ये जिंदगी है नियामत, किसे नहीं है पता !
गली की ख़ाक छानना, नहीं है कोई खता !
जरूरतें कहां कहां न लेके जाती हमें
कभी बारिश तो कभी धूप है तरसाती हमें
हुकुम जो बोस्कियाना का है, वो क्या जाने
जरूरतों की तपिश को वो कैसे पहचाने
जो रोज़ मौत के संग दो दो हाथ करते हैं
बरायनाम जो हैं ज़िंदा, नहीं मरते हैं
दिल बहलाने से तो भूख नहीं मिटती है
कि मरके भी न कभी मिट्टी जिनकी उठती है
नसीब हो ना जिन्हें कब्रगाह मरके भी,
तमाम शब न हुई आने पे सहर के भी
उनके रहबर बने हैं शब हैं जिनकी पश्मीना
उन्हें देते हैं इल्म संग है जिनका सीना
जिनसे टकराएं तो खाती शिकस्त शमशीरें
जिनसे नज़र न मिला पातीं कभी तकदीरें
मय-ए-मेहनत है जो
किस्मत का जाम भरती है
ये महामारियां झुककर सलाम करती हैं।
नीलम प्रभा