चंगेज़ ख़ाँ एक बहुत ही वीर और साहसी मंगोल सरदार था। सन 1211 और 1236 ई. के बीच भारत की सरहद पर एक बड़ा भंयकर बादल उठा। यह बादल मंगोलों का था, जिसका नेता चंगेज़ ख़ाँ था। चंगेज़ ख़ाँ अपने एक दुश्मन का पीछा करता हुआ ठेठ सिंधु नदी तक आया था। वह सिंधु नदी से आगे नहीं बढ़ा और वहीं पर रुक गया, जिससे उसके द्वारा होने वाली सम्भावित बर्बादी से भारत बच गया। इसके क़रीब दो सौ वर्ष बाद चंगेज़ के वंश का एक दूसरा आदमी तैमूर भारत में मार-काट और बरबादी लेकर आया। लेकिन बहुत से मंगोलों ने भारत पर छापा मारने और ठेठ लाहौर तक भी आ धमकने की आदत-सी डाल ली। कभी-कभी ये आतंक फैलाते और सुल्तानों तक को भी डरा देते थे कि वे धन देकर अपना पिण्ड छुड़ाते थे। हज़ारों मंगोल पंजाब में ही बस गये थे।
जन्म
मंगोलिया के ये ख़ानाबदोश मर्द और औरत बड़े मज़बूत थे। कष्ट झेलने की इन्हें आदत थी और ये लोग उत्तरी एशिया के लम्बे चौड़े मैदानों में तम्बुओं में रहते थे। लेकिन इनका शारीरिक बल और कष्ट झेलने का मुहावरा इनके ज़्यादा काम न आते, अगर इन्होंने एक योग्य सरदार न पैदा किया होता, जो बड़ा अनोखा व्यक्ति था। यह वही व्यक्ति था, जो चंगेज़ ख़ाँ के नाम से मशहूर है। चंगेज़ ख़ाँ सन् 1155 ई. में पैदा हुआ था। उसका वास्तविक नाम 'तिमूचिन' था। चंगेज़ ख़ाँ जब बाल्यावस्था से ही गुजर रहा था, तभी इसका पिता येगुसी-बगातुर इसको बच्चा छोड़कर मर गया। 'बगातुर' मंगोल अमीरों का लोकप्रिय नाम हुआ करता था। इसका अर्थ है 'वीर'। सम्भवत: उर्दू भाषा का 'बहादुर' शब्द इसी से निकला है।
बचपन
हालाँकि चंगेज़ दस वर्ष का छोटा लड़का ही था और उसका कोई मददगार नहीं था। फिर भी वह मेहनत करता चला गया और आख़िर में कामयाब हुआ। वह क़दम-क़दम आगे बढ़ता गया, यहाँ तक की अंत में मंगोलों की बड़ी सभा 'कुरुलताई' ने अधिवेशन करके उसे अपना 'ख़ान महान' या 'कागन' या सम्राट चुना। इससे कुछ साल पहले उसे चंगेज़ का नाम दिया जा चुका है।
महान या कागन
चंगेज़ जब 'महान' या 'कागन' बना, उस समय उसकी उम्र 51 वर्ष की हो चुकी थी। यह जवानी की उम्र नहीं थी और इस उम्र पर पहुँचकर ज़्यादातर आदमी शांति और आराम चाहते हैं। लेकिन उसके लिए तो यह विजय यात्रा के जीवन की शुरुआत थी। यह ग़ौर करने की बात है, क्योंकि ज़्यादातर महान् विजेताओं ने मुल्कों को जीतने का काम जवानी में ही पूरा किया है। इससे हम यह नतीजा भी निकाल सकते हैं कि चंगेज़ ने जवानी के जोश में एशिया को नहीं रौंद डाला था। वह अधेड़ उम्र का एक होशियार और सावधान आदमी था और हर बड़े काम को हाथ में लेने से पहले उस पर विचार और उसकी तैयारी कर लेता था।
ख़ानाबदोश मंगोल
मंगोल लोग ख़ानाबदोश थे। शहरों और शहरों के रंग-ढंग से भी उन्हें नफ़रत थी। बहुत से लोग समझते हैं कि चूंकि वे ख़ानाबदोश थे, इसलिए जंगली रहे होंगे, लेकिन यह ख्याल ग़लत है। शहर की बहुत सी कलाओं का उन्हें अलबत्ता ज्ञान नहीं था, लेकिन उन्होंने ज़िन्दगी का अपना एक अलग तरीक़ा ढाल लिया था और उनका संगठन बहुत ही गुंथा हुआ था। लड़ाई के मैदान में अगर उन्होंने महान् विजय प्राप्त कीं तो अधिक संख्या होने के कारण नहीं, बल्कि अनुशासन और संगठन के कारण और इसका सबसे बड़ा कारण तो यह था कि उन्हें चंगेज़ जैसा जगमगाता सेनानी मिला था। इसमें कोई शक नहीं कि इतिहास में चंगेज़ जैसा महान् और प्रतिभा वाला सैनिक नेता दूसरा कोई नहीं हुआ है। सिकन्दर और सीजर इसके सामने नाचीज़ नज़र आते हैं। चंगेज़ न सिर्फ़ खुद बहुत बड़ा सिपहसलार था, बल्कि उसने अपने बहुत से फ़ौजी अफ़सरों को तालीम देकर होशियार नायक बना दिया था। अपने वतन से हज़ारों मील दूर होते हुए भी, दुश्मनों और विरोधी जनता से घिरे रहते हुए भी, वे अपने से ज़्यादा तादाद की फ़ौजों से लड़कर उन पर विजय प्राप्त करते थे।
विजय यात्रा की तैयारियाँ
चंगेज़ ने बड़ी सावधानी के साथ अपनी विजय यात्रा की तैयारियाँ कीं। उसने अपनी फ़ौज को लड़ाई की तालीम दी। सबसे ज़्यादा इसने अपने घोड़ों को सिखाया था और इस बात का ख़ास इन्तज़ाम किया था कि एक घोड़ा मरने के बाद दूसरा घोड़ा तुरन्त ही सिपाहियों के पास पहुँच सके, क्योंकि ख़ानाबदोशों के लिए घोड़ों से ज़्यादा महत्त्व की चीज़ और कोई नहीं होती है। इन सब तैयारियों के बाद उसने पूर्व की तरफ़ कूंच किया और उत्तर चीन और मंचूरिया के किन-साम्राज्यों को क़रीब-क़रीब खत्म कर दिया और पेकिंग पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। उसने कोरिया जीत लिया। मालूम होता है कि दक्षिणी सुंगों को उसने अपना दोस्त बना लिया था। इन सुंगों ने किन लोगों के ख़िलाफ़ उसकी मदद भी की थी। बेचारे यह नहीं समझते थे कि इनके बाद उनकी भी बारी आने वाली है। चंगेज़ ने बाद में सुंगों को भी जीत लिया था।
ख़ारज़म और चंगेज़
इन विजयों के बाद चंगेज़ आराम कर सकता था। ऐसा मालूम होता है कि पश्चिम पर हमला करने की उसकी इच्छा नहीं थी। वह ख़ारज़म के शाह से मित्रता का सम्बन्ध रखना चाहता था, लेकिन यह हो नहीं पाया। एक पुरानी कहावत है, जिसका मतलब है कि देवता जिसे नष्ट करना चाहते हैं, उसे पहले पागल कर देते हैं। ख़ारज़म का बादशाह अपनी ही बरबादी पर तुला हुआ था और उसे पूरा करने के लिए जो कुछ मुमकिन था, उसने किया। उसके एक सबे के हाक़िम ने मंगोल सौदाग़रों को क़त्ल कर दिया। चंगेज़ फिर भी सुलह चाहता था और उसने यह संदेश लेकर राजदूत भेजे कि उस गवर्नर को सज़ा दी जाए। लेकिन बेवक़ूफ शाह इतना घमंडी था और अपने को इतना बड़ा समझता कि उसने इन राजदूतों की बेइज्जती की और उनको मरवा डाला। चंगेज़ के लिए इसे बरदाश्त करना नामुमकिन था, लेकिन उसने जल्दबाज़ी से काम नहीं लिया। उसने सावधानी से तैयारी की और तब पश्चिम की तरफ़ अपनी फ़ौज के साथ कूंच का डंका बजा दिया। इस कूंच ने, जो सन् 1219 ई. में शुरू हुआ, एशिया की ओर कुछ हद तक यूरोप की आँखें इस नये आतंक की तरफ़ खोल दीं, जो बड़े भारी बेलन की तरह शहरों और करोड़ों आदमियों को बेरहमी के साथ कुचलता हुआ चला आ रहा था। ख़ारज़म का सम्राट मिट गया। बुखारा का बड़ा शहर, जिसमें बहुत महल थे और दस लाख से ज़्यादा आबादी थी, जलाकर राख़ कर दिया। राजधानी समरकंद बर्बाद कर दी गई। और उसकी दस लाख की आबादी में सिर्फ़ पचास हज़ार लोग ही ज़िन्दा बचे। हिरात, बलख और दूसरे बहुत से ग़ुलज़ार शहर नष्ट कर दिये गए। करोड़ों आदमी मार डाले गए। जो कलाएँ और दस्तकारियाँ वर्षों से मध्य एशिया में फल-फूल रही थीं, गायब हो गईं। ईरान और मध्य एशिया में सभ्य जीवन का ख़ात्मा सा हो गया। जहाँ से चंगेज़ गुज़रा, वहाँ वीराना हो गया।
ख़ारज़म का युद्ध
ख़ारज़म के बादशाह का लड़का जलालुद्दीन इस तूफ़ान के ख़िलाफ़ बहादुरी से लड़ा। वह पीछे हटते-हटते सिंध नदी तक चला गया और जब यहाँ भी इस पर ज़ोर का दबाव पड़ा तो कहते हैं कि वे घोड़े पर बैठा हुआ, तीस फुट नीचे सिंध नदी में कूद पड़ा और तैरकर इस पार निकल आया। उसे दिल्ली दरबार में आश्रय मिला। चंगेज़ ने वहाँ तक उसका पीछा करना फ़िज़ूल समझा। सेलजूक तुर्कों की और बग़दाद की खुशक़िस्मती थी कि चंगेज़ ने इनको बिना छेड़े छोड़ दिया और वह रूस की तरफ बढ़ गया। उसने कीफ़ के ग्रैड ड्यूक को हराकर क़ैद कर लिया। फिर वह हिसियों या तंगतों के बलवे को दबाने के लिए पूर्व की तरफ लौट गया।
मृत्यु
चंगेज़ सन् 1227 ई. में बहत्तर वर्ष की उम्र में मर गया। उसका साम्राज्य पश्चिम में काले समुद्र से पूर्व में प्रशान्त महासागर तक फैला हुआ था। उसमें अब भी काफ़ी तेज़ी थी और वह दिन-ब-दिन बढ़ ही रहा था। इसकी राजधानी अभी तक मंगोलिया में कराकुरम नाम का एक छोटा सा क़स्बा था। ख़ानाबदोश होते हुए भी चंगेज़ बड़ा ही योग्य संगठन करने वाला था और उसने बुद्धिमानी के साथ अपनी मदद के लिए योग्य मंत्री मुकर्रर कर रखे थे। उसका इतनी तेज़ी के साथ जीता हुआ साम्राज्य उसके मरने पर टूटा नहीं।
इतिहास-लेखकों की नज़र में चंगेज़
- अरब और ईरानी इतिहास-लेखकों की नज़र में चंगेज़ एक दानव है, उसे उन्होंने 'ख़ुदा का क़हर' कहा है। उसे बड़ा ज़ालिम आदमी बताया गया है। इसमें शक नहीं कि वह बड़ा ज़ालिम था। लेकिन उसके जमाने के दूसरे बहुत से शासकों में और उसमें कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं था। भारत में अफ़ग़ान बादशाह, कुछ छोटे पैमाने पर, इसी तरह के थे। जब ग़ज़नी पर अफ़ग़ानों ने सन् 1150 ई. में क़ब्ज़ा किया तो पुराने ख़ून का बदला लेने के लिए इन लोगों ने उस शहर को लूट और जला तक दिया। सात दिनों तक 'लूट-मार, बरबादी और मार-काट जारी रही। जो मर्द मिला, उसे क़त्ल कर दिया गया। तमाम स्त्रियों और बच्चों को क़ैद कर लिया गया। महमूदी बादशाहों (यानी सुल्तान महमूद के वंशजों) के महल और इमारतें, जिनका दुनिया में कोई सानी नहीं था, नष्ट कर दिये गए।' मुसलमानों का अपने बिरादर मुसलमानों के साथ यह सलूक था। इसके, और यहाँ भारत में जो कुछ अफ़ग़ान बादशाहों ने किया उसके, और मध्य एशिया और ईरान में चंगेज़ की विनाशपूर्ण कार्रवाई के, दरजों में कोई फ़र्क़ नहीं था। चंगेज़ ख़ारज़म ख़ासतौर पर नाराज़ था, क्योंकि शाह ने उस राजदूत को क़त्ल करवा दिया था। उसके लिए तो यह ख़ूनी झगड़ा था। और जगहों पर भी चंगेज़ ने खूब सत्यानाश किया था, लेकिन उतना नहीं, जितना मध्य एशिया में।
- शहरों को यों बरबाद करने के पीछे चंगेज़ की एक और भावना भी थी। उसकी ख़ानाबदोशी की तबीयत थी और वह क़स्बों और शहरों से नफ़रत करता था। वह खुले मैदानों में रहना पसंद करता था। एक दफा तो चंगेज़ को ख्याल हुआ कि चीन के तमाम शहर बरबाद कर दिये जाएँ तो अच्छा होगा। लेकिन खुशक़िस्मती कहिये कि उसने ऐसा किया नहीं। उसका विचार था कि सभ्यता और ख़ानाबदोशी की ज़िन्दगी को मिला दिया जाय, लेकिन न तो यह सम्भव था और न है।
- चंगेज़ ख़ाँ के नाम से शायद यह ख्याल हो कि वह मुसलमान था, लेकिन वह मुसलमान नहीं था। यह एक मंगोल नाम है। मज़हब के मामले में चंगेज़ बड़ा उदार था। उसका अपना मज़हब अगर कुछ था तो शमाबाद था, जिसमें 'अविनाशी नीले आकाश' की पूजा होती थी। वह चीन के 'ताओ धर्म' के पंडितों से अक्सर खूब ज्ञान-चर्चा किया करता था। लेकिन वह खुद शमा-मत पर ही क़ायम रहा और जब कठिनाई में होता, तब आकाश का ही आश्रय लिया करता था।
- चंगेज़ को मंगोलों की सभा ने 'ख़ान-महान' चुना था। यह सभा असल में सामन्तों की सभा थी, जनता की नहीं, और यों चंगेज़ इस फ़िरके का सामन्ती सरदार था।
- वह पढ़ा-लिखा नहीं था और उसके तमाम अनुयायी भी उसी की तरह थे। शायद वह बहुत दिनों तक यह भी नहीं जानता था कि लिखने जैसी भी कोई चीज़ होती है।
- संदेश ज़बानी भेजे जाते थे और आमतौर पर छन्द में रूपकों या कहावतों के रूप में होते थे। ताज्जुब तो यह है कि ज़बानी संदेशों से किस तरह इतने ब़ड़े साम्राज्य का कारबार चलाया जाता था। जब चंगेज़ को मालूम हुआ कि वह वड़ी फायेदमन्द चीज़ है और उसने अपने पुत्रों और मुख्य सरदारों को इसे सीखने का हुक्म दिया। उसने यह भी हुक्म दिया था कि मंगोलों का पुराना रिवाज़ी क़ानून और उसकी अपनी उक्तियाँ भी लिख डाली जाएँ। मुराद यह थी कि यह रिवाज़ी क़ानून सदा-सर्वदा के लिए 'अपरिवर्तनशाल क़ानून' है, और कोई इसे भंग नहीं कर सकता था। बादशाह के लिए भी इसका पालन करना ज़रूरी था। लेकिन यह 'अपरिवर्तनशील क़ानून' अब अप्राप्य है और आजकल के मंगोलों को न तो इसकी कोई याद है और न ही इसकी कोई परम्परा ही बाक़ी रही है।
चंगेज़ ख़ाँ का उत्तराधिकारी
- चंगेज़ ख़ाँ की मृत्यु के बाद उसका लड़का ओगताई 'ख़ान-महान' हुआ। चंगेज़ और उस ज़माने के मंगोलों के मुक़ाबले में वह दयावान और शान्तिप्रिय स्वभाव का था। वह कहा करता था कि "हमारे कागन चंगेज़ ने बड़ी मेहनत से हमारे शाही ख़ानदान को बनाया है। अब वक़्त आ गया है कि हम अपने लोगों को शान्ति दें, खुशहाल बनायें और उनकी मुसीबतों का कम करें।"
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