पैदल चलते, भीड़ में गिरते,
अपने पैरों से खुद को रौंदते, कुचलते
गुरबत की पनाह में पलते
बेबस मजदूर हों या
आज़ाद उड़ान भूले,
ख्वाबों की मानिंद छूटे टूटे
मासूमियत की शाख पर डाले गए
कच्ची उमर के सतरंगी झूले,
जिस पर पेंगे मारते वे कहते थे
चलो, चलकर आसमां को छू लें
हमारे नौनिहाल, हमारे बच्चे !
इन्हें उन दिशाओं का पता बताएं,
वे नए रास्ते खोजकर लाएं,
समय के सादा पन्ने जुटाएं,
और _
जिनमें ताज़ा गीली मिट्टी का गारा हो,
प्यार की आंच में पकाई गई ईंटे हों,
मेहनत का साज़ छेड़ते कामगार हों,
घरौंदे का वास्तु शिल्प ज़बरदस्त हो, जानदार हो,
कि जिसके ओसारे में धूप लेटती हो
सीढ़ियों पे हवाएं डेरा डालती हों,
रोशनदानों में घोंसला बनाती हो गौरैया,
छत पर चांदनी का बिस्तर लगे और
हर कमरा चुहलबाज़ियों से गुलज़ार हो-
ऐसी, पहले कभी न सुनी गईं,
ढेरों कहानियां सुनाएं,
जो उनसे कह पाएं-
क्यों कुम्हलाए चेहरे लिए बैठे हो दोस्तो,
अभी तो हम हैं और बेहिसाब हम हैं,
अभी तो बहुत बाकी
मालिक का रहम_आे_करम है,
कि तुम हो तो ज़िंदा ये सारा अलम है
और बहरहाल,
यही एक है जो निहायत जरूरी है-
इल्म खूब चीज है, बेशक है
पर ये वक़्त उसके लिए माकूल नहीं,
और बुज़ुर्ग कह गए हैं
कि वक्त से पहले कुछ नहीं होता
सो उसे तह करके दराजों में रख दो,
जब दिन बहुरेंगे
तब निकाल लेंगे।
नीलम प्रभा