जौ पै जिय धरिहौ अवगुन ज़नके।
तौ क्यों कट सुकृत नखते मो पै, बिपुल बृदं अघ बनके॥1॥
कहिहैं कौन कलुष मेरे कृत, कर्म बचन अरु मनके।
हारिहैं अमित सेष सारद-स्त्रुति, गिनत एक इक छनके॥2॥
जो चित पड़्हे नाम महिमा निज, गुनगुन पावन पनके।
तौ तुलसीहिं तारिहौ बिप्र ज्यों, दसन तोरि जम-गनके॥3॥