राज योग
महर्षि पतंजलि के योग को ही राज योग या आष्टांग योग कहा जाता है। योग के उक्त आठ अंगों में ही सभी तरह के योग का समावेश हो जाता है। भगवान बुद्ध का 'आष्टांगिक मार्ग' भी योग के उक्त आठ अंगों का ही हिस्सा है। हालांकि 'योगसूत्र' के आष्टांग योग बुद्ध के बाद की रचना है। 19वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द ने 'राज योग' का आधुनिक अर्थ में प्रयोग आरम्भ किया था।[1]
योगों का राजा
सभी योगों का राजा 'राज योग' को कहा जाता है, क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ समाग्री अवश्य मिल जाती है। राज योग में पतंजलि द्वारा रचित 'अष्टांग योग' का वर्णन आता है। राज योग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। महर्षि पतंजलि ने समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का मार्ग सुझाया है। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्त प्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेकख्याति प्राप्त होती है।
योगाङ्गानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः।[2]
आठ अंग
'राज योग' का सर्वाधिक प्रचलन और महत्त्व है। इसी योग को 'अष्टांग योग' के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजलि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में श्रेणीबद्ध किया। लगभग 200 ई. पू. में उन्होंने ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और 'योगसूत्र' की रचना की। योगसूत्र की रचना के कारण पतंजलि को "योग का पिता" कहा जाता है। यह आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उपअंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- 'आसन', 'प्राणायाम' और 'ध्यान'।[1]
योगसूत्र
200 ई. पू. रचित महर्षि पतंजलि का 'योगसूत्र' योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योग दर्शन निम्न चार विस्तृत भागों, जिन्हें इस ग्रंथ में 'पाद' कहा गया है, में विभाजित है-
- समाधिपाद
- साधनपाद
- विभूतिपाद
- कैवल्यपाद
प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में पाँच बहिरंग साधन- 'यम', 'नियम', 'आसन', 'प्राणायाम' और 'प्रत्याहार' का विवेचन है। तृतीय पाद में अंतरंग तीन 'धारणा', 'ध्यान' और 'समाधि' का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं। चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।
अष्टांग योग साधन
दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- "योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः।" अर्थात "योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है।" चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है-
- यम - कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।
- नियम - मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार की शुद्धि समाविष्ट है।
- आसन - पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित 'हठयोग प्रदीपिका' 'घरेण्ड संहिता' तथा 'योगाशिखोपनिषद्' में विस्तार से वर्णन मिलता है।
- प्राणायाम - योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।
- प्रत्याहार - इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।
- धारणा - चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।
- ध्यान - जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
- समाधि - यह चित्त की अवस्था है, जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।[1]
समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं- 'सम्प्रज्ञात' और 'असम्प्रज्ञात'। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 जानिए आष्टांग योग को (हिन्दी) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 01 जुलाई, 2015।
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