विश्वास हो
मगर अभिमान न हो,
जीवन में वह मोड़ न आए
कि अपनी विशेषताओं का पता हो
पर अपनी कमियों का ज्ञान न हो...
उन सारे नकारात्मक पक्षों को
जो मैंने छोड़ दिए हैं,
तुम्हें पहचानना है,
किसी काश्तकार की तरह
अपने व्यक्तित्व की क्यारी से
चुन चुनकर
एक एक खर पतवार को निकालना है...
अपने गढ़े हर सुंदर पात्र से अपेक्षित है
यही गुरूदक्षिणा !
जो मुझे मिल जाएगी
उन्हें उस रूप में देखकर...!
गुरुमित्रों से निवेदन है
वे कुम्हार बनें,
पात्र बनाएं,
खोट काढ़ते जाएं
पर पात्रों की क्षमता को विस्तार दें,
कुछ खोट बाकी हो
उसी समय,
पात्र को चाक से नीचे उतार दें।
नीलम प्रभा