चैतन्य आन्दोलन का नामकरण मध्य काल के प्रसिद्ध संत चैतन्य (1485-1533 ई.) के नाम पर हुआ था। यह आंदोलन हिन्दू धर्म का अत्यंत भावात्मक स्वरूप था, जो सोलहवीं शताब्दी से बंगाल और पूर्वी उड़ीसा तक फला और फूला।
प्रेरणा
भगवान श्रीकृष्ण के प्रति चैतन्य के भावप्रवण समर्पण ने इस आंदोलन को प्रेरित किया। चैतन्य के लिए कृष्ण और उनकी प्रेमिका राधा की कथाएं ईश्वर और मानव आत्मा के आपसी प्रेम की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति थीं। इस समय भक्ति अन्य सभी धार्मिक आचारों के ऊपर पहुँच गई और इसे दैवी इच्छा के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण के रूप में ग्रहण किया गया।
आंदोलन की शुरुआत
चैतन्य आंदोलन की शुरुआत संत चैतन्य के जन्म स्थान 'नबद्वीप' (बंगाल) से हुई। आरंभ से ही सामूहिक गायन के रूप में कीर्तन (या संकीर्तन) आराधना का पसंदीदा और विशिष्ट स्वरूप था, इसमें सरल भजनों के गायक और ईश्वर के नाम का जाप शामिल होता है, जिसके साथ ढोल व मंजीरा बजाया जाता है। इस गीत-संगीत की तान पर कई घंटो तक झूमने से सामान्यत: धार्मिक आनंदातिरेक की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
तीन प्रभु
चैतन्य न तो धर्मशास्त्री थे और न ही लेखक। आरंभ में उनके अनुयायियों का संगठन, उनके निकट सहयोगियों 'नित्यानंद' और 'अद्वैत' का कार्य था। इन तीनों को 'तीन प्रभु' कहा जाता है और उनकी प्रतिमाएँ चैतन्य सम्प्रदाय के मंदिर में स्थित हैं।
चैतन्य के शिष्य
छ: गोस्वामियों (धार्मिक गुरु, शाब्दिक अर्थ गुरुओं के स्वामी) के नाम से प्रसिद्ध चैतन्य के छ: शिष्यों के समूह ने आन्दोलन के लिए धर्मशास्त्र की रचना की। चैतन्य के अनुरोध पर यह विद्वान् समूह मथुरा के निकट वृंदावन में बस गया, जो राधा-कृष्ण की किंवदंतियों का स्थल है। छ: गोस्वामियों ने संस्कृत में विशाल धार्मिक और भक्ति साहित्य की रचना की, जिसमें आंदोलन के सिद्धांतों और आनुष्ठानिक आचारों को परिभाषित किया गया। वृंदावन और मथुरा के तीर्थ स्थलों की पुनर्स्थापना सभी वैष्णवों (विष्णु के भक्त) के लिए महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि उनके जीवन काल में भी चैतन्य की कृष्ण के अवतार के रूप में पूजा की जाती थी। लेकिन एक शरीर में कृष्ण और राधा, दोनों के अवतार के सिद्धांत को बाद के धार्मिक बंगाली लेखकों ने प्रणालीबद्ध तरीक़े से विकसित किया।[1]
इस सम्प्रदाय के वर्तमान नेता, जिन्हें 'गोस्वामी' कहा जाता है, चैतन्य के आरंभिक शिष्यों और सहयोगियों के वंशज (कुछ अपवाद समेत) हैं। योंगियों को 'वैरागी' कहा जाता है। इस समूह में स्वर्गीय ए. सी. भक्तिवेदांत भी थे, जो स्वामी प्रभुपाद के रूप में विख्यात थे और उनका विश्वास था कि चैतन्य के प्रति निष्ठा से विश्व के सभी लोगों का कल्याण होगा। वह 'इंटरनेशनल सोसाइटी फ़ॉर कृष्ण कांशसनेस (इस्काँन)' के संस्थापक थे, जिसे सामान्यत: 'हरे कृष्ण' कहा जाता है; जो विश्व भर में 'चैतन्य आंदोलन' के विश्वासों और आचारों को स्थापित करने का प्रयास कर रही है।
इन्हें भी देखें: चैतन्य महाप्रभु एवं भक्ति आन्दोलन
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारत ज्ञानकोश, भाग-2 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (इण्डिया) प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: कमलापति त्रिपाठी |पृष्ठ संख्या: 177 |