लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है -लिखित या चित्रित करना। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। हिन्दी की लिपि देवनागरी है। हिन्दी के अलावा -संस्कृत ,मराठी, कोंकणी, नेपाली आदि भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती है।
इतिहास
मानव के महान् आविष्कारों में लिपि का स्थान सर्वोपरि है। मानव समाज जब ताम्रयुग में पहुँचता है, प्राचीन जगत की नदीघाटी सभ्यताओं में जब नगरों की स्थापना होने लगती है, तब हम पहली बार लिपियों को जन्म लेते देखते हैं। मिस्र, मेसोपोटामिया और चीन की आरंभिक लिपियां मुख्यत: भाव-चित्रात्मक थीं। सिंधु सभ्यता की लिपि किस स्वरूप की है, यह अभी तक जाना नहीं गया है। ईसा पूर्व दसवीं सदी के आसपास पहली बार वर्णमालात्मक लिपियां जन्म लेती हैं। तब से आज तक लिपियों का विशेष विकास नहीं हुआ। बहुत सी पुरालिपियां मर गई हैं, उनका ज्ञान लुप्त हो गया था। पिछले क़रीब दो सौ वर्षों में संसार के अनेक पुरालिपिविदों ने पुन: उन पुरालिपियों का उद्घाटन किया है। परिणाम स्वरूप हमें प्राचीन सभ्यताओं के बारे में नई नई जानकारी मिली है। [1]
लिपि का आविष्कार
सभ्य मानव का सबसे बड़ा आविष्कार है लेखन-कला। आज हम अपने चहुंओर इतनी अधिक लिखित सामग्री देखते हैं कि यह सोचना भूल ही जाते हैं कि पहले-पहल आदमी ने लिखना कैसे आरंभ किया होगा और लेखन का विकास कैसे हुआ होगा। मानव के विकास में, अर्थात मानव-सभ्यता के विकास में, वाणी के बाद लेखन का ही सबसे अधिक महत्व है। अन्य पशुओं से आदमी को इसीलिए श्रेष्ठ माना जाता है कि वह वाणी द्वारा अपने मनोभावों को व्यक्त कर सकता है। किंतु मानव का बहुमुखी विकास इस वाणी को लिपिबद्ध करने की कला के कारण ही हुआ। मुंह से बोले गए शब्द या हाव-भावों से व्यक्त किए गए विचार चिरस्थायी नहीं रहते। दो या अधिक व्यक्तियों के बीच में हुई बातचीत केवल उन्हीं व्यक्तियों तक सीमित रहती है। भाषा का आधार ध्वनि है। भाषा श्रव्य या कर्णगोचर होती है। अभी उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों तक बोली गई भाषा को स्थायी रूप देने के लिए उसे लिपिबद्ध करने के अलावा कोई दूसरा तरीका नहीं था।
संसार की बहुत-सी लुप्तप्राय सभ्यताओं के बारे में आज हम इसीलिए बहुत कुछ जानते हैं कि वे अपने बारे में बहुत-कुछ लिखा हुआ छोड़ गई हैं।
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प्राचीन काल के मानव को अपने विचारों को सुरक्षित रखने के लिए लिपि का आविष्कार करना पड़ा था। इसलिए हम कह सकते हैं कि लिपि ऐसे प्रतीक-चिह्नों का संयोजन है जिनके द्वारा श्रव्य भाषा को दृष्टिगोचर बनाया जाता है। सुनी या कही हुई बात केवल उसी समय और उसी स्थान पर उपयोगी होती है। किंतु लिपिबद्ध कथन या विचार दिक् और काल की सीमाओं को लांघ सकते हैं। लिपि के बारे में यही सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। संसार की बहुत-सी लुप्तप्राय सभ्यताओं के बारे में आज हम इसीलिए बहुत कुछ जानते हैं कि वे अपने बारे में बहुत-कुछ लिखा हुआ छोड़ गई हैं।
मिस्र, मेसोपोटामिया और चीन की आरंभिक लिपियां मुख्यत: भाव-चित्रात्मक थीं।
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आज संसार में लगभग 400 विभिन्न लिपियों का प्रयोग होता है। इनमें से बहुतों का आरंभ एवं विकास प्राचीन काल की कुछ प्रमुख लिपियों से हुआ है। जैसे, एशिया के पश्चिमी तट पर ई. पू. दूसरी सहस्त्राब्दी में सेमेटिक (सामी) भाषा-परिवार के लिए एक अक्षर मालात्मक लिपि अस्तित्व में आई। 1000 ई. पू. के आसपास इस लिपि ने व्यंजनात्मक या वर्णमालात्मक रूप धारण किया। उस समय की इस लिपि को 'उत्तरी सेमेटिक', कनानी' या 'फिनीशियन' जैसे नाम दिए गए हैं। यूनानी लिपि स्पष्टत: फिनीशियन लिपि के आधार पर ही बनी थी। और, आज यूरोप, अमरीका और संसार के कई अन्य देशों में जिन लिपियों का चलन है वे सब इस यूनानी लिपि और इससे निर्मित लैटिन या रोमन लिपि से ही विकसित हुई हैं। दूसरी ओर यूनानी पूर्व की ओर इस उत्तरी सेमेटिक लिपि ने आरमेई, खरोष्ठी, पहलवी और अरबी जैसी लिपियों को जन्म दिया। [1]
भारत में लिपि का इतिहास
भारत में लगभग छठी शताब्दी ई.पू. में अस्तित्व में आई ब्राह्मी लिपि ने भी बहुत-सी लिपियों को जन्म दिया है। भारत की सारी वर्तमान लिपियां (अरबी-फारसी लिपि को छोड़कर) ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं। इतना ही नहीं तिब्बती, सिंहली तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों की बहुत-सी लिपियां ब्राह्मी से ही जन्मी हैं। तात्पर्य यही कि धर्म की तरह लिपियां भी देशों और जातियों की सीमाओं को लांघती चली गई। भाषाओं की सीमाएं लांघना तो लिपियों के लिए बहुत ही सरल काम रहा है। जो लिपि आरंभ में एक सेमेटिक भाषा के लिए अस्तित्व में आई थी, उसे बाद में 'भारोपीय भाषा परिवार' की अनेक भाषाओं के लिए अपना लिया गया।
प्राचीन काल से ही लेखन-कला को पवित्र माना जाता रहा है। प्राय: सभी प्राचीन सभ्यताओं ने अपनी लिपियों के आविष्कर्त्ता के रूप में किसी न किसी देवता की कल्पना की है। भारत में यह मान्यता थी कि लिपि के निर्माता ब्रह्मा हैं, और शायद इसीलिए हमारे देश की प्राचीन लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा। प्राचीन मिस्र के थोत को लेखन का देवता माना जाता था। बेबीलोन में लेखन का देवता नेबो था। प्राचीन यहूदी परंपरा के अनुसार लिपि के जनक पैगंबर मूसा थे। इस्लाम की मान्यता है कि अल्लाह ने ही अक्षर बनाए और आदम को सौंपे। कुछ यूनानी अनुश्रुतियों में हेर्मेस को यूनानी लिपि का जनक बताया गया है। परंतु ई.पू. छठी शताब्दी का प्रसिद्ध इतिहासकार हिरोदोतस स्पष्ट शब्दों में लिखता है कि यूनानी लिपि का निर्माण फिनीशियन लिपि के आधार पर हुआ।
आज हम जानते हैं कि लिपियां मानव की ही कृतियां है; उन्हें ईश्वर या देवता ने नहीं बनाया। प्राचीन काल में किसी पुरातन और कुछ जटिल वस्तु को रहस्यमय बनाए रखने के लिए उस पर ईश्वर या किसी देवता की मुहर लगा दी जाती थी; किंतु आज हम जानते हैं कि लेखन-कला किसी 'ऊपर वाले' की देन नहीं है, बल्कि वह मानव की ही बौद्धिक कृति है। [1]
भारत की प्रमुख लिपियाँ
भाषा का आधार ध्वनि है। भाषा श्रव्य या कर्णगोचर होती है। अभी उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों तक बोली गई भाषा को स्थायी रूप देने के लिए उसे लिपिबद्ध करने के अलावा कोई दूसरा तरीका नहीं था।
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देवनागरी लिपि
इसमें कुल 52 अक्षर हैं, जिसमें 14 स्वर और 38 व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) में प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा। भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं (उर्दू को छोडकर), पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं- क्योंकि वो सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।[2]
ब्राह्मी लिपि
ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक (असोक) द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। नये अनुसंधानों के आधार 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के लेख भी मिले है। ब्राह्मी भी खरोष्ठी की तरह ही पूरे एशिया में फैली हुई थी। अशोक ने अपने लेखों की लिपि को 'धम्मलिपि' का नाम दिया है; उसके लेखों में कहीं भी इस लिपि के लिए 'ब्राह्मी' नाम नहीं मिलता। लेकिन बौद्धों, जैनों तथा ब्राह्मण-धर्म के ग्रंथों के अनेक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का नाम 'ब्राह्मी' लिपि ही रहा होगा। हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में यह बात आम तौर से पाई जाती है कि जिस किसी भी चीज़ की उत्पत्ति कुछ अधिक प्राचीन या अज्ञेय हो उसके निर्माता के रूप में बड़ी आसानी से 'ब्रह्मा' का नाम ले लिया जाता है। संसार की अन्य पुरालिपियों की उत्पत्ति के बारे में भी यही देखने को मिलता है कि प्राय: उनके जनक कोई न कोई दैवी पुरुष ही माने गए हें। हमारे यहाँ भी 'ब्रह्मा' को लिपि का जन्मदाता माना जाता रहा है, और इसीलिए हमारे देश की इस प्राचीन लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा है।
खरोष्ठी लिपि
अशोक के सिद्दापुर (ज़िला चित्रदुर्ग, कर्नाटक) के पास के ब्रह्मगिरि लेख की अंतिम पंक्ति।
इसमें बाईं ओर के शब्द हैं चपडेने लिखिते (ब्राह्मी में) और दाईं ओर का शब्द है
लिपकिरेण (खरोष्ठी लिपि में), जो दाईं ओर से बाईं ओर पढ़ा जाएगा।
खरोष्ठी लिपि गान्धारी लिपि के नाम से जानी जाती है । जो गान्धारी और संस्कृत भाषा को लिपिवद्ध प्रयोग करने में आती है । इसका प्रयोग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी तक प्रमुख रूप से एशिया में होता रहा है । कुषाण काल में इसका प्रयोग भारत में बहुतायत में हुआ । बौद्ध उल्लेखों में खरोष्ठी लिपि प्रारम्भ से भी प्रयोग में आयी । कहीं-कहीं सातवी शताब्दी में भी इसका प्रयोग हुआ है। एक प्राचीन भारतीय लिपि जो अरबी लिपि की तरह दांये से बांये को लिखी जाती थी। चौथी-तीसरी शताब्दी ई.पू. में भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांतों में इस लिपि का प्रचलन था। शेष भागों में ब्राह्मी लिपि का प्रचलन था जो बांये से दांये को लिखी जाती थी। इस लिपि के प्रसार के कारण खरोष्ठी लिपि लुप्त हो गई इस लिपि में लिखे हुए कुछ सिक्के और अशोक के दो शिलालेख प्राप्त हुए हैं।
शारदा लिपि
ईसा की दसवीं शताब्दी से उत्तर-पूर्वी पंजाब और कश्मीर में शारदा लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। ब्यूह्लर का मत था कि शारदा लिपि की उत्पत्ति गुप्त लिपि की पश्चिमी शैली से हुई है, और उसके प्राचीनतम लेख 8वीं शताब्दी से मिलते हैं। ब्यूह्लर ने जालंधर (कांगड़ा) के राजा जयचंद्र की कीरग्राम के बैजनाथ मन्दिर में लगी प्रशस्तियों का समय 804 ई. माना था, और इसी के अनुसार इन्होंने शारदा लिपि का आरम्भकाल 800 ई. के आस-पास निश्चित किया था।
कलिंग लिपि
कलिंग प्रदेश में ईसा की 7वीं से 12वीं शताब्दी तक जिस लिपि का प्रयोग हुआ, उसे कलिंग लिपि का नाम दिया गया है। इस लिपि का प्रयोग अधिकतर कलिंगनगर (मुखलिंगम्, गंजाम ज़िले में पर्लाकिमेडी से 20 मील दूर) के गंगवंशी राजाओं के दानपत्रों में देखने को मिलता है। इन राजाओं ने ‘गांगेय संवत्’ का उपयोग किया है। यह संवत् ठीक किस साल से आरम्भ होता है, यह अभी तक जाना नहीं जा सका है।
बांग्ला लिपि
बांग्ला लिपि भारतवर्ष के पूर्वी विभाग अर्थात् मगध की तरफ की लिपि से निकली है और बिहार, बंगाल, मिथिला, नेपाल, आसाम तथा उड़ीसा से मिलने वाले कितने एक शिलालेख, दानपत्र, सिक्कों या हस्तलिखित पुस्तकों में पाई जाती है।
तेलुगु एवं कन्नड़ लिपि
वर्तमान तेलुगु और कन्नड़ लिपियों में काफ़ी समानता है। दोनों का विकास एक ही मूल लिपि-शैली से हुआ है। आज इन लिपियों का प्रयोग कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ ज़िलों में होता है। इस लिपि का आद्य स्वरूप आरम्भिक चालुक्य अभिलेखों में देखने को मिलता है। पश्चिमी दक्खन (दक्षिण) में बनवासी के कदंबों के लेखों में और बादामी के चालुक्यों के लेखों में इस लिपि का आद्य रूप देखने को मिलता है। बादामी के प्रसिद्ध राजा पुलकेशी प्रथम (वल्लभेश्वर) का एक अभिलेख 1941 ई. में मिला है। इसमें शकाब्द 465 (543 ई.) का प्रयोग किया गया है। अल्फ़्रेड मास्टर के अनुसार कन्नड़ लिपि का प्राचीनतम अभिलेख हळेबीडु शिलालेख है, जिसे वे पाँचवीं शताब्दी का मानते हैं।
ग्रन्थ लिपि
तमिलनाडु के ऑर्काट, सेलम, तिरुचिरापल्ली, मदुरै, तिरुनेल्वेलि तथा पुराने तिरुवितांकुर (ट्रावंकोर) राज्य में 7वीं शताब्दी से इस लिपि का व्यवहार होता था। दक्षिण के पाण्ड्य, पल्लव तथा चोल राजाओं ने अपने अभिलेखों में इस लिपि का प्रयोग किया है। दक्षिण भारत की स्थानीय लिपियों की अपूर्णता के कारण संस्कृत भाषा के ग्रन्थ एवं अभिलेख उनमें नहीं लिखे जा सकते थे। संस्कृत के ग्रन्थ तथा अभिलेख लिखने के लिए जिस लिपि का दक्षिण भारत में उपयोग होता था, उसी को आगे चलकर ‘ग्रन्थ लिपि’ का नाम दिया गया।
तमिल लिपि
तमिल भाषा के प्राचीनतम लेख दक्षिण भारत की कुछ गुफ़ाओं में मिलते हैं। ये लेख ई.पू. पहली-दूसरी शताब्दी के माने गए हैं और इनकी लिपि ब्राह्मी लिपि ही है। लेकिन इसके बाद सातवीं सदी तक तमिल लिपि के विकास का कोई सूत्र हमारे हाथ नहीं लगता।
वट्टेळुत्तु लिपि
वट्टेळुत्तु लिपि का विकास, तमिल लिपि की तरह, ब्राह्मी से ही हुआ है। तमिल लिपि को त्वरा से घसीट के साथ लिखने के कारण 7वीं शताब्दी के आस-पास दक्षिण के प्रदेशों में यह लिपि अस्तित्व में आई थी। पाण्ड्य शासकों ने अपने अभिलेखों में इसका उपयोग किया है।
सिन्धु लिपि
सिन्धु घाटी की सभ्यता से संबंधित छोटे-छोटे संकेतों के समूह को सिन्धु लिपि कहते हैं। इसे सिन्धु-सरस्वती लिपि और हड़प्पा लिपि भी कहते हैं। सिन्धु सभ्यता का उदघाटन 1920 ई. के बाद हुआ। यदि हमारे पुरातत्त्ववेत्ता अधिक सचेत होते तो इस सभ्यता की खोज उन्नीसवीं शताब्दी में ही हो गई होती। मेसोने ने 1820 में पहली बार हड़प्पा के टीलों को पहचाना था। 1865 में ब्रिटेन-बंधुओं-जॉन और विलियम को लाहौर से कराची तक की रेल लाइन बनाने का ठेका मिला। विलियम ने मुल्तान-लाहौर लाइन का निर्माण किया और इस लाइन की गिट्टी के लिए हड़प्पा की ईटों का अंधाधुंध इस्तेमाल किया। 'आज रेलगाड़ियाँ सौ मील तक ऐसी पटरियों पर से गुज़रती हैं, जो ई. पू. तीसरी सहशताब्दी की बनी हुई ईटों पर मज़बूती से टिकी हुई हैं। ईटों की इस लूट के दौरान कई प्रकार के पुरावशेष प्राप्त हुए। इनमें से अधिक आकर्षक पुरावशेषों को मज़दूरों और इंजीनियरों ने रख लिया'।[3]
गुरुमुखी लिपि
गुरुमुखी लिपि वह लिपि है, जिसमें सिक्खों का धर्मग्रन्थ 'ग्रन्थ साहब' लिखा हुआ है। गुरु नानक के उत्तराधिकारी गुरु अंगद ने नानक के पदों के लिए गुरुमुखी लिपि को स्वीकार किया, जो ब्राह्मी से निकली थी और पंजाब में उनके समय में प्रचलित थी। गुरुवाणी इसमें लिखी गई, इसलिए इसका नाम 'गुरुमुखी' पड़ गया।
हड़प्पा लिपि
हड़प्पा लिपि का सर्वाधिक पुराना नमूना 1853 ई. में मिला था पर स्पष्टतः यह लिपि 1923 तक प्रकाश में आई। सिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिह्न एवं 205 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। यह लिपि चित्रात्मक थी। यह लिपि अभी तक गढ़ी नहीं जा सकी है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में क़रीब 17 चिह्न हैं।
ब्राह्मी लिपि अशोक-काल लिपि
सिकंदर के 325 ई.पू. में पश्चिमोत्तर भारत से ही वापस चले जाने के तुरंत बाद चंद्रगुप्त (324-300 ई.पू.) ने नंदवंश का तख्ता उलटकर मौर्य वंश की स्थापना की। चंद्रगुप्त के बाद उसका पुत्र बिंदुसार राजगद्दी पर बैठा, और बिंदुसार की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अशोक 372 ई. पू. में राजा बना। ज्ञात होता है कि राजगद्दी के लिए शुरू में काफ़ी झगड़ा हुआ था; क्योंकि अशोक का राज्याभिषेक उसके गद्दी पर बैठने के चार साल बाद 268 ई. पू. में हुआ। इसके बाद उसने लगभग 37 साल तक भारत के एक विशाल भू-भाग पर राज्य किया। उसने कलिंग को भी अपने राज्य में शामिल कर लिया था। बौद्ध ग्रन्थों के उल्लेखों से पता चलता है कि आरंभ में वह, अपनी क्रूरता के कारण, चंडाशोक कहलाता था; परंतु बाद में उसने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया और वह धार्मिक कार्य करने लगा तो उसे धर्माशोक कहा जाने लगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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